Thursday, July 18, 2013

हम गरीब या वंचित को इंसान समझते ही कब हैं?



हम गरीब या वंचित को इंसान समझते ही कब हैं?


बिहार के एक स्कूल में मिड डे मील की वजह से हुई बच्चों की मृत्यु ने बहुत दुखी कर दिया है| यदि ये कोई साजिश है तो बहुत ही घृणित और अक्षम्य है| यदि ये लापरवाही है , जैसी कि अन्य कई जगहों पर अनेकों बार हुई है तब भी जानबूझकर की गयी ह्त्या से ज्यादा सजा के लायक है| पूंजीवादी समाज में सरकारों को देश के सभी लोगों के लिए शिक्षा, नौकरी, रोजगार, काम, देने के बजाय मुफ्त में खाना, चप्पलें, साईकिलें, बीमार गायें, मरियल बकरी बांटना पुसाता है| लेपटाप से लेकर पोर्टेबल कलर टीव्ही तक क्या राज्यों की सरकारों ने नहीं बांटा है| इस तरह की योजनाओं से इन राजनीतिक दलों के पास एक ऐसा तबका हमेशा के लिए तैयार हो जाता है, जो उनके रहमों करम और इशारों पर नाचने के लिए तैयार रहता है| यही उनका वोट बैंक है और यही उनका समर्थक वर्ग| यह एक राजनीतिक दल से दूसरे के पास शिफ्ट हो सकता है, मगर रहता हमेशा उनके रहमोकरम पर ही है| दान पे जीने वाला|

दान का अपना मनोविज्ञान होता है| विशेषकर जब दान को प्राप्त करने वाला गरीब और वंचित हो या पंडित पुजारी हो तो , दोनों को दिए गए दान की गुणवत्ता और ग्राहता में यह मनोविज्ञान और भी साफ़ होकर दिखाई देता है| गरीबों को जब दान देने की बारी आती है तो करोडपति के घर से भी फटे और फटे न भी हों तो पुराने कपड़े ही बाहर निकालेंगे| घर के नौकरों तक को, जोकि घर के अभिन्न अंग होते हैं , हमेशा सुबह का खाना शाम को, और रात का खाना सुबह ही दिया जाता है| यहाँ तक की कई घरों में मैंने देखा है कि कम से कम तीन चार दिनों तक फ्रिज में पड़े रहने के बाद खाने को माँगने आने वाले भिखारियों या घरेलु नौकरों को देते हैं| यह मानकर चला जाता है की ऐसे लोग सब कुछ पचा लेते हैं और जो वस्तुएं सामान्यतया दानकर्ता के लिए अखाद्य होती हैं , वे गरीब तबके के लोग खा भी लेते हैं और उन्हें नुकसान भी नहीं होता|

दान का यह मनोविज्ञान कुछ व्यक्तियों,   परिवारों तक सीमित नहीं रहता| ये समाज से होते हुए सरकारों की मनोदशाओं और सरकार की योजनाओं को अमल का जामा पहनाने वाली पूरी मशीनरी पर भी गहरा और व्यापक असर डालता है| योजना आयोग जब यह कहता है कि एक आदमी 26 रुपये प्रतिदिन में अपना भरण पोषण कर सकता है तो मनोविज्ञान गरीब को उसी लायक समझने का है की इसे भर पेट और अच्छे भोजन की आवश्यकता ही कहाँ है? एक मंत्री, एक सरकारी अधिकारी या कोई नेता जब मात्र 5 रुपये में अन्नपूर्णा योजना के तहत दिए जाने वाले दाल-चावल योजना को लेकर अपनी पीठ थपथपाता है तो उसके पीछे भावना यही रहती है कि यह तो सरकार की मेहरबानी है, जितनी मिले उतनी ही बहुत है| यही बात सरकार की मिड डे मील योजना में भी साफ़ झलकती है|

चाहे वह केंद्र की सरकार हो या राज्य की सरकारें, उनके प्रशासन का काला चेहरा यदि देखना है तो सस्ते में उपलब्ध कराये जा रहे खाद्यानों में, मिड डे मील जैसी योजनाओं में, गर्भवती महिलाओं के लिए चलाये जा रहे कार्यक्रमों में, गरीबों के लिए लगाए गए नेत्र चिकित्सा शिविरों में, मनरेगा जैसी योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार में, उस काले चेहरे को देखा जा सकता है| अधिकतर मामलों में सस्ते में दिए जाने वाला अन्न सडा गला और न खाने लायक होगा, मुफ्त में दिया जाने वाला भोजन पूरी तरह घटिया सामानों से बना होगा और ठेकेदार से लेकर किसी भी अधिकारी और मंत्री या नेता के जेहन में ये बात नहीं होगी की इसे खाने वाले इंसान होंगे| बस किसी हादसे के बाद ही हायतौबा मचेगी और फिर कुछ दिनों बाद सब जैसा का तैसा हो जाएगा| लालच पर आधारित व्यवस्था में दान पर जीने वालों को इंसान नहीं समझा जाता, यही सबसे बड़ा सच है| इस व्यवस्था ने हमें भी यही सिखाया है| हम भी गरीब या वंचित को इंसान समझते ही कब हैं? 

अरुण कान्त शुक्ला
१८जुलाई, २०१३ 
              

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