Monday, January 31, 2022

क्या रोजगार के अवसरों में कमी का संकट भारत में एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन के रूप में फूटने का इंतजार कर रहा ज्वालामुखी है?

पिछले 8 वर्षों के दौरान देश के नवजवानों/छात्रों को जातीय पहचान और धर्म के नाम पर उत्तेजित होते, हुड़दंग करते, फसाद करते और लिंचिंग में शामिल होते देखकर यही लगता था कि उनके सामने नौकरी, रोजगार और सामाजिक कर्तव्यों में जुटने में आने वाली परेशानियों, पारिवारिक जिम्मेदारियों जैसी किसी भी किस्म की कोई समस्याएँ शेष नहीं हैं। दुर्भाग्य से ही सही पर पिछले कुछ वर्षों में पहचान और धर्म पर हिंसा और उसमें नवजवानों का इस्तेमाल एक ऐसी चीज है जिसके हम अभ्यस्त से हो गए हैं। लेकिन पिछले सप्ताह मंगलवार को हमने कुछ दुर्लभ देखा, नौकरियों को लेकर दंगे।

बिहार में आरा, गया, पटना में क्रोधित छात्रों और पुलिस के बीच झड़प, हिंसा और आगजनी का मंजर देखा| उत्तर प्रदेश से भी एक वीडियो सोशल मीडिया में वायरल हुआ जिसमें पुलिस छात्रों और छात्रावासों पर धावा मारते दिख रही है। पुलिस अधिकारियों का कहना था कि वे उन छात्रों की तलाश कर रहे थे जिन्होंने ट्रेन रोकने की कोशिश की थी।

बिहार और उत्तर प्रदेश के छात्र "गैर-तकनीकी लोकप्रिय श्रेणी" कहलाने वाली क्लर्क और स्टेशन मास्टर जैसी नौकरियों के लिए भर्ती होने वाली रेलवे परीक्षा के परिणामों से नाराज़ थे। दरअसल इन परीक्षाओं को  2019 में ही हो जाना चाहिए था लेकिन कोविड -19 महामारी के कारण वे टलती गईं थीं। चूंकि ये तकनीकी नौकरियां नहीं थीं, इसलिये, उम्मीदवारों के आवेदन भी बड़ी संख्या में आये। सोचिये, 35,000 पदों के लिए रेलवे को 1.25 करोड़ आवेदन प्राप्त हुए। अगर भर्ती प्रक्रिया ठीक-ठाक तरीके से पूरी भी हो जाये तब भी उन उम्मीदवारों की संख्या जिनको कि नौकरी नहीं मिलेगी, बेल्जियम की पूरी आबादी से भी ज्यादा होगी।

विश्व बैंक के द्वारा प्रकाशित अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के आंकड़ों के अनुसार, भारत की कामकाजी उम्र की आबादी में से केवल 43% के पास ही नौकरी है। रोजगार के अवसर मुहैय्या कराने के मामले में भारत बंगलादेश और पाकिस्तान से भी पीछे है। बांग्लादेश उसकी कामकाजी आयु के लोगों में से 53% को तो पाकिस्तान 48% लोगों को नौकरी देने में सफल रहा है। हालात के बद्तर होने का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि  सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के दिए गए आंकड़ों के अनुसार लगभग 1.7 करोड़ भारतीय काम करना चाहते हैं, लेकिन वे निराश हो चुके हैं और उन्होंने सक्रिय रूप से नौकरी की तलाश करना ही छोड़ दिया है। इनमें आधे से ज्यादा महिलाएं हैं और उनमें इकतालीस प्रतिशत 15 से 19 वर्ष की आयु के बीच हैं।

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के ही आंकड़ों के अनुसार जिन परिवारों में एक से अधिक व्यक्ति कार्यरत हैं, उनका अनुपात 2016 के लगभग 35% से गिरकर 2021 में केवल 24% रह गया है। नौकरी प्राप्त करने के बाद भी वेतन का स्तर इतना कम हो सकता है कि परिवारों को लगता है कि बेहतर होगा यदि सदस्य बाहर कम वेतन वाले रोजगार की तलाश करने के बजाय घरेलु कार्य करे जिससे उस कार्य के लिए कोई वैतनिक कामगार न रखना पड़े। बड़ी संख्या में भारतीय नौकरी की तलाश में भी परेशान हैं। ऊर्जावान युवा भी निराश हैं। देश के 15-24 आयु वर्ग के नौजवानों में काम की तलाश कर रहे लोगों का अनुपात  केवल 29% है। हमने प्रधानमंत्री और अन्य नेताओं के मुंह से अनेक बार सुना है भारत युवाओं का देश है पर दुःख की बात यह है कि भारत स्पष्ट रूप उस युवा श्रमबल को बर्बाद कर रहा है।
चीजें इतनी खराब क्यों हैं ? सरकारें इसके अनेक कारण गिना सकती हैं उनके पास पकौडा बेचने के व्यवसाय से लेकर स्टार्ट-अप तक स्टार्ट करने के अनेक रोजगार भी हैं वे महामारी को भी इसका कारण बता सकती हैं। वे सीख दे सकती हैं कि नौजवानों को आपदा से अवसर ढूंढ निकालना चाहिए। पर, साधारण सी बात यह है कि निजी क्षेत्र कम वेतन और ज्यादा श्रम-दोहन में ही अपना लाभ देखता है और रोजगार सृजन उसके लिये पैसे का अपव्यय है। नतीजतन हर वर्ष करोड़ से ऊपर रोजगार पाने की कतार में जुड़ने वाले इच्छुक शिक्षित, अर्द्धशिक्षित छात्र, नौजवान सरकारी नौकरियों की तलाश में ही रहते हैं, लेकिन निजीकरण, डिजिटलीकरण और आटोमेशन में वृद्धि के कारण सरकारी क्षेत्र में रोजगार सृजन में भारी गिरावट आई है।

जेएनयू और अन्य विश्वविद्यालयों के छात्रों के आंदोलन के कुचल दिए जाने और उनके ऊपर आतंकवादी, देशद्रोहिता के आरोप लगाए जाने के बाद तो यूँ लगता था जैसे उनकी सारी समस्याओं का हल निकाला जा चुका है और देश के छात्रों/नवजवानों के सामने अब यदि कोई लक्ष्य है तो वह देश में हिन्दुतत्व की स्थापना भर ही शेष है। किसी भी देश में, यदि उस देश के नवजवान/छात्र अपने मूल हकों को और उनके लिए संघर्ष करने के अपने धर्म को भूल जाएँ और राष्ट्रवाद, जातीयता और धर्म की आभासी प्राप्तियों में अपना भविष्य देखने लगें, यह परिस्थिति न तो उस देश के हित में है और न ही उस देश के बाशिंदों के हित में है। यह एक बैचैन कर देने वाली परिस्थिति थी। यद्यपि नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ पूरे देश में चले सफल आंदोलन और उसके बाद एक वर्ष से ज्यादा की अवधि तक चले सफल किसान आंदोलन ने उस वातावरण को बदला पर नवजवानों और छात्रों के आन्दोलन की अनुपस्थिति तीव्रता से महसूस हो रही थी।

रेलवे भर्ती बोर्ड की परीक्षाओं को लेकर बिहार और उत्तर प्रदेश में छात्रों का विरोध भारत में रोजगार के अवसरों में बढ़ती कमी के संकट का एक लक्षण है, जो दिखने से कहीं अधिक गंभीर है। इसे अलग-थलग करके बिहार या यूपी की घटना के रूप में नहीं देखा जा सकता है। ये दोनों राज्य एक उदाहरण पेश करते हैं कि कैसे सरकारी सेवाओं और विभिन्न भर्ती बोर्डों के साथ चीजें गलत हो रही हैं, जिससे युवाओं में गुस्सा है। सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि इस मुद्दे को हल करने के लिए सरकार की उदासीनता है।

उपरोक्त परिदृश्य में, हम में से अधिकांश के लिए, यह हिंसा एक अचंभे के रूप में सामने आई क्योंकि मीडिया या राष्ट्रीय स्तर की राजनीति की बात तो छोड़ ही दी जाये, जन-जीवन तक में बेरोजगारी पर शायद ही कभी गंभीरता से कोई चर्चा आज की जाती है। पर, यह एक तथ्य जो इन दंगों से सामने आया है बताता है कि रोजगार के अवसरों की कमी भारत में एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन के रूप में फूटने का इंतजार कर रहा ज्वालामुखी है, और अगर ऐसा होता है, तो यह पिछले तीन वर्षों से लगातार जन-प्रतिरोध का सामना कर रही नरेंद्र मोदी सरकार के लिये एक और बड़ा कांटा हो सकता है, जिसे राष्ट्रवाद और हिन्दुत्त्व की लुभावनी बातों से टालना मोदी जी के लिये भी कतई मुमकिन नहीं होगा।

 

अरुण कान्त शुक्ला

31 जनवरी, 2022

 

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