क्या
देश के मेहनतकशों को 19वीं शताब्दी के बर्बर दिनों में पहुंचाने की तैय्यारी है?
20
जुलाई को 46वें श्रम सम्मलेन का उदघाटन करते हुए प्रधानमंत्री ने जो भाषण दिया, वह
देश के मेहनतकशों को निराश करने वाला नहीं बल्कि यह अहसास कराने वाला था कि उनकी
सरकार देश में एक ऐसा श्रम माहौल बनाने के लिए प्रतिबद्ध है जो देश के मेहनतकश
समुदाय को 19वीं शताब्दी के उस बर्बर माहौल में धकेल देगा, जब कारखाने पूंजी के
बूचड़खाने थे और मजदूरों का विदेशी,देशी पूंजीपति, निर्दयतापूर्वक शोषण करते थे| जब
औद्योगिक क्षेत्र में कोई क़ानून नहीं चलता था| जब जंगल क़ानून, असीमित काम के घंटे,
बिना किसी रोकथाम के आदमियों, औरतों, बच्चों के शोषण का दौर था| आज अगर श्रम
सम्मलेन के मंच का इस्तेमाल करके और स्कूली बच्चों और उद्योगों के प्रतिनिधियों से
ताली बजवाकर प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि “मैं नहीं मानता हूँ कि सिर्फ कानूनों के
द्वारा बन्धनों को लगाते लगाते समस्याओं का समाधान कर पायेंगे” तो उन्हें यह नहीं
भूलना चाहिए कि जिन कानूनों को वह आज उद्योगपतियों पर बंधन मान रहे हैं, उनमें से
प्रत्येक क़ानून दुनिया के मेहनतकश के साथ साथ भारत के मजदूरों ने भी सरकारों से उद्योगपतियों,
मालिकों और उनके साथ मिले हुए धार्मिक पाखंडियों के अत्याचारों और शोषण के खिलाफ कुरबानी
देकर हासिल किये हैं और कुरबानी देने का यह सिलसिला आज भी जारी है| भारत और विदेश की
कारपोरेट बिरादरी की सहायता और मेहरबानी से चुनावों में मिली सफलता का प्रतिदाय
निश्चित ही उन्हें भारत के किसानों और मेहनतकशों से धन-अधिकार दोनों छीनकर
कारपोरेटों के हवाले करने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए मजबूर करेगा पर उन्हें
यह याद रखना होगा कि उनके इस कार्य से देश का विकास नहीं विनाश ही होगा, जैसा कि
उन्होंने स्वयं ही कहा है “अगर श्रमिक रहेगा दुखी, तो देश कैसे होगा सुखी”| और
क्या भारत का मेहनतकश यह आसानी से हो जाने देगा? नहीं, देश
के मेहनतकश अपने अधिकारों को बचाने के लिए फिर कुरबानियां देंगे, जैसे कि उन्होंने
उन अधिकारों को प्राप्त करने के लिए दी थीं|
प्रधानमंत्री
को अब देश की जनता को भावनात्मक रूप से मूर्ख बनाने की कोशिश छोड़ देनी चाहिए-
2014 के लोकसभा के दौरान और उसके बाद से देखा जा रहा है कि प्रधानमंत्री का लगातार प्रयास देश के लोगों को भावनात्मक रूप से दोहने का रहता है और इसके लिए वो बरसों से चले आ रहे मिथकों को अपनी वाक्-पटुता के जरिये तोड़-मोड़ कर इस्तेमाल करते रहते हैं| 46वें सम्मलेन के अपने भाषण की शुरुवात में ही उन्होंने कहा कि “चाहे वो किसान हो मजदूर हो, वो unorganized लेबर का हिस्सा हो, और हमारे यहाँ तो सदियों से इन सबको एक शब्द से जाना जाता है-विश्वकर्मा” और चूंकि इन्हें “विश्वकर्मा के रूप में जाना जाता है, माना जाता है और इसीलिये अगर श्रमिक रहेगा दुखी, तो देश कैसे होगा सुखी?” यह देश के किसानों, मजदूरों और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों का भावनात्मक शोषण के अलावा कुछ नहीं है| प्रधानमंत्री के अलावा सभी जानते हैं कि देश के किसान, मजदूर (संगठित और असंगठित दोनों) विश्वकर्मा समुदाय में नहीं आते हैं| भारत के मेहनतकश समुदाय में सभी जाती और सभी धर्मों के लोग शामिल हैं और वे सब विश्वकर्मा कैसे हो सकते हैं?
विश्वकर्मा,
अभियांत्रिकी, कला या शिल्प का व्यवसाय करने वाले लोगों का सम्प्रदाय या जाती है
जो विश्वकर्मा देवता के अनुयायी हैं| ये भारत में सभी जगह फैले हैं और मुख्यत:
लोहार, बढ़ई, सोना या अन्य धातुओं तथा पत्थर पर काम करने वाले लोग इस सम्प्रदाय में
आते हैं| मध्य युग से ही यह माना जाता है कि यह सम्प्रदाय ब्राम्हण समाज से निकला
अथवा उससे थोड़ा ही नीचे है, इन्हें हिंदु धर्म के नियमों के अनुसार जनेऊ धारण करने
और ब्राम्हणों के समान ही अन्य पूजा पाठ करने की अनुमति है, जिससे इनकी समाज में
हैसियत ब्राम्हणों के बराबर ही है| इसीलिये ये विश्वब्राम्हण भी कहलाते हैं| श्रम
सम्मलेन में सभी किसानों, मजदूरों को विश्वकर्मा कहकर प्रधानमंत्री मेहनतकश समुदाय
का मान नहीं बढ़ा रहे थे बल्कि उनकी सरकार और संघ का भारत को उच्च कुलीन ब्राम्हणों
का राष्ट्र बनाने का छिपा हुआ कार्यभार(एजेंडा) ही आगे बढ़ा रहे थे| इतना ही नहीं,
उनका उद्देश्य इस तरह के विरोधाभास को उभार कर मेहनतकशों के अन्दर व्याप्त एकता को
तोड़ना भी था| यह वैसा ही प्रयास है, जैसा 19वीं शताब्दी के अंतिम दशकों में, जब अपने
उपर हो रहे अत्याचार शोषण के खिलाफ संघर्ष करने के लिए एकताबद्ध हो रहे मेहनतकशों
की एकता को तोड़ने के लिए उस समय के अंग्रेज, देशी पूंजीपति और धार्मिक पंडित,
मुल्ले कर रहे थे| प्रसिद्द ट्रेड युनियन नेता ऐ.बी. वर्धन ने अपनी पुस्तक ‘ट्रेड
युनियन शिक्षा’ में कम्युनिस्ट नेता ऐस.ऐ.डांगे को उद्धृत करते हुए उस समय की
स्थिति का वर्णन इस प्रकार किया है;
“1852
से 1880 के बीच, इन कारखानों में (अंग्रेजों और उनके भारतीय बिचौलियों द्वारा
स्थापित) मजदूर वर्ग का अमानवीय ढंग से निर्दयतापूर्वक शोषण किया गया| धृष्ट
अंग्रेज, पवित्र हिंदु, धार्मिक मुसलमान और अपने धर्म, राष्ट्रीयता, भाषा या देश
से निरपेक्ष बहुत से लोग पूंजी के इन बूचड़खानों में आदमियों, औरतों और बच्चों का
खून बहाने के लिए एकजुट हो गए| विदेशी साम्राज्यवाद द्वारा विजित और जमींदारों और
भाड़े के देशद्रोहियों द्वारा नष्ट-भ्रष्ट देश में नयी व्यवस्था, नयी मशीनों, अब तक
कभी न सुने गए कार्य रूपों और नए मालिकों द्वारा प्रताड़ित एवं भारतीय जमीन पर अपने
जन्म से ही पूंजी की बर्बरताओं से इन लाखों लोगों को बचाने के लिए न तो कोई क़ानून
था, न ही कोई नैतिक आधार....|” प्रधानमंत्री सोचे समझे षड्यंत्र के तहत एक तरफ तो
पूरे किसान और मजदूर समुदाय को विश्वकर्मा बनाकर उनमें एक आभासी उच्चता भरना चाहते
हैं तो दूसरी तरफ उनसे सभी कानूनी अधिकार छीन रहे हैं, जो उन्होंने पिछले 16-17
दशकों में संघर्षों और कुर्बानियों से प्राप्त किये हैं|
प्रधानमंत्री
का विश्व भ्रमण करके दुनिया के एक-एक देश में जाकर “ Come & make in India” का नारा देना भारत के मेहनतकशों के
लिए बहुत ही भारी पड़ने वाला है| विशेषकर, जब प्रधानमंत्री शीतकालीन सत्र में दो
ऐसे श्रम क़ानून(सुधार) स्माल फेक्ट्रीज( रेगुलेशन ऑफ़ एम्पलायमेंट एंड अदर कंडीशंस
ऑफ़ सर्विस) एक्ट, 2014 तथा नेशनल वर्कर्स वोकेशनल इंस्टिट्यूट एक्ट,2015 मंजूर
करवा चुके हैं जो नियोक्ताओं को प्रशिक्षु कर्मचारियों को नौकरी पर रखने की
अनिवार्यता से मुक्त करते हैं| प्रशिक्षु विधान 1961 तथा श्रम क़ानून (संस्थानों के
द्वारा विवरण देने और आवश्यक रजिस्टर्स के रखरखाव से छूट) 1988 में संशोधन के
जरिये लघु तथा माध्यम दर्जे की सभी इकाईयों को अनेक जरुरी श्रम कानूनों के पालन
करने से छूट दे दी गयी है| स्माल फेक्ट्रीज (रोजगार एवं अन्य सेवा शर्तों का नियमन)
क़ानून 40 से कम मजदूरों वाली निर्माण इकाईयों को मजदूरों के हितकारी 14 कानूनों के
पालन से मुक्त करता है| इसका नतीजा यह है कि 70% से अधिक मजदूर कर्मचारी राज्य
बीमा योजना और कर्मचारी भविष्य निधि योजना सहित 14 ऐसे कानूनों से बाहर हो गए हैं,
जो अभी तक नियोक्ताओं को मजदूरों के हितों की देखभाल करने और उन्हें सुरक्षा
प्रदान करने के लिए बाध्य करते थे|
अरुण कान्त शुक्ला 23/7/2015
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