Saturday, December 10, 2016

जब इनका अपहरण हुआ था..
विनोद शंकर शुक्ल जी को एक विनम्र श्रद्धांजली 
जब  कलआदरणीय गुरुदेव प्रभाकर चौबे जी से सांयकाल दूरभाष पर विनोद शंकर जी के निधन का समाचार मिला तो मन व्यथा से भरना तो स्वाभाविक ही था, एक ऐसी स्मृति मष्तिष्क में बार बार आने लगी , जो न केवल इस महान साहित्यकार के साथ मेरी पहली मुलाक़ात बनी वरन उस पूरे घटनाक्रम ने जो विनोद जी की एक सहज, सीधे व्यक्तित्व की जो छवि मेरे मन में गढ़ी, उसने मुझे स्वयं के अन्दर भी उसने अनेक बार सहज होने के लिए प्रेरणा प्रदान की | बात शायद वर्ष 1990 की है|  अपनी उस समय तक की 19 वर्ष की नौकरी और ट्रेड युनियन जीवन में मैंने कभी किसी भी ट्रेड युनियन को किसी साहित्यकार की वर्षगाँठ अथवा ऐसा ही कोई आयोजन करते नहीं देखा था| हमारे अखिल भारतीय संगठन से आव्हान आया कि प्रेमचंद के जन्म दिवस पर कार्यक्रम आयोजित करना है| कर्मचारियों के मध्य कहानी प्रतियोगिता, स्कूली बच्चों के लिए कहानी प्रतियोगिता रखी गईं| स्टेशन के पास की सत्यनारायण धर्मशाला में शनिवार दोपहर 2 बजे से प्रेमचन्द पर व्याख्यान रखा गया| मुख्य अतिथि ट्रेन से बिलासपुर से आने वाले थे| ट्रेन को 1.30 बजे आना था| ट्रेन आधा घंटा देरी से 2 बजे आई और उस पर से कहर यह टूटा कि उसमें मुख्य अतिथि नहीं आये| हमारे पास रायपुर से कोई भी अन्य वक्ता नहीं था| पूरा नेतृत्व स्तब्ध था| रायपुर में प्रेमचन्द पर अन्य किसी हस्ताक्षर को हम जानते भी नहीं थे| उसी साथी ने जिसने, मुख्य अतिथि को बिलासपुर से लाने की जिम्मेदारी ली थी, हमें सुझाव दिया कि हम विनोद जी को लाने का प्रयास करें| मैं एक अन्य साथी के साथ जो उनका निवास जानता था, उनके घर एक अधिकारी से कार का इंतजाम कर दौड़ा| वहां पता चला कि वे एक गोष्ठी में कंकाली पारा में गए हुए हैं| मैंने, इसके पूर्व कभी विनोद जी को देखा नहीं था और चूंकि मेरी शिक्षा जबलपुर में हुई थी, उन्हें चेहरे से पहचानता भी नहीं था| किसी तरह, हम उस घर में पहुंचे, दरवाजे को ठेलकर मैं कमरे में घुसा| इत्तिफाक से सभी पहले कमरे में ही दरी पर आसन जमाये बैठे थे और मैं उनमें से ट्रेड युनियन की वजह से सिर्फ आदरणीय चौबे जी को जानता था| मैंने करबद्ध होकर पूछा कि श्री विनोद शंकर शुक्ल कौन हैं| वे बोले मैं हूँ, मैंने उन्हें बमुश्किल 30 सेकेण्ड में बताया होगा कि हमारा प्रेमचन्द पर व्याख्यान मुख्य अतिथि व वक्ता के अप्रत्याशित रूप से नहीं आने के कारण रुका पड़ा है और लगभग 200 लोग इंतज़ार में बैठे हैं, आप तुरंत चलिए| वे अचकचा कर बोले आप कौन हैं और किसने कार्यक्रम आयोजित किया है, मुझे कुछ भी तो पता नहीं| मैंने कहा, आप चलिए, मैं रास्ते में सब बता दूंगा और उनको लगभग जबरदस्ती हाथ पकड़कर उठाने लगा, उन्हें असमंजस में देखकर आदरणीय चौबे जी ने कहा चले जाईये..बीमा कर्मचारी हैं..| मैं उन्हें लगभग धक्का सा देते हुए बाहर लाया और उनसे पूछा कि आपकी पादुकाएं कहाँ हैं, उन्होंने एक तरफ इशारा किया, मैं उन्हें उठाकर उन्हें देने वाला ही था तो वे बोले अब तो मैं चल ही रहा हूँ | राह में उन्हें मैंने पूरी बात बताई और अपना परिचय भी दिया| जब हम सभा में पहुंचे तो सभा शुरु करने के अपने समय से लगभग दो घंटे देरी से थे, वहां विनोद जी ने अपने व्याख्यान की शुरुआत में पहला वाक्य यही कहा था आपका सहसचिव मुझे यहाँ अपहरण करके लाया है, पर उसका यह अपराध क्षम्य है क्योंकि उसने यह साहित्य और प्रेमचन्द के लिए किया है| उसके बाद, हमें पता चला कि रायपुर नहीं, प्रदेश नहीं, देश में विनोद जी प्रेमचन्द पर एक माने हुए सशक्त हस्ताक्षर हैं| उसके बाद तो वे हमारे यहाँ हुई प्रतियोगिताओं के निर्णायक भी बने ..और मेरे सेवानिवृत होने के बाद उनके साथ मैंने विभिन्न शालाओं में अनेक बार प्रेमचन्द जयंती पर आयोजित कार्यक्रमों में भागीदारी की, वे कहते थे इतना ज्ञान रखने के बाद आप छुपे कहाँ थे? उनका यह बड़प्पन हमेशा बना रहा|  साहित्य की दालान में मुझे बैठने देने में मदद करने वाले मेरे अनेक शुभाकांक्षियों में उनका नाम भी प्रमुख है| मेरे काव्य संग्रह 'दो तीन पांच' के विमोचन में वे न केवल उपस्थित हुए उन्होंने उस पर अपने विचार भी रखे| दुःख रहेगा, अंतिम समय उनसे भेंट न हो सकी और उनके दर्शन न हो सके..पर क्या उसकी जरुरत है, जब वे जीवित है स्मृति में..उन्हें विनम्र श्रद्धांजली..
अरुण कान्त शुक्ला

10/12/2016

1 comment:

कविता रावत said...

विनोद शंकर शुक्ल जी को हार्दिक श्रद्धा सुमन!
आपको जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं!