सत्ता संभालने के साथ ही
श्रम सुधारों को लागू करने की जो कवायद, हड़बड़ी एनडीए की सरकार ने दिखाई, उसकी
हिम्मत तो सुधारों के पितामह मनमोहनसिंह भी नहीं कर पाए थे| सरकार बनने के दो
महीने बाद ही, 30 जुलाई को मोदी कैबिनेट ने फ़ैक्ट्रीज़ एक्ट 1948, अप्रेंटिसेज़
एक्ट 1961 और लेबर लॉज़ एक्ट 1988 जैसे श्रम क़ानूनों में कुल 54 संशोधन पास किए| यह सर्वविदित और स्थापित सत्य है कि मजदूरों के
अधिकारों और सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए जितने भी क़ानून/कायदे गुलाम/आजाद
भारत में बनाये गए, उनका पूरा क्या आंशिक लाभ भी देश के मेहनतकश के अधिकाँश हिस्से
को नहीं मिला| इसका प्रत्यक्ष प्रमाण तो सार्वजनिक/सरकारी क्षेत्र के उद्योगों से
लेकर निजी क्षेत्र के उद्योगों में ठेके/आकस्मिक आधार पर रखे गए मजदूरों और
कर्मचारियों की लगातार बढ़ती संख्या ही है| जहां न छुट्टियां हैं, न भविष्यनिधी है,
न स्वास्थ्य सुविधाएं हैं, नौकरी की गारंटी तो है ही नहीं|
संगठित क्षेत्र के कुछ
मजदूर/कर्मचारी अवश्य उन कानूनों को अपनी संगठित शक्ति के अनुसार अपनी ओर मोड़ने
में सफल हुए, पर अधिकाँश समय उन्हें भी कोर्ट/कचहरी के चक्कर लगाते रहना पड़ा और
अधिकाँश मामलों में ऐसे सभी कानूनों को बदल दिया गया, जिनसे वे लाभ प्राप्त करने
के योग्य हुए थे| पर, एक साथ इतना बड़ा आक्रमण भारत के मेहनतकश समुदाय के उपर कभी
नहीं हुआ, जो दो दशक के बाद बहुमत से चुनी गयी एनडीए की सरकार ने किया है| यही
कारण है कि स्वयं को देश का सबसे बड़ा मजदूर बताने वाले प्रधानमंत्री आज देश के
मेहनतकश के निशाने पर हैं| यहाँ तक कि जब 26 मई को दिल्ली में हुए कामगारों के
राष्ट्रीय सम्मलेन में देश की 11 केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों और बैक, बीमा, केन्द्र
सरकार, राज्य सरकार, रेलवे, रक्षा, टेलीकॉम और अन्य संस्थानों के कर्मचारियों के
संगठनों ने 2 सितम्बर की हड़ताल का निर्णय लिया तो उसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
और भाजपा से संबद्ध केन्द्रीय युनियन भारतीय मजदूर संघ भी भी शामिल थी| राष्ट्रीय
सम्मलेन के तुरंत बाद पत्रकारों के सवालों के जबाब में भारतीय मज़दूर संघ (बीएमएस)
के उपाध्यक्ष वृजेश उपाध्याय ने कहा था कि ''पूर्व की सरकारों की नीति को ही मोदी सरकार ने आगे बढ़ाया है और हम इसकी हर तरह से मुख़ालफ़त करेंगे|”
इतना ही नहीं वृजेश उपाध्याय ने सम्मलेन को संबोधित भी किया था| आज भले ही सरकार
और संघ के दबाव में बीएमएस ने स्वयं को हड़ताल से अलग कर लिया हो, पर यह निश्चित है
कि मोदी सरकार के श्रम सुधारों के जहर को बीएमएस उससे जुड़े मजदूरों के गले तो नहीं
ही उतार पायेगी और वे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से 2 सितम्बर की हड़ताल के
समर्थन में ही रहेंगे|
46वें श्रम सम्मलेन के उदघाटन भाषण में प्रधानमंत्री ने
मालिक-मजदूरों के बीच परिवार भाव पैदा करने की बात करते हुए कहा था “....एक श्रमिक
का दुःख मालिक को रात को बैचेन बना देता हो, और फेक्ट्री का कोई नुकसान श्रमिक को
रात को सोने न देता हो, यह परिवार भाव जब पैदा होता है तब विकास की यात्रा को कोई
रोक नहीं सकता|” पर, उन्होंने स्वयं अपनी सरकार की पारी की शुरुवात परिवार भाव से
नहीं करके श्रमिकों पर हमले के साथ की थी| सरकार जिन तीन श्रम कानूनों को पारित
कराना चाहती थी, उनमें से 2 को वह शीतकालीन सत्र में पारित करवा चुकी है, वे हैं
फेक्ट्रीज़ संशोधन बिल 2014 और अपरेंटिसेज़ संशोधन बिल 2014| फेक्ट्रीज़ संशोधन बिल
2014 के अनुसार फ़ैक्ट्रियों में कर्मचारियों की संख्या को बढ़ाने का पूरा अधिकार
राज्यों को दिया गया है| इससे पहले यह अधिकार केंद्र के पास था| काम के घंटे को नौ से बढ़ाकर 12 घंटे
कर दिया गया है| पहले काम की अवधि आठ घंटे थी और एक घंटा
का ब्रेक था| अब कंपनियां 12 घंटे में सुविधानुसार आठ घंटे काम ले सकेंगी| ओवरटाइम को बढ़ा कर प्रति तिमाही 100 घंटे कर
दिया गया है| कुछ मामलों
में इसे 125 घंटे तक बढ़ा दिया गया है| पहले यह अधिकतम 50 घंटे
था| औद्योगिक विवाद मामले में केस दर्ज करने का अधिकार राज्य सरकार को
दे दिया गया है| पहले यह अधिकार लेबर इंस्पेक्टर के पास था|
अपरेंटिसेज़ संशोधन बिल 2014 के अनुसार, कारखानों में अधिक से अधिक प्रशिक्षु श्रमिक
रखे जा सकेंगे जिन्हें न्यूनतम वेतन से 30 प्रतिशत कम वेतन मिलेगा और तमाम श्रम क़ानूनों के दायरे में वे नहीं आएंगे| हालांकि, सरकार का (हास्यास्पद) तर्क है कि इससे ग़ैर इंजीनियरिंग क्षेत्र के
स्नातकों और डिप्लोमा होल्डरों के लिए उद्योगों में नौकरी की संभावनाएं खुल
जाएंगी| कंपनियां पहले की अपेक्षा
अधिक से अधिक प्रशिक्षु कर्मचारी रख सकेंगी| पहले वे कुछ निश्चित प्रतिशत में ही प्रशिक्षु कर्मचारी रख
सकती थीं| प्रशिक्षण कार्यक्रमों को
पूरी तरह आउटसोर्स करने की अनुमति दी गई है| पहले यह फ़ैक्ट्री की ज़िम्मेदारी थी| प्रशिक्षु रखने के लिए पांच सौ नए ट्रेड को खोल दिए गए हैं| प्रशिक्षु कर्मचारियों को दिए जाने वाले स्टाइपेंड का पचास
प्रतिशत हिस्सा सरकार देगी, जबकि पहले पूरी ज़िम्मेदारी फ़ैक्ट्री की थी|
वर्तमान में सरकार का
मंथन वेतन अधिनियम को संशोधित करने पर चल रहा है| यदि यह भी संसद से पारित होता है
तो न्यूनतम वेतन अधिनियम 1948, सामान वेतन अधिनियम 1976, वेतन भुगतान क़ानून 1936,
बोनस एक्ट 1965 में ऐसे बदलाव सामने आयेंगे, जो एक ही उद्योग में एक समान कार्य
करने वालों के बीच भी भेदभाव पैदा करेंगे| न्यूनतम वेतन तय करने का अधिकार राज्य
के पास चला जाएगा| श्रम मामलों के इतिहासकार और दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर प्रभु महापात्रा के अनुसार यदि ये बिल
पास होते हैं तो ‘हायर एंड फॉयर’ की नीति क़ानूनी हो जाएगी और महिलाओं से नाइट शिफ्ट में भी काम लिया जा सकेगा|''
आज नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार भी वही कर
रही है, जो देश का श्रमिक नवउदारवाद के पिछले 25 वर्षों में देखता आया है| भारत
निर्माण, चमकता भारत, विकास पथ पर अग्रसित भारत, ढांचागत सुधार, रोजगार मिलेगा,
विदेशी निवेश लाना है, जैसे नारों/वायदों की आड़ में श्रमिक/श्रम के उपर हमले और
मालिकों को रियायतें, लूट की छूट, तभी तो इस बजट में पूंजीपति घरानों को 5 लाख
करोड़ रूपये की भारी छूट दी गयी है और जान न्यौछावर करने वाले सेना के जवान
जंतर-मंतर पर बैठे हैं| 2 सितम्बर की हड़ताल मेहनतकश के उपर सरकार के हमलों का जबाब
है|
अरुण कान्त शुक्ला , 1 सितम्बर, 2015
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