Thursday, July 29, 2010

वोटिंग से क्यों डर रही है सरकार -


वोटिंग से क्यों डर रही है सरकार

महंगाई के सवाल पर विपक्ष जहां नियम 168 या 183 के अंतर्गत चर्चा किये जाने की मांग को लेकर अड़ा है , वहीं सरकार किसी भी हालत में इसके लिये राजी होते नहीं दिखती | इसी गतिरोध पर हंगामे के चलते तीसरे रोज गुरुवार को भी लोकसभा तथा राजसभा स्थगित हो गईं | विपक्ष के हंगामे की वजह से लोकसभा या राजसभा के स्थगित होने पर हमेशा जनता का पैसा बर्बाद होने का ढिंढोरा पीटने वाला मीडिया भी इस बार पहले दिन थोड़ा शोरगुल करने के बाद चुप लगा गया |इतना ही नहीं, कल तक सीना फुलाकर मंहगाई को विकास का द्योतक बताने वाले प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री से लेकर सभी सरकारी नुमाईन्दों और सरकार के पक्ष में बोलने वाले बुद्धिजीवियों की जबान भी आज इस सवाल पर जबाब देते समय लड़खड़ा रही है | दरअसल , तमाम तर्कों से परे यह सचाई आम
देशवासियों के सामने खुलकर आ गई है कि वर्तमान महंगाई का कोई भी रिश्ता न सूखे से है और न ही खाद्यान्न की कमी से है , यह सिर्फ और सिर्फ मनमोहन सरकार की नीतियां हैं , जिनके फलस्वरुप आम देशवासियों को यह दिन देखना पड़ रहे हैं | बजट पेश करते समय ड्यूटी और टेक्स बढ़ाकर पेट्रोल और डीजल की कीमतों में व्रद्धि के तीन महिनों के भीतर ही पुनः पेट्रो उत्पादों को छेड़ना यूपीए सरकार के लिये गले की हड्डी बन गया है , जो अब न उससे उगलते बन रही है और न निगलते |


इसके बावजूद कि भाजपा सहित विपक्ष के कमोबेश सभी दल पिछ्ले डेढ़ दशक में उन्ही नीतियों पर चले हैं , जिनसे महंगाई बढ़ने के साथ साथ आम देशवासियों के जीवन में त्रासदियां भी बढ़ी हैं , विपक्ष के लिये इस मुद्दे को छोड़ना , राज्यों में होने वाले आसन्न चुनावों को देखते हुए आत्मघाती होगा | आग में घी का काम प्रधानमंत्री , वित्तमंत्री , कृषिमंत्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष के बयान कर रहे हैं कि दिसम्बर तक महंगाई काबू में आ जायेगी , क्योंकि अच्छे मानसून से उत्पादन में वृद्धि होगी | तो क्या , खाद्यान्नों के पिछ्ले तीन सालों में बढ़े हुए मूल्यों के लिये मानसून और सूखा ही जिम्मेदार हैं ? या , सरकार की लचर और आम लोगों के प्रति सम्वेदनाहीन नीतियों का इसमें ज्यादा हाथ है ?


इससे ज्यादा दुखदायी और क्या हो सकता है कि सरकार महंगाई को नियंत्रित करने में तब असफल हुई है , जब भारतीय खाद्य निगम याने एफसीआई के गोदामों में 3.40 करोड़ टन गेहूं और 2.6 करोड़ टन चावल का स्टाक है | गेहूं , दलहन और तिलहनों के रबी के उत्पादन से भी खाद्य वस्तुओं की महंगाई कम नहीं हुई | सच यह कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली नाम की जिस सप्लाई चेन को मनमोहनसिंह और फिर उनके बाद आने वाली सरकारों ने बर्बाद किया , आज के हालातों में वही सबसे अधिक उपयोगी होती | इस पूरे दरम्यान सरकार ने एक बार भी इस ओर ध्यान नहीं दिया कि एफसीआई के पास पड़े विशाल खाद्यान्न भंडार का वितरण , कैसे बेहतर तरीके से किया जाये | बजाय उस अनाज को जरुरतमन्दों तक पहुंचाने के प्रबंध करने के , सरकार की प्राथमिकता , उस अनाज को सड़ते रहने देने की रही | एक और हास्यास्पद परिस्थिति का निर्माण , इस दौरान
महंगाई और पेट्रो उत्पादों के मूल्यों में बढ़ोत्तरी के बाद इन पर टेक्स कम करने के सवाल को लेकर हुआ है | केंद्र और राज्यों के मध्य पेट्रो उत्पादों , विशेषकर , पेट्रोल , डीजल , एलपीजी पर टेक्स कम करने तथा महंगाई पर नियंत्रण करने के सवालों को लेकर एक दूसरे के उपर दोषारोपण | केंद्र सरकार जहां राज्य सरकारों से बार बार पेट्रोल , डीजल सहित एलपीजी पर टेक्स कम करने को कह रही है तथा बर्बाद हो रहे अनाज के लिये राज्यों को दोषी ठहरा रही है , वहीं राज्य सरकारें केंद्र को स्वयं अत्याधिक टेक्स वसूली के लिये तथा गैरकांग्रेसी राज्यों में अनाज का कोटा कम करने के लिये दोषी ठहरा रहीं हैं | केंद्र तथा राज्य , दोनों सरकारें लालची , मुनाफाखोर सेठों की तरह व्यवहार कर रही हैं और आम देशवासी बेबसी और लाचारी से देख रहे हैं |


रोजमर्रा के जीवन में काम में आने वाली वस्तुओं के दामों में लगातार बढ़ोत्तरी का यह दौर हाल का नहीं है, बल्कि यह सिलसिला यूपीए शासन काल के पहले चक्र के अंतिम दो वर्षों से लगातार चला आ रहा है | वर्ष 2009 के आम चुनावों के समय विपक्ष और विशेषकर वाम मोर्चा महंगाई के सवाल को उतनी दमदार तरीके से नहीं उठा पाया क्योंकि कुछ समय पूर्व ही उसने नाभकीय समझौते का विरोध करते हुए यूपीए से समर्थन वापिस लिया था| वे जब महंगाई के सवाल को लेकर जनता के सामने पहुंचे तो आम आदमी ने इस पर , इस बिना पर विश्वास नहीं किया कि इन्होनें समर्थन तो नाभकीय करार के मुद्दे पर लिया था | सरकार ने खाद्य वस्तुओं की सप्लाई बढ़ाने के लिये अभी तक फौरी उपाय ही किये हैं | मसलन उसने दालों का उत्पादन बढ़ाने के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ा दिया | साथ ही यह घोषणा भी कर दी कि सरकारी एजेंसियों को दाल बेचने वालों को बोनस भी दिया जायेगा | जबकि यह जगजाहिर है कि किसान को खुले बाजार में ही दलहन की अच्छी कीमत मिल रही है | ऐसे में वह सरकार को दाल बेचेगा ही क्यों ? चीनी की कीमतों में भी इजाफा सरकार की नीतियों की वजह से ही हुआ | दूसरे जब दाम बढ़े तो सरकार मुनाफाखोरी और जमाखोरी पर लगाम नहीं लगा पाई |


मनमोहनसिंह एण्ड कंपनी दिलासा दे रही है कि आने वाले दिसम्बर तक खाद्य वस्तुओं की महंगाई 5 से 6 प्रतिशत तक सिमट जायेगी | जब सरकार के पास बाजार में वितरण और मूल्य नियंत्रण के पुख्ता तरीके ही नहीं हैं तो उसकी बात पर विश्वास कोई क्यों करे ? ऐसा कहीं से भी नहीं लगता कि सरकार का ध्यान फसल उत्पादन बढ़ाने से लेकर जल प्रबंधन और सिंचाई प्रबंधन , बीजों के विकास और बाजार में वितरण और मूल्य नियंत्रण तक , ऐसे
किन्हीं भी दीर्घकालीन उपायों पर है , जिनसे महंगाई पर वास्तविकता में अंकुश लग सकता है |

मनमोहनसिंह कुछ माह पूर्व ही कह चुके हैं कि उन्होने कि उन्होनें जानबूझकर महंगाई को रोकने के उपाय नहीं किये थे | समय आ गया है जब मनमोहनसिंह से पूछा ही जाना चाहिये कि क्या वो विकास दर को दोहरे अंक में देख्नने की खातिर देश के 70 करोड़ लोगों को महंगाई की आग में झोंक रहे हैं | यदि ऐसा है तो यह भयानक सौदा है | देशवासियों के सामने इसका पर्दाफाश होना ही चाहिये | ठीक इसी जगह आकर विपक्ष की महंगाई के मुद्दे पर चर्चा के बाद वोटिंग की मांग जिद्द नहीं बल्कि एक जायज मांग नजर आती है | यदि महंगाई पर नियंत्रण नहीं रख पाना सरकार की नीति है , तब भी , और यदि यह कार्यप्रलाणी सम्बंधित असफलता है तब भी सचाई जनता के सामने आना चाहिये ताकि जनता भी अपना रास्ता तय कर सके | वोटिंग होने से सभी राजनैतिक दलों की कलई भी जनता के सामने होगी | देशवासियों को कम से कम यह तो पता चलेगा कि कौन उनके पक्ष में है और कौन उनके विपक्ष में |


अरुण कांत शुक्ला

No comments: