Saturday, October 2, 2010

देश में अमन-चैन बनाए रखने की कीमत मत मांगो-


 

देश के अमन-चैन में सेंध लगाने वाले अमन-चैन बनाए रखने की कीमत के रूप में देश के संविधान , धर्मनिरपेक्ष चरित्र , न्याय प्रणाली और क़ानून व्यवस्था की कुर्बानी माँग रहे हैं | दुर्भाग्य से अयोध्या में विवादित स्थल के मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ का फैसला इस कीमत को चुकाता नजर आता है | हमारे देश के उच्चतम न्यायालय और अयोध्या मामले में 21 वर्ष पूर्व बनाई गई जस्टिस के सी अग्रवाल , जस्टिस यू सी श्रीवास्तव और जस्टिस सैय्यद हैदर अब्बास की खंड पीठ को यह अंदेशा पहले से ही था कि न्यायायिक प्रक्रिया का निष्पक्ष पालन इस मामले में मुश्किल होगा | शायद इसीलिए जब 21 वर्ष पूर्व इलाहाबाद हाईकोर्ट ने फैजाबाद की जिला अदालत से रामजन्म भूमी बनाम बाबरी मस्जिद मुकदमा अपने पास बुलाया तो उपरोक्त तीनों जस्टिसों ने यथास्थिति बनाए रखने के आदेश के अंत में टिप्पणी की थी कि "इसमें संदेह है कि मुकदमे में शामिल सवालों को न्यायिक प्रक्रिया से हल किया जा सकता है |" इतना ही नहीं 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने भी केंद्र सरकार को इस मुद्दे पर राय देने से मना कर दिया था कि क्या वहाँ पहले स्थित कोई हिंदू मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी ? इसका अर्थ हुआ कि हमारे देश की न्याय प्रणाली को उस समय लगा कि न्यायिक प्रक्रिया में तर्कों के ऊपर भावनाओं और आस्था के हावी होने की पूर्ण संभावनाएं इस मामले में मौजूद हैं और एक निष्पक्ष फैसला देने में रुकावट पड़ सकती है | दुर्भाग्य से जस्टिस धर्मवीर शर्मा , जस्टिस सुधीर अग्रवाल , जस्टिस एस यू खान का फैसला न केवल इसकी पुष्टि करता है बल्कि अनेक सवाल भी खड़े करता है |

  1. हमारे देश में धर्मस्थल क़ानून है जो 15 अगस्त 1947 की स्थिति को मान्यता देता है | भारत के बहुरंगी धार्मिक एवं सांस्कृतिक समाज में विभिन्न संस्कृतियों और धर्मों की टकराहट सर्वज्ञात है | मंदिर टूटे , मस्जिद टूटे , गिरजा और मठ भी टूटे हैं | लेकिन , इस टकराहट ने गंगा-जमुनी संस्कृति और धार्मिक सहिष्णुता वाले समाज को भी जन्म दिया है , उसे आगे बढ़ाया है | इसीलिये अतीत के सारे धार्मिक सांस्कृतिक विवादों को विराम देते हुए विवेकपूर्ण फैसला किया गया था कि 1947 में जो जहाँ है , वैसा ही माना जाए | वर्त्तमान फैसले में लखनऊ खंडपीठ के इस कथन को कि किसी हिदू मंदिर को तोड़कर बाबरी मस्जिद खड़ी की गई थी , यदि सही भी मान लें , तब भी उक्त क़ानून के मद्देनजर न्यायालय का फैसला न्यायोचित नहीं है तथा उपरोक्त क़ानून को कमजोर बनाता है | इस फैसले से अतीत में जो धर्मस्थल तोड़े गए हैं , और जो ऐतिहासिक रूप से सत्य है , उनका विवाद बड़े पैमाने पर उभरने की संभावना बनती है | विहिप के तोगड़िया और अन्य कुछ संतों के बयान इसकी पुष्टि भी करते हैं |
  2. राम मिथकीय पुरुष हैं , न कि ऐतिहासिक | मिथकों का अपना इतिहास होता है लेकिन इतिहास मिथक नहीं होता | अतः कोई भी कोर्ट राम की पैदाइश स्थल का सर्टिफिकेट नहीं दे सकता | न ही किसी पक्ष ने राम के जन्म का प्रमाण पत्र ही कोर्ट के सामने रखा है | अतः विवेक और क़ानून से संचालित कोई भी कोर्ट यह नहीं कह सकता कि राम वहीं पैदा हुए थे , जहाँ बाबरी मस्जिद का केन्द्रीय गुम्बद था और जहाँ दिसंबर 1949 की एक रात को राम की मूर्ति चोरी छिपे रखी गई थी | यही कारण है कि संघ और उसके विहिप , भाजपा सहित सभी अनुषांग बार बार यही कहते रहे कि राम के जन्मस्थल का सवाल आस्था का सवाल है और कोई कोर्ट इसका फैसला नहीं कर सकता | भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र , संविधान , न्याय और क़ानून व्यवस्था के दुर्भाग्य से कोर्ट के फैसले पर तर्क और विवेक की जगह आस्था हावी हो गई | इसीलिये , यह फैसला किसी भी स्तर पर विवाद समाप्त करने में सहायक नहीं हो सकता | कोर्ट के सामने विवाद भूमी के स्वामित्व निर्धारण का था , न कि इसका कि राम कहाँ पैदा हुए थे ? वैसे भी पैदाइश स्थल का स्वामित्व से सीधा संबंध नहीं होता |
  3. कोर्ट को 1949 में दायर शिकायत का फैसला करना था | यह फैसला 1949 की स्थिति पर ही हो सकता था , ना कि 2010 की स्थिति पर , जैसा कि कोर्ट ने किया है | इस फैसले में सबसे ज्यादा आपत्तिजनक बात यह है कि ये हिंसा , अराजकता और साम्प्रदायिक राजनीति करने वाली आक्रांता ताकतों के राजनीतिक उपद्रव फैलाने के बाहुबल को कानूनी मान्यता देता है | सच यही है कि पूरे विवाद के दौरान "यथास्थिति" बनाए रखने के अदालती आदेशों की धज्जियां उड़ाते हुए साम्प्रदायिक राजनीतिक ताकतों ने "यथास्थिति" को हमेशा ध्वस्त किया लेकिन कोर्ट ने उसके आदेशों की अवेहलना करने वालों के खिलाफ कभी कोई कार्रवाई नहीं की |
  4. कोर्ट को विवादित भूमी के स्वामित्व का फैसला करना था | लेकिन , कोर्ट ने मान्यता के आधार पर भूमी का बटवारा कर दिया | मालिकाना हक के मामले में मान्यता की दलील को मानकर , उस आधार पर फैसला देना क़ानून और निष्पक्षता के सभी सिद्धांतों के खिलाफ है |
  5. कोर्ट के फैसले से ऐसा लगता है कि कोर्ट ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) की रिपोर्ट को अहं महत्त्व दिया है | पर , यह जगजाहिर है कि जिस दौरान याने 5 मार्च 2003 से 5 अगस्त 2003 के मध्य एएसआई ने विवादग्रस्त स्थल की खुदाई की , केंद्र में भाजपानीत गठबंधन की सरकार थी , जिसने इस संस्था के साम्प्रदायिकीकरण में कोई कसर नहीं छोड़ी थी | देश के जाने माने इतिहासकारों ने 28 अप्रैल 2003 को कोर्ट के सामने पेश की गई एएसआई की पहली रिपोर्ट पर ही अपनी आपत्तियां जता दी थीं |
    हाल ही में फैसले के परिप्रेक्ष्य में देश के जाने माने 61 नामचीन इतिहासकारों और बुद्धिजीवियों ने बयान जारी कर कहा है कि फैसले में कई ऐसे साक्ष्यों का जिक्र नहीं है जो फैसले के विरोध में पेश किये गए थे | फैसले में शामिल तीन जजों में से दो ने कहा है कि बाबरी मस्जिद एक हिंदू ढाँचे के गिराने के बाद बनाई गई | लेकिन , इन इतिहासकारों का कहना है कि इस मत के विरोध में एएसआई ने जो साक्ष्य प्रस्तुत किये , उन्हें दरकिनार किया गया है | खुदाई में मिलीं जानवरों की हड्डियां और इमारत तैयार करने में इस्तेमाल होने वाली सुर्खी और चूना से मुसलमानों की उपस्थिति साबित होती है और ये भी साबित होता है कि वहाँ मस्जिद से पहले मंदिर था ही नहीं , जैसे सभी तथ्यों को कोर्ट ने इग्नोर कर दिया है | इन इतिहासकारों और बुद्धिजीवियों के अनुसार एएसआई की उस विवादित रिपोर्ट को फैसले का आधार बनाया गया है जिसमें खुदाई में खम्बे मिलने का उल्लेख है , जबकि खम्बे कभी मिले ही नहीं थे |
  6. यदि एकबारगी मान भी लिया जाए कि बाबरी मस्जिद के निर्माण में उपयोग की गई सामग्री में किसी हिंदू ढाँचे के अवशेष हैं भी तो इसमें अजूबा क्या है ? हमारे देश में अनेक इमारतें हैं , जिनमें मुस्लिम , इंग्लिश , फ्रेंच , हिंदू स्थापत्य कला का उपयोग किया गया है | मात्र क्या इस कारण से बाबरी मस्जिद गैर इस्लामिक हो जायेगी | कोर्ट ने एक सैकड़ों साल से जीवित खड़ी ऐतिहासिक इमारत को तरजीह न देकर , 1992 के बाबरी मस्जिद को ढहाने के आपराधिक कृत्य को ही मान्यता देने जैसा काम किया है , जो आने वाली पीढ़ियों के सामने कल्पनातीत मुश्किलें खड़ा करेगा |

देशवासियों ने जिस परिपक्वता , सौहाद्र और भाई-चारे को अभी निभाया है , उसमें न तो मंदिर समर्थकों की कोई भूमिका है और न ही मस्जिद समर्थकों की , और न ही सरकार के स्तर पर किये गए सुरक्षा प्रबंधों की कोई भूमिका है | यदि कोई बात महत्त्व रखती है तो वह यह है कि 1992 के बाद देशवासियों ने जिस साम्प्रदायिक तांडव को देखा है , उसने उन्हें साम्प्रदायिक मुद्दों की व्यर्थता का बोध अच्छी तरह करा दिया है और उन्होंने राजनीतिक रूप से साम्प्रदायिक ताकतों को हाशिए पर डालने के पूरे प्रयास किये हैं | उन्हें अच्छी तरह अहसास था कि हाई कोर्ट का निर्णय जो कुछ भी हो , कानूनी प्रक्रिया यहाँ समाप्त नहीं होती है | अब परिस्थिति यह है कि फैसला आने के तुरंत बाद जो प्रफुल्लित होकर जोरशोर से देशवासियों से मंदिर बनाने में सहयोग करने की मांग कर रहे थे , खुद सर्वोच्च न्यायालय जाने की तैयारी कर रहे हैं | निश्चित रूप से देश में अमन–चैन , साम्प्रदायिक सदभाव बहुत जरूरी है | पर , यह दिल में रंज या मलाल के साथ नहीं होना चाहिये | यह अमन-चैन , सदभाव , भाई-चारा , उसे देश के संविधान , धर्मनिरपेक्ष ढाँचे , क़ानून व्यवस्था और न्याय व्यवस्था से मिलना चाहिये | इनकी कीमत पर प्राप्त अमन चैन स्थायी नहीं होगा , सुकून नहीं देगा | एक बैचेन समाज आने वाली कई पीढ़ियों के लिये बैचेनी और तल्खी छोड़ जाता है , इतिहास का यही सबक है , जिसे सभी को याद रखने की जरुरत है |


अरुण कान्त शुक्ला "आदित्य"

3 comments:

Rahul Singh said...
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Rahul Singh said...

पोस्‍ट की तल्‍खी और तथ्‍य-दृघ्टिकोण से पूरी मरह सहमत न होते हुए भी आपकी तटस्‍थ विश्‍लेषणपरक दृष्टि प्रभावित करती है.

कमल शुक्ला said...

मै आपके विचारों से सहमत हूँ |जिसका टिप्पणी आपने हटाया है उसे क्या मेरे कान में बतायंगे ?