शिक्षा कर्मियों को नियमित करो, दोहरी व्यवस्था
बंद करो..
प्रदेश के पौने दो लाख से अधिक शिक्षाकर्मी 3 दिसंबर
से संविलियन और छटवें वेतन आयोग के अनुसार वेतन देने की मांग को लेकर अनिश्चित
कालीन हड़ताल पर हैं।
प्रदेश सरकार का शिक्षाकर्मियों के आंदोलन से निपटने का तर्क, तरीका और ढंग वही है,
जो पिछले वर्ष यानी नवंबर’2011 में था। पंडाल जब्त करो, एकत्रित मत होने दो, सेवा
समाप्ति के नोटिस दो, बर्खास्त करो और बल प्रयोग करो। नवंबर’2011 की तुलना में इस
बार शिक्षाकर्मी ज्यादा एकजुट हैं। यही कारण है कि राज्य सरकार की धमकियों से
डरकर शिक्षण कार्य पर लोटने वाले शिक्षाकर्मियों की संख्या शासन के तमाम दावों के
बावजूद अत्यंत कम है और वह भी उन शिक्षाकर्मियों की है, जो अभी परिविक्षा अवधि में
हैं याने जिनकी दो वर्ष की सेवा अवधि पूर्ण नहीं हुई है।
प्रदेश के सभी कर्मचारी संगठनों के साथ साथ
भाजपा के अनेक वरिष्ठ नेताओं और कांग्रेस का पूरा पूरा समर्थन भी उन्हें प्राप्त
हो रहा है।
यह अलग बात है कि कांग्रेस के शासन काल के दौरान भी शिक्षाकर्मियों को अपनी मांगों
के एवज में पोलिस के डंडे ही मिले थे। इस तरह के अवसरवादी समर्थन की कितनी कीमत होती
है, यह शिक्षाकर्मियों की संयुक्त संघर्ष समिति के कर्ताधर्ता अच्छी तरह जानते
होंगे।
छत्तीसगढ़
में प्रदेश सरकार को चुनने के लिए वर्ष 2003 और 2008 में, दो बार, विधानसभा चुनाव
हुए। दोनों बार भाजपा ने शिक्षाकर्मियों से संविलियन का वायदा किया। आज उसी भाजपा सरकार के मुखिया
रमनसिंह विधानसभा में कह रहे हैं कि शिक्षाकर्मी चूंकि पंचायतों के अधीन हैं, न तो
उन्हें शासकीय कर्मचारियों के समान छटवें वेतन आयोग की अनुशंसाओं का लाभ दिया जा
सकता है और न ही उन्हें नियमित करके शासकीय शिक्षक के रूप में समाहित किया जा सकता
है। शिक्षा कर्मियों के तिलमिलाने की सबसे बड़ी वजह यह भी है कि नवंबर’2011 में
हुए आंदोलन की समाप्ति के समय रमन सरकार ने वायदा किया था कि शिक्षाकर्मियों को
सम्मानजनक वेतनमान दिया जाएगा। मार्च’2012 में राज्य सरकार ने
शिक्षाकर्मियों के लिए जिन नए वेतनमानों की घोषणा की, वो शिक्षाकर्मियों की
उम्मीदों को छोड़ भी दें तो उनके लिए सम्मानजनक तो कतई नहीं था। पदनाम बदलने के नाटक के साथ कहने को
तो वर्ग तीन को 16 फीसदी, वर्ग दो को 18 फीसदी तथा वर्ग एक को 27 फीसदी वृद्धि का
ढिंढोरा पीटा गया, लेकिन वास्तविकता यह है कि स्नातकों को नए वेतन मान के लिए 7
वर्ष का समय और गैर स्नातकों के लिए 10 वर्ष का समय रखकर लाभ को मात्र 13000
शिक्षाकर्मियों तक सीमित कर दिया गया| इसे प्रदेश के पौने दो लाख शिक्षाकर्मियों
के साथ धोखाधड़ी के अलावा और क्या कहा जा सकता है।
छत्तीसगढ़
देश के उन चंद राज्यों में से एक है, जहां सरकार ने नियमित शिक्षकों से पिंड छुड़ा
लिया है और प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षाकर्मी के नाम से इन्हीं पराशिक्षकों
को नियुक्त किया जा रहा है, जहां इन्हें उसी स्कूल में शिक्षण कार्य करते हुए भी
शासकीय शिक्षकों की तुलना में अत्यंत अल्प पारिश्रमिक मिलता है। एक ऐसी व्यवस्था में, जिसमें कि हम
रह रहे हैं, सामाजिक उत्थान की किसी योजना को दिखावे के लिए तो हाथ में लिया जाता
है, पर बात जब आर्थिक प्रबंधन की आती है तो तुरंत ही उसका बोझ समाज के उसी तबके के
ऊपर डाल दिया जाता है, जिसके उत्थान के लिए योजना लाई गई थी। प्राथमिक शिक्षा के साथ देश के
प्रायः सभी राज्यों में यही हो रहा है। सार्वभौम प्राथमिक शिक्षा के
मिलेनियम गोल को प्राप्त करने की आपाधापी में स्कूलों को खोलने तथा बच्चों को
स्कूलों तक लाने के काम तो शुरू हुए, लेकिन नियमित शिक्षकों की जगह, बेरोजगारी का
फायदा उठाते हुए शिक्षाकर्मी, गुरूजी, शिक्षामित्रों के नाम पर, अत्यंत अल्प वेतन
पर शिक्षकों को रखने का काम शुरू हुआ। इन्हें इनके साथ काम करने वाले
नियमित शासकीय शिक्षकों की तुलना में अत्यंत कम वेतन दिया जाता है जबकि इन्हें
अपनी सेवाएं सुदूर अविकसित क्षेत्रों में अत्यंत कठिन परिस्थितियों में देनी होती
हैं।
दुनिया के अनेक देशों में हुए शोध बताते हैं कि
किसी राष्ट्र की आर्थिक और सामाजिक खुशहाली, उस राष्ट्र की प्राथमिक और पूर्व
प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता पर निभर्र करती है। पर, भारत में नीति निर्माता इस
उक्ति पर विश्वास नहीं करते कि प्राथमिक शिक्षा में बिताये गए वर्ष राष्ट्र की
नींव का निर्माण करते हैं। देश में शिक्षकों और पराशिक्षकों पर हुए सारे अध्यन
बताते हैं कि नियमित शिक्षकों और पराशिक्षकों के द्वारा पढाए गए बच्चों की योग्यता
में कोई अंतर नहीं होता है। छत्तीसगढ़ में शिक्षाकर्मियों की नियुक्ति पंचायतों
के दवारा ही क्यों न होती हो, पर होती है, निर्धारित शैक्षणिक मानदंडों के अनुसार
व्यावसायिक परीक्षा जैसी ही परीक्षा पास करने के बाद ही। ये शिक्षाकर्मी योग्यता, पढाने
की काबलियत, स्कूल में उपस्थिति, किसी भी पैमाने पर अपने सहकर्मी नियमित शिक्षकों
से कम नहीं हैं।
उन्हें अपने कार्य का निष्पादन भी बिना पर्याप्त प्रशिक्षण और बिना स्वयं की
प्रोफेशनल विकास की संभावनाओं के करना होता है। एक बार का शिक्षाकर्मी प्रायोगिक
रूप से जीवन भर का शिक्षाकर्मी होता है, पदोन्नती जैसी किसी भी संभावना का कोई भी
ख्याल उसके दिमाग में दूर दूर तक नहीं रहता है।
शिक्षाकर्मियों
को वर्त्तमान में दिया जा रहा वेतन न केवल अपर्याप्त है, बल्कि यह गैर व्यावसायिक,
शिक्षक विरोधी होने के साथ साथ अपमानजनक भी है। राज्य सरकार अभी अभी सुराज अभियान
चलाकर आई है। सुराज का मतलब केवल शिविर लगाकर
शिकायतों को इकठ्ठा करना नहीं होता है। सुराज का एक अर्थ प्रदेशवासियों को
सम्मानजनक ढंग से जीने के लायक वेतन देना और उनके साथ सम्मानजनक व्यवहार करना भी
है। यह अत्यंत दुःख की बात है कि राज्य सरकार का व्यवहार शिक्षाकर्मियों के साथ
तदनुरूप नहीं है। भाजपा सरकार से यदि शिक्षाकर्मी
शासकीय शिक्षकों जैसा दर्जा मांग रहे हैं तो इसमें गलत कुछ भी नहीं है। वैसे भी छत्तीसगढ़ की गिनती उन
राज्यों में होती है, जहां प्रति व्यक्ति के हिसाब से शिक्षा पर सबसे कम खर्च किया
जाता है। शिक्षाकर्मियों को संविलियन कर
शासकीय शिक्षकों के समान वेतन और सुविधाएं दो, वे इसके योग्य हैं। इससे उन्हें नैतिक बल मिलेगा। हर साल कुम्भ मेले, ग्राम सुराज,
राज्योत्सव और अब नगर सुराज पर सामंती तरीके से अरबों रुपये फूंकने वाली सरकार से
शिक्षाकर्मियों की उम्मीदें जायज हैं। यह दोहरी व्यवस्था हमेशा असंतोष का
कारण बनी रहेगी, इसे बंद करना ही श्रेयकर है।
अरुण कान्त शुक्ला
13,दिसंबर’२०१२
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