Wednesday, October 17, 2012

कपटी और परनिंदक अपने आसपास के समाज को बर्बाद करते हैं.....



कपटी और परनिंदक अपने आसपास के समाज को बर्बाद करते हैं.....  


इस दुनिया में कुछ ऐसे भी लोग होते हैं, जिनके जीवन का ध्येय ही पीठ पीछे दूसरों की बुराई करना होता है| ये परनिंदक कहलाते हैं और अक्सर समाज में थोड़ी बहुत पैठ भी रखते हैं|

ये निंदकों से भिन्न होते हैं| कबीर ने बहुत अच्छे से निंदक और परनिंदक के बीच के अंतर को समझाया है..

निंदक दूर न कीजिये, कीजै आदर मान|  निर्मल तन मन सब करै,बकै आनही आन||

अर्थ.. अपनी निंदा करने वाले निंदक से कभी अपने को दूर मत करो, वह आपको सतर्क करता हुआ, आपके तन मन को निर्मल बना देगा| निंदक सारे जगत में किसी की बुराई करते नहीं फिरता और न ही किसी के खिलाफ लोगों को करने का अभियान चलाने वाला होता है| ऐसे ही निंदक को कबीर अपने पास रखने की बात कर रहे हैं|

पर, परनिंदक के बारे में कबीर क्या कहते है..

लोग विचारा निन्दही, जिनहु न पाया ज्ञान|  राम नाम जाने नहीं, बके आनही आन||

अर्थ.. जिन लोगों को ज्ञान की प्राप्ती नहीं हुई है, वे बिना विचार किये दूसरों की निंदा करते हैं | उन्हें ज्ञान तो होता नहीं, इसीलिए जो मन में आया ऐसा-वैसा बकते रहते हैं|

ऐसे ही परनिंदक के बारे में कबीर की एक और साखी है..

निंदक ते कुत्ता भला, हट कर मांडे शर|  कुत्ते ते क्रोधी बुरा, गुरु दिलावे गार||

अर्थ..निंदक से तो बहुत भला कुत्ता है, जो कि दूर हटकर भौंकता है| परन्तु कुत्ते से भी अधिक बुरा क्रोध करने वाला निंदक है, जिसके कारण उसके गुरु को भी गाली मिलाती है(क्योंकि सब सोचते हैं कि जब यही ऐसा अज्ञानी, पर निंदा करने वाला है, तो इसका गुरु भी ऐसा ही होगा)

बहुत पहले एक कोटेशन पढ़ा था, आज वो भी बहुत याद आ रहा है;

"कभी किसी मूर्ख के साथ बहस में मत उलझिए, जब वह अपनी सारी मूर्खता के साथ बहस पर उतारू हो जाएगा तो आपकी सारी बुद्धिमत्ता भी आपको नहीं बचा सकेगी|"

कबीर ने इसी बात को कुछ ऐसे कहा है,

गाहक मिले तो कुछ कहूं, ना तर झगड़ा होय| अन्धों आगे रोईये, अपना दीदा खोय||

अर्थ.. यदि सच्चे आत्म ज्ञान का परम जिज्ञासु व्यक्ति मिले तो उससे कुछ बात भी की जाए| नहीं तो अज्ञानी-अनाधिकारी के सामने बोलने और बात करने से तो झगड़ा ही होता है| जैसे - अन्धों के सामने रोकर तो अपनी आँख ही खराब करना है ( क्योंकि उन्हें कुछ दिखाई तो देगा नहीं याने अक्ल से अन्धों के सामने बोलने से कोई फ़ायदा नहीं, क्योंकि उन्हें कुछ समझ तो आएगा नहीं)|

दरअसल, परनिंदक उन अन्धों के समान होते है, जो एक हाथी को छूने के बाद अपने अपने हिसाब से उसका वर्णन करते हैं, अब कोई आँख वाला(ज्ञानी) उन्हें समझाने की कोशिश भी करेगा कि हाथी वैसा नहीं है, जैसा वे बता रहे हैं तो वो मानेंगे नहीं, क्योंकि वे तो अंधे(ज्ञान शून्य) हैं|

कबीर ने इसे ऐसे कहा है,

अंधे मिले हाथी छुआ, अपने अपने ज्ञान| अपनी अपनी सब कहें, किसको दीजे कान||

अन्धों ने मिलकर किसी हाथी को अपने -अपने ज्ञानानुसार छुआ(और उस हाथी के भिन्न अंगों-पाँव, सूंड,कान,पूंछ आदि जिसने जिस अंग को छुआ,उसी अनुसार) सबने हाथी को बताया( हाथी ऐसा है-वैसा है)| आप बताईये उनमें से किसी की भी बात कान(ध्यान) देने लायक है क्या?

ऐसे अन्धों(निंदकों)से कुछ कहने की बजाय, दूर रहना ही बेहतर है| कबीर ने इसे यूं कहा है;

निरजानी सों कहिये कहा, कहत कबीर लजाये| अंधे आगे नाचते, कला अकारथ जाए||

अर्थ..अज्ञानी-जनों से क्या कहें-क्या समझाएं? ज्ञानी पुरुष तो उनसे बात करने में भी शर्म करेंगे|और फिर उनसे कही गई सभी बातें तो वैसे ही व्यर्थ हैं, जैसे अन्धों के आगे कितनी भी अच्छी नृत्य कला क्यों न पेश की जाए, उसे तो व्यर्थ ही होना है|

मित्रों, कोई कितनी भी कोशिश करले, पर, परनिंदा करने वाले, मन में कपट रखने वाले व्यक्तियों के स्वभाव और प्रकृति कभी बदली नहीं जा सकती..

कपटी कभी न उधरै, सौ साधन के संग|  मुंज परवालै गंग में, ज्यौं भीजे त्यौ तंग||

सैकड़ों साधुओं के संग रहता हुआ भी, कपटी मनुष्य का कोई उद्धार नहीं हो सकता| जैसे मूंज या सन की रस्सी को चाहे जितना गंगा में धोईये, वह उतना ही ऐंठती जायेगी| इसी तरह कपटी और परनिन्दकों के स्वभाव को कोई कभी नहीं बदल सकता|  

दोष पराया देख करि, चले हसंत हसंत| अपना याद न आवई, जाका आदि न अंत||

परनिंदक लोग दूसरों के दोषों को देख देख कर, हंसते हंसते चलते हैं| परन्तु अपने दोषों को वे कभी याद नहीं करते, जिनका कोई आदि-अंत नहीं है(जो इतने अधिक हैं कि उनका पार नहीं पाया जा सकता)|

जैसे किसी मनुष्य को जीने के लिए ह्रदय का धड़कना जरूरी होता है, उसी प्रकार परनिंदक को जीने के लिए परनिंदा जरूरी होती है|उनका अपना कुछ नहीं होता, वे परनिंदा पर ही जीवित रहते हैं|सर्प आपको काटे बिना जा सकता है, पर, कपटी बिना धोखा दिये न रहेगा, परनिंदक बिना परनिंदा किये नहीं जाएगा| जैसे, घुन अनाज को बर्बाद करता है| जैसे दीमक काठ को बर्बाद करती है| वैसे ही कपटी और परनिंदक अपने आसपास के समाज को बर्बाद करते हैं|

अरुण कान्त शुक्ला,
१७ अक्टोबर २०१२,   



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