Thursday, August 5, 2010

संसद में महंगाई पर बेमतलब और बेनतीजा बहस --

लोकसभा में महंगाई पर एक बेमतलब और बेनतीजा बहस आज वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी के जबाब के बाद अध्यक्ष मीरा कुमार के इस प्रस्ताव को पढ़ने के साथ पूरी हो गयी कि मुद्रास्फीति के अर्थव्यवस्था पर बढ़ते दबाव के कारण आम आदमी पर पड़ने वाले विपरीत प्रभाव को सरकार थामने की कोशिश करे | देश की सबसे बड़ी पंचायत में पक्ष -विपक्ष दोनों के सांसदों ने आम आदमी के नाम पर जी भरकर सियापा किया और मगरमच्छी आंसू बहाकर ये दिखाने की कोशिश की , कि , वो सब ,जो शायद , इसी सत्र में महंगाई के नाम पर , अपना वेतन भत्ता खुद बढ़ाकर लाखों रुपये करने वाले हैं ,  आम आदमी के लिए कितने चिंतित हैं ?  जो विपक्ष कल तक महंगाई के नाम से ही और ऐसे नियम के तहत ही बहस के लिए अड़ा हुआ था , जिसमें मतदान का प्रावधान हो , वह प्रणव मुखर्जी के चाय-समौसे खाकर 342 में बहस के लिए राजी हो गया | एक ऐसे नियम के तहत बहस , जिसका न कोई अर्थ और न कोई नतीजा ! याने , तुम्हारी भी जय जय , हमारी भी जय जय | पिछले पूरे सप्ताह लोकसभा में बना रहा गतिरोध अंतत: एक ऐसी रस्साकशी साबित  हुआ , जिसमें सरकार और विपक्ष दोनों अंत में जाकर एक हो गये , और हार गया , असली पीड़ित , आम देशवासी |
मैंने अपने पिछले एक लेख मानसून सत्र धुल न जाए हंगामें में कहा था कि देशवासियों के बहुत बड़े हिस्से की हार्दिक इच्छा है कि उनकी जिंदगी से सम्बंधित इस गंभीर समस्या पर लोकसभा के अंदर सरकार और विपक्ष दोनों गंभीरता पूर्वक बहस करें , जिससे कुछ ऐसे उपाय निकलें और नीतियां बने , जों आम आदमी को राहत पहुंचाएं | पर , लगभग 10 घंटों से ऊपर चली बहस में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और जनता के खाते में एक खाली-पीली बहस आई है , जिसमें सियापा तो बहुत हुआ , पर हल कुछ नहीं निकला  | इस अर्थ में , संसद और संसद में होने वाली बहसों का पूरा सम्मान करते हुए भी , नि:संकोच कहना पड़ता है कि यह जनता के साथ धोका है और महंगाई के नाम पर भारत बंद कराने वाले विपक्षी दलों ने बहस के नाम पर अपनी राजनीतिक रोटियां ही सेंकने का काम किया है |  मुख्य विपक्षी पार्टी की लोकसभा में नेता सुषमा स्वराज , सीपीएम के नेता सीताराम येचुरी , सहित करीब-करीब सभी विपक्षी दलों के प्रमुखों ने नियम 342 के अंतर्गत बहस के लिए सरकार के राजी होने को अपनी उपलब्धी बताया है | इनसे पूछा जाना चाहिये कि यदि उन्हें बिना मत विभाजन की बहस पर राजी ही होना था तो चार दिनों तक लोकसभा को ठप्प रखने का औचित्य क्या था ?
जिस मुद्दे को लेकर भारत बंद किया गया था , उस पर सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों  कितने गंभीर हैं , इसकी बानगी भी बहस के दौरान देखने को मिली |  सांसदों की उपस्थिति से लेकर बहस  के स्तर तक किसी का भी निराश होना स्वाभाविक है | विपक्ष के पास कोई वैकल्पिक नीति नहीं थी तो वित्तमंत्री के जबाब में वही घिसे-पिटे तर्क थे | उन्होंनें राज्यों के ऊपर जमाखोरी और मुनाफाखोरी रोकने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं करने का आरोप लगाया , वहीं एनडीए को उसके शासन काल में केरोसिन सहित अन्य वस्तुओं के बढाए गए दामों की याद दिलाई | एक समय ऐसा भी आया जब सदन में प्रधानमंत्री , वित्तमंत्री , पेट्रोलियम मंत्री , गृह मंत्री कोई भी उपस्थित नहीं थे | जिन्हें राजनीति में प्रहसन और हास्य की दरकार रहती है , उनके लिए मुलायम सिंह तथा शरद यादव के भाषण थे | मुलायम सिंह को बड़ा अफ़सोस था कि सरकार को मालुम होने के बावजूद कि किन लोगों का काला धन स्विस बैंको के खातों में जमा पड़ा है , सरकार कुछ नहीं करती और मुलायम-लालू के पीछे सीबीआई लगाए रहती है | मुद्रास्फीति को विकास का स्वाभाविक परिणाम बताने वाला प्रणव मुखर्जी का पूरा जबाब यूपीए के दुबारा जीतकर  आने के दंभ को दिखा रहा था | बहरहाल , जिन्हें  इस चर्चा से कोई उम्मीद रही होगी , उनके हाथ निराशा के अलावा कुछ नहीं लगेगा |
एक बात जिस पर टिप्पणी आवश्यक है | बहस के दौरान चर्चा में हिस्सा लेने वाले करीब-करीब सभी सांसदों ने सरकार के ऊपर आम आदमी के प्रति संवेदनहीन होने का आरोप लगाया | बार-बार इसी बात को सुनकर प्रणव मुखर्जी तिलमिला गए और उन्होंने सांसदों के मार्फ़त पूरे देश को अपना बचपन बताना जरूरी समझा | उन्होंनें कहा कि " मैं गाँव से आया हूँ , मैंने दसवीं तक चिमनी में पढ़ाई की है , पैदल चलकर स्कूल गया हूँ , आज के हिसाब से यह दूरी प्रतिदिन 10 किलोमीटर रही होगी , मेरी संवेदनशीलता की हँसी मत उड़ाइए , यह कोई सामान्य वस्तु नहीं है |" इसका जबाब केवल यही है कि प्रणव दा 1950-51 के दौर में , जब आप दसवीं में पहुंचे होंगे , भारत के गाँवों की बात तो छोड़ दीजीये , तहसील और ब्लाक स्तर तक बिजली पूरी तरह नहीं पहुँची थी | आपके चिमनी में पढ़ने का कारण ,  मैं नहीं जानता , आर्थिक रहा या नहीं , पर मैंने स्वयं 1968 में केरोसीन लेम्प में बीएससी प्रथम वर्ष की पढ़ाई की है , क्योंकि , बिजली का जितना पैसा  मकान मालिक  मांगता था ,  उतना पैसा देने की हैसियत मेरे परिवार की नहीं रही | राजनीति तो आपको पारिवारिक विरासत में मिली है | परम आदरणीय आपके पिताश्री 1952-64 के मध्य पश्चिम बंगाल विधान परिषद के सदस्य रहे हैं | आज की बात कीजिये ,राहुल तो स्वयं कलावती लीलावती के घर होकर आये हैं |  क्यों , भारत में ऐसे गाँव हैं , जहां बिजली तो है , पर , वहाँ के निवासी कनेक्शन नहीं लेते , क्योंकि , आपकी बेची हुई दरों पर बिजली खरीदना उनकी हैसियत से बाहर की बात है | आज अधिकाँश राज्य सरकारें बीपीएल केटेगरी के लोगों को दो रुपया-तीन रुपया किलो की दर से चावल और गेहूँ बाँट रही हैं , क्यों ? केन्द्र की सरकार भी खाद्य सुरक्षा क़ानून लाने वाली है , क्यों ?  लाईये , बहुत अच्छा है | पर , यह उन नीतियों की हार है ,जिन पर दो दशक पहले मनमोहन सिंह ने इस देश को धकेला था | भारत के सत्तर करोड़ लोगों को अपनी कमाई पर स्वाभिमानी ढंग से जीने का अवसर दीजिए | आपने अपने जबाब में खुद स्वीकार किया है कि पिछले दो वर्ष में धन्नासेठों को दिये गए राहत पैकेजों ने मुद्रास्फीति बढाने में बहुत योगदान दिया है | यह तो उस समय भी आपसे कहा जा रहा था कि वे इन राहत पैकेजों का इस्तेमाल रोजगार देने में , उत्पादकता बढाने में नहीं करेंगे | इसके लिए एफिसियेंट मानिटरिंग की जरुरत होगी | अब ऐसा तो है नहीं कि ये आपको समझ में नहीं आया होगा | अवश्य आया होगा , इसी को क्रियान्वित करने के लिए आम आदमी की तरफ झुकी हुई संवेदनशीलता की जरुरत पडती है | जिसकी बात संसद में हो रही थी | इसका चिमनी में पढाई करने से कोई संबंध नहीं है | पैदा तो हम भी चिमनी के उजाले में ही हुए थे , इसे उदाहरण बनाकर क्या आज भी खराब होने दें | 

                                                                                                               अरुण कान्त शुक्ला

                          
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1 comment:

कडुवासच said...

... bhaavpoorn abhivyakti !!!