विश्वास का अस्तित्व होता है..
‘आज मुझे लगता है कि मैंने आसाराम पर विश्वास नहीं,
अंधविश्वास किया’| पीड़ित बच्ची के पिता का यह कथन अनेक प्रश्नों को
अपने अन्दर समेटे हुए है| यह कथन, उस पिता का है, जो अपने (अंध)विश्वास के चलते
स्वयं अपनी बच्ची को झाड़-फूंक के इलाज के लिए, उसके पास छोड़ आया, जिस पर वो
विश्वास करता था| प्रश्न यह है की वो किस पर विश्वास करता था? क्या वो व्यक्ति के
रूप में आसाराम पर विश्वास करता था? या, फिर वो उस झाड़-फूंक पर विश्वास करता था, जो
आसाराम किया करते थे? क्या वही व्यक्ति, अपनी बच्ची को किसी ऐसे व्यक्ति के पास
अकेले रहने देता, जो जादू-टोना और झाड़-फूंक नहीं जानता होता?
निश्चित रूप से कोई भी पिता अपनी बच्ची को किसी ऐसे व्यक्ति
के पास नहीं छोड़ता, जिस पर उसका कोई विश्वास न होता| इस मामले में इसे अंध-श्रद्धा
भी कह सकते हैं| वह ईश्वर(धर्म) के नाम पर होने वाले व्यापार में फंस गया| फंसा ही
नहीं, उस व्यापार का हिस्सा भी बन गया| उस व्यापार का हिस्सा नहीं होता तो क्या वो
अपने शहर में आसाराम के आश्रम को खड़ा करने जुटता?
गौरतलब है कि उसके विश्वास को तब कोई चोट नहीं पहुँची, जब
आसाराम के आश्रम के बाहर, आश्रम में ही पलने वाले बच्चों के शव मिले| उसे तब भी
कोई चोट नहीं पहुँची, जब सैकड़ों एकड़ जमीन आश्रमों के निर्माण के दौरान दबाये जाने
की खबरें आती रहीं| उसे चोट तब पहुँची, पीड़ा तब हुई, जब उसके विश्वास की आंच में
वह स्वयं झुलसा| इसका क्या मतलब निकाला जाए?
तब धर्म ने, जिस पर भरोसे के जरिये वो संत तक पहुंचा, उसे
क्या सिखाया? दूसरे की पीड़ा की तरफ मत देखो| अपनी आँखें बंद कर लो| नेत्रहीन हो
जाओ| दूसरे की संपत्ति हड़पी जाए तो अपना मुंह बंद कर लो| मूक हो जाओ| आसाराम के
भक्तों ने, जिनके साथ वो कल तक था, पूरे देश में क्या किया? वही किया, जो वह स्वयं
आसाराम के लिए करता था, उसकी पीड़ा नहीं देखी| वो आज भी उसकी बात को सच नहीं मानते|
उन्होंने हिंसक प्रदेशन किये| राहगीरों को मारा| पोलिस का रास्ता रोका| वो आसाराम
के खिलाफ एक शब्द नहीं सुनना चाहते| उन्हें धर्म ने सिखाया, सच मत सुनो| बहरा
बनाया|
पर, वे सब तो देख सकते हैं| सुन सकते हैं| बोल सकते हैं|
तब, धर्म ने किसे अंधा, गूंगा और बहरा बनाया? धर्म ने उनकी बुद्धि को, उनके विवेक
को, उनकी चेतना को, अंधा, गूंगा, बहरा बना दिया| तीनों इन्द्रियों के होते हुए भी
वो अपाहिज हो गए|
ये हाई-प्रोफाईल अंधविश्वास का मामला है| गाँवों में यही
काम, जो आसाराम अपनी आलीशान कुटिया में करते हैं, एक बैगा, एक झाड़-फूंक करने वाला
तांत्रिक, कोई फ़कीर अपनी झौपड़ी में या पीड़ितों के घर में करता है| कभी पीड़ित
शिकायत करते हैं, कभी मन मसोसकर चुप लगा जाते हैं| यह बहुत बड़ा जाल है| मेट्रो
शहरों से लेकर सुदूर ग्रामीण अंचलों तक फैला हुआ| ठगों की मिलिभगत और रसूखदारों के
पोषण के बिना यह जीवित नहीं रह सकता|
हम सबने वो कहानी अनेक बार सुन रखी है कि चार ठगों ने मिलकर
किस तरह एक व्यक्ति से, उसकी बकरी को बार बार कुत्ता कहकर, उसकी बकरी छीन ली थी|
इस कहानी में बकरी वास्तविकता है| विश्वास है| कुत्ते का अस्तित्व ही नहीं है| वह ठगों
की बातों पर अंधविश्वास है| चारों ठग मिलकर, जो नहीं है, उसे है प्रमाणित करते
हैं| वे, जो नहीं है, वो है, को इतनी बार दोहराते हैं कि व्यक्ति का विवेक, ज्ञान,
बुद्धि, चेतना, अनुभव सब शून्य हो जाता है| वह बकरी को कुत्ता समझने लगता है|
विवेक पर अविवेक, ज्ञान पर अज्ञान, तर्क पर कुतर्क हावी हो जाते हैं|
आज समाज में हमारे चारों ओर ये चारों ठग आजाद घूम रहे हैं|
वे आज पहले से ज्यादा उद्दंड हैं| हमारे जीवन के हर पहलू को वो प्रभावित कर रहे
हैं| वो धर्म, आस्था के नाम पर कुरीतियों, अंध-श्रद्धा और अंधविश्वास को बढ़ाने में
लगे हैं| वे राजनीति में हैं| वे प्रशासन में हैं| वे न्याय व्यवस्था में हैं| हर
जगह वे धर्म और आस्था का बाना ओढ़े हुए हैं| मीडिया उनकी मुठ्ठी में है| इसीलिये जब
कोई अंधविश्वास, कुरीतियों, टोना-टोटकों के खिलाफ खड़ा होता है तो उसे मिटाने में
वे लग जाते हैं|
वे अनेक रूपों में हमारे सामने आते हैं| कभी राष्ट्रवाद का
नकाब ओढ़कर, कभी मजहब का परचम लेकर, उनके अपने प्रयोजन हैं| उन्हें सत्ता चाहिए| उन्हें
शक्ति चाहिए| उन्हें संपत्ति चाहिए| एक विवेकवान समाज का शोषण असंभव सा है| इसलिए
उन्हें विवेकहीन समाज चाहिए| अंधा, बहरा और गूंगा समाज| ये बाबा/संत सभी निर्विवाद
रूप से प्रायोजित हैं| इन्हें अंधे/बहरे/गूंगे समाज के निर्माण के लिए मेहनताने के
रूप में संपत्ति और वैभव एकत्रित करने और अय्याश जीवन जीने की सुविधा दी जाती है| राजनीति, प्रशासन और न्याय व्यवस्था
में बैठे ठग इन्हें अवसर उपलब्ध कराते हैं| इनकी दुकानें चलें, लोग इनके पीछे
लामबंद हों, इसलिए राजनीति, प्रशासन और न्याय व्यवस्था में बैठे ठग इनके चरण छूते हैं
और मुफ्त में इन बाबाओं और संतों को सरकारी/गैरसरकारी जमीनें और सरकारी सुविधाएं
उपलब्ध कराते हैं| ये विश्वास को झूठा और अंधविश्वास को सच्चा बताने में लगे रहते
हैं| बकरी थी, वह विश्वास था| ठगों ने बकरी को कुत्ता बना दिया, कुत्ता नहीं था|
अंधविश्वास का कोई अस्तित्व नहीं होता| विश्वास का अस्तित्व होता है| इन ठगों से
बचने की जरुरत है|
अरुण कान्त शुक्ला,
12 सितम्बर, 2013
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