Tuesday, May 29, 2012

पेट्रोल पर फिर पाखंड -


             पेट्रोल पर फिर पाखंड –

पेट्रोल की कीमतों में बढ़ोत्तरी के खिलाफ दो साल बाद फिर एक बार 31 मई को एनडीए के घटक दलों ने भारत बंद का आव्हान किया है और मोटे तौर पर लेफ्ट सहित सभी विरोधी राजनीतिक दलों का इसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन प्राप्त है | स्थिति लगभग 2010 जैसी ही है , जिसे एनडीए के संयोजक शरद यादव ने विपक्षी दलों के मध्य अभूतपूर्व एकता करार दिया था | पेट्रोल , डीजल और एलपीजी के दामों में बढ़ोत्तरी आम लोगों और विशेषकर मध्यवर्ग के हर हिस्से कामगार , कर्मचारी , छात्र , घरेलु महिला से जुड़ा हुआ अत्याधिक संवेदनशील मुद्दा है और कोई भी राजनीतिक दल इस अवसर पर जनता को यह दिखाने से चूकना नहीं चाहता है कि एक वही है , जिसे जनता से सबसे ज्यादा प्यार है | जो विरोध पक्ष में नहीं हैं और यूपीए के साथ जुड़े हैं , उन्हें भी इस पाखण्ड को दिखाने की मजबूरी है |


यूपीए की सत्ता में हिस्सेदार तृणमूल और डीएमके का विरोध भी पाखंड का ही हिस्सा है | रेल किराए पर अपने ही दल के मंत्री को खो करवाकर यूपीए को हिलाने वाली ममता बनर्जी जब यह कहती हैं कि पेट्रोल की कीमतों के सवाल पर वो यूपीए सरकार को अस्थिर नहीं करने वालीं तो उनके जनता प्रेम के पीछे छिपा पाखंड और अधिक उजागर होकर सामने आता है | कमोबेश यही स्थिति यूपीए के दूसरे घटक डीएमके की है | जिस समय करुणानिधी तमिलनाडु में पत्रकारों से घिरे यह कह रहे थे कि वे केन्द्र सरकार से बढ़ी हुई कीमतों को वापस लेने की मांग करेंगे , उन्हें छोड़कर बाकी सबको याद आ रहा होगा कि दो साल पहले जून , 2010 में पेट्रोल की कीमतों को विनियंत्रित करके कंपनियों के भरोसे छोड़ने का निर्णय मंत्रियों के जिस शक्ति प्राप्त समूह ने लिया था , उनके दल के एम.के.अलगिरी यूपीए में मंत्री थे और उस शक्ति प्राप्त मंत्री समूह के एक सदस्य थे | याने आज प्रधानमंत्री , वित्तमंत्री और पेट्रोलियम मंत्री जिस हथियार का इस्तेमाल करके कह रहे हैं कि पेट्रोल की कीमतें बढ़ाने का सरकार से कोई तालुक नहीं हैं और यह पेट्रोल कंपनियों का ही काम है , उस हथियार के निर्माण में डीएमके की बराबर की जिम्मेदारी है | इसके बाद लोगों की तकलीफों के प्रति उनकी चिंता पाखंड नहीं तो और क्या है |


सरकारी तेल कंपनियों और स्वयं सरकार के पाखंड का हाल कुछ कम नहीं है | सरकार और सरकारी तेल कंपनियों का व्यवहार जनता के साथ कुछ उस व्यक्ति के समान है , जो सड़क पर पड़े हुए सोडावाटर की बाटल के ढक्कन को रुपया समझ कर उठा ले और रोना शुरू कर दे की उसे एक रुपये का नुकसान हुआ है | सरकार अंडर रिकवरी के जिस फार्मूले के अनुसार पेट्रोल , डीजल , एलपीजी या केरोसिन के दाम तय करती है , वो जनता को सोडावाटर बाटल के ढक्कन को रुपया समझाने के बराबर ही है | सरकार पेट्रोल , डीजल , एलपीजी और केरोसिन की कीमत यह मानकर तय करती है कि मानो इन्हें जिस रूप में जनता तक पहुंचाया जा रहा है , ये उसी रूप में आयात किये जा रहे हैं और इन पर एक्साईज ड्यूटी , बीमा , ढुलाई और अन्य लेवी उसी तरह लगाई जाती हैं मानो वे सही में आयात किये गये हैं , जबकि ये सब केवल अनुमान के आधार पर होता है और वास्तव में कंपनियों को कोई ऐसा भुगतान नहीं करना पड़ता है | सरकार का तर्क भी इस मामले में पाखंडपूर्ण है | सरकार कहती है कि मानलो कि भारत में कोई रिफायनरी नहीं होती तो फिर सभी पेट्रोलियम पदार्थ शोधित रूप में ही विदेशों से आयात किये जाते , तब यही कीमत चुकानी पड़ती | इसीलिये देश के लोगों को आयात मूल्यों पर ही पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत चुकानी होगी , जबकि वास्तविकता यह है कि भारत का सार्वजनिक क्षेत्र हो या निजी क्षेत्र , वो कच्चा तेल ही आयात करता है और उसका परिशोधन भारत में ही होता है | यही कारण है कि परिशोधन के बाद भी उसका मूल्य सरकार के काल्पनिक आयात मूल्य से बहुत कम रहता है | अब उपरोक्त काल्पनिक कीमत और वास्तविक कीमत के अंतर को वो घाटा (अंडर रिकवरी) बताते हैं याने सरकार सोडावाटर बाटल के ढक्कन को रुपया समझती है और उसका सोचना है कि उसे घाटा हुआ है तो जनता इसकी भरपाई करे |


घाटे के बारे में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का रोना कितना मगरमच्छी है , यह उनके द्वारा अर्जित मुनाफे से पता चल जाता है | आईओसी , सबसे बड़ी तेल मार्केटिंग कंपनी ने वित्त वर्ष 2011-12 की चौथी तिमाही में 12670.43 करोड़ रुपये का मुनाफ़ा कमाया है , जो पिछले वर्ष की इसी अवधी की तुलना में 400 प्रतिशत से अधिक है | इसी तरह आईल इंडिया ने 2011-12 में 3446.92 करोड़ रुपये का मुनाफ़ा कमाया , जो पिछले वर्ष के मुकाबले 19.36 प्रतिशत अधिक है | बीपीसीएल  ने इसी दौरान 3962.83 करोड़ रुपये का शुद्ध मुनाफ़ा कमाया , जो पिछले वर्ष के मुकाबले चार गुना अधिक है | इंडियन आईल का शुद्ध लाभ 2488.44 करोड़ का है और उसने 50 प्रतिशत लाभांश की घोषणा की है |


दरअसल , डालर के मुकाबले रुपये की कीमत में गिरावट का यह मतलब कतई नहीं है कि इन कंपनियों और सरकार को घाटा ही घाटा हो रहा हो | ये कंपनियां अपने उन उत्पादों के लिए बहुत मुनाफ़ा कमा  रहीं हैं , जिनका वे निर्यात करती हैं , जबकि उनके उत्पादन की कीमतों में कोई ज्यादा वृद्धि नहीं हो रही है | इसी तरह प्रत्येक आयात पर सरकार को ज्यादा राजस्व की प्राप्ती हो रही है | इसका अर्थ हुआ कि सभी तेल और गैस कंपनियां और सरकार रुपये की कीमत में गिरावट से फ़ायदा कमाएँ और आम लोगों से रुपये की कीमत में गिरावट का खामियाजा वसूला जाये |


प्रत्येक बार कीमतों में बढ़ोत्तरी के साथ केन्द्र और राज्य सरकारों को प्राप्त होने वाला टेक्स अपने आप बढ़ जाता है क्योंकि यह प्रति लीटर मात्रा के ऊपर नहीं प्रति लीटर कीमत के रूप में वसूला जाता है | देश में तमिलनाडु छोड़कर या तो कांग्रेस के गठबंधन वाले दलों की सरकारें हैं या एनडीए के घटक दलों की | सभी राज्य सरकारें वेट के जरिये बढ़ी हुई कीमत पर  बढ़ा हुआ टेक्स पाती हैं , पर न तो केन्द्र सरकार और न ही राज्य सरकारें अपने टेक्स को कम करने को तैयार हैं , याने उन दलों की सरकारें भी टेक्स कम करने को तैयार नहीं हैं , जो 31 मई के भारत बंद में शामिल हैं | यदि समस्या केवल डालर के बरक्स रुपये की कीमत में आयी कमी का है तो फिर केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों को बढ़ी हुई कीमत पर टेक्स नहीं लेना चाहिये |  


अब जरा ईधन के बढ़े मूल्यों के खिलाफ विपक्ष के भारत बंद के शोर का जायजा भी लें | भाजपानीत एनडीए गठबंधन ने 19 मार्च 1998 से 22 मई 2004 के बीच केंद्र की सरकार में रहते हुए छै वर्षों में पेट्रोल के मूल्यों में 10 रुपये 87 पैसे , डीजल में 11 रुपये 49 पैसे ,रसोई गैस में 105  रुपये 60 पैसे तथा केरोसिन में 6 रुपये की बढ़ोत्तरी की थी | अभी यूपीए के साथ जुड़ी , पेट्रोल को विनियंत्रित करने के लिए हुई संपन्न मंत्रियों की बैठक से अनुपस्थित होकर विरोध जताने वाली और अभी मूल्यवृद्धि पर विरोध जताने वाली ममता बनर्जी तब भाजपानीत एनडीए सरकार के साथ थीं | अभी गैरभाजापाई विपक्ष का हिस्सा बने चंद्राबाबू नायडू तब एनडीए सरकार के साथ थे |


एक बात और , पेट्रो उत्पादों को अंतरराष्ट्रीय बाजार के मूल्यों से जोड़ने की शुरुवात करने का श्रेय भाजपानीत एनडीए सरकार को ही है | वर्ष 2002  में भाजपाई एनडीए सरकार ने अमेरिका , डब्ल्यूटीओ और तेल कंपनियों के दबाव में पेट्रोलियम सेक्टर को सरकारी नियंत्रण से मुक्त किया था | एनडीए के समय से ही पेट्रो उत्पादों पर से सबसीडी कम करने की शुरुवात भी हुई थी | वर्ष 2004  में आसन्न आम चुनावों के मद्देनजर 2003  में भाजपा ने इस कदम को वापस लिया था |  यूपीए ने पिछले आठ वर्षों में पेट्रोल के मूल्यों में लगभग 40 रुपये प्रति लीटर की वृद्धि की है | राष्ट्रीय जनता दल , लोकतांत्रिक जनशक्ति पार्टी यूपीए के प्रथम चरण में मंत्रीमंडल में थे और  4  वर्षों से ज्यादा तक वाममोर्चे का यूपीए को समर्थन था | सपा ने यूपीए को प्रथम चरण में भी समर्थन दिया था और अभी भी दिया हुआ है | राष्ट्रीय जनता दल का समर्थन यूपीए को आज भी प्राप्त है |


याने , सरकारें बदलती हैं नीतियां नहीं |  जो भी लड़ाई है , कुर्सी पर बैठकर मलाई खाने की है | भारत के गैरसंपन्न तबके के लिये चल रहा बुरा वक्त और भी बुरा होने वाला है | विडम्बना यह है कि भारत के आम आदमी के पक्ष में जो अपने आप को दिखाना चाहते हैं , वो भी उसके विपक्ष में ही हैं | यह सारा पाखंड अपने राजनीतिक वजूद को अलग दिखाने की कवायद से अधिक कुछ नहीं है |  कोई भी राजनीतिक दल ये कहने तैयार नहीं है कि वो यदि सत्ता में आया तो पेट्रो पदार्थों पर नीतियों को पूरी तरह उलट देगा |  मनमोहनसिंह ने देश को बाजार के हवाले किया था , एनडीए ने बाजार को फ्री किया था और अब यूपीए उस बाजार को समृद्ध कर उसका विकास कर रही है | देश के आम लोगों को समृद्ध करने और उनका विकास करने के लिए तो सबके पास केवल पाखंड ही है |

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