क्या इस तरह खत्म होगा बस्तर में माओवाद ?
अरुण कान्त शुक्ला : 12 नवम्बर, 2016
अभी कुछ दिनों पूर्व ही राज्योत्सव के शुभारंभ के लिए आये प्रधानमंत्री से
मुलाक़ात करते हुए आई जी बस्तर, एसआरपी कल्लूरी ने प्रधानमंत्री से कहा कि वे चुनाव
के पहले तक बस्तर में माओवाद को पूरी तरह खत्म कर देंगे| इस, अब विवादग्रस्त,
मुलाक़ात में कही गई यह दंभोक्ति पुलिस सेवा में रत आईजी की कम तथा किसी सत्तारूढ़
राजनीतिक दल के छुटभैय्या नेता की अधिक लगती है| आईजी बस्तर की इस दंभोक्ति ने
अगले दिन अखबारों में मुख्य पेज पर हेडलाईन बनाई थी| बावजूद इसके कि पिछले तेरह
वर्षों में राज्य के मुख्यमंत्री पद पर आसीन रमन सिंह भी माओवाद के खात्मे के लिए
कृतसंकल्पित होने के दावे के अलावा कभी कोई डेडलाइन इसके लिए घोषित नहीं कर पाए
हैं, आई जी का यह दावा आने वाले समय में पुलिस-अर्धसैनिक तथा सैनिक बालों द्वारा
बस्तर के आदिवासियों पर प्रताड़नाओं को और अधिक बढ़ाए जाने के खतरे की तरफ ही इशारा
करता है|
पुलिस ने बनाया बस्तर को एक अभेद दुर्ग
पिछले लम्बे समय से बस्तर प्रदेश के अन्य हिस्सों के रहवासियों, बाकी देश और
दुनिया के लिए एक ऐसा अभेद दुर्ग बना हुआ है, जिसके बारे में सभी को उतना ही जानने
का हक़ है, जितना वहां के पुलिस और सैन्य अधिकारी आपको बतायें| तनिक भी सत्यान्वेषण
का प्रयास और उसे प्रसारित करने के प्रयास आपके ऊपर माओवाद को मदद पहुंचाने,
माओवादी होने का ठप्पा लगा देता है| मैंने लगभग छै वर्ष पूर्व अपने लेख ‘आखिर
चाहते क्या हैं माओवादी’ और फिर झीरम में हुए हत्याकांड पर त्वरित टिप्पणी करते हुए
माओवाद के खिलाफ लिखा था| उस समय भी बस्तर के आदिवासी माओवाद और पुलिसया दमन के दो
पाटों के बीच पिस रहे थे और आज भी वे दोनों पाटों के बीच पिस रहे हैं| पर, जो फर्क
आया है वह बहुत बड़ा है| माओवादी घोषित रूप से शासकीय प्रतिष्ठानों, पुलिस और सैन्य
बलों के दुश्मन हैं और उनके अधिकाँश हमले आज भी उन्हीं पर होते हैं| आदिवासियों
में वे ही उनके शिकार होते हैं जिन्हें पुलिस दबाव डालकर, जबरिया या लालच देकर
अपना मुखबिर बनाती है और माओवादियों के इसका संदेह हो जाता है| पर, पुलिस या
सैन्यबलों के मामले में ऐसा नहीं है| गाँव के गाँव और सैकड़ों की संख्या में
आदिवासी उनके संदेह के घेरे में आते हैं| गाँव के गाँव जलाने से लेकर, गिरफ्तार कर
जेलों में ठूंस देना, बिना गिरफ्तारी दिखाए वर्षों बंद रखना, आदिवासियों स्त्रियों
के साथ बलात्कार, स्कूल के विद्यार्थियों को नक्सल बताकर मार देना, पुलिस कस्टडी
में मौतें, मुठभेड़ दिखाकर ह्त्या कर देना, सब उसमें शामिल रहता है| इस सत्य को
बस्तर से बाहर पहुंचाने वाले पत्रकार, आदिवासियों की मदद करने वाले सामाजिक
कार्यकर्ता, कानूनी मदद करने वाले वकील सभी उनके लिए माओवाद के समर्थक हैं या
माओवादी| उन्हें बार-बार गिरफ्तार करके, झूठे मुकदमे चलाकर तंग करने के अलावा
येन-केन-प्रकारेण उनसे बस्तर छुडवाने का ही उनका उद्देश्य रहता है| यह काम दोनों
तरह से होता है| पुलिस-सैन्यबल इसे प्रत्यक्ष तौर पर भी करते हैं और सलवा जुडूम को
सर्वोच्च नयायालय दवारा अवैधानिक घोषित करने के बाद पुलिस द्वारा पिछले छै वर्षों
में सामाजिक एकता मंच जैसे गठित अनेक समूहों द्वारा भी कराया जाता है| यूं तो ऐसे
अनेक उदाहरण हैं लेकिन करीब आठ माह पूर्व एक वेबसाईट की पत्रकार मालिनी सुब्रमणियम
को सामाजिक मंच के लोगों के द्वारा घर पहुंचकर मार पीट करना और उसके मकान मालिक को
पुलिस द्वारा धमकाकर मकान खाली कराने का मामला तेजी से प्रकाश में आया था| सोनी
सोरी का मामला सर्व विदित है| यह कहने की जरुरत नहीं कि राज्य शासन की सहमति के
बिना यह सब करना न तो पुलिस और न ही उन निजी सेनाओं द्वारा संभव है, जिन्हें पुलिस
ने खड़ा किया है|
उपरोक्त लम्बी भूमिका की आवश्यकता मुझे इसलिए पड़ी कि बस्तर के दरभा में नक्सल
विरोधी टंगिया ग्रुप के लीडर सामनाथ बघेल की ह्त्या के मामले में सुकमा पुलिस ने
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव संजय पराते, दिल्ली विश्वविद्यालय की
प्रो.नंदिनी सुन्दर, प्रो.अर्चना प्रसाद सहित 22 लोगों पर एफ़आईआर दर्ज की है|
पुलिस के अनुसार सामनाथ की पत्नी ने लिखित आवेदन देकर एफ़आईआर दर्ज करने की मांग की
थी| आईजी बस्तर एसआरपी कल्लूरी के अनुसार नामा गाँव के ग्रामीणों की शिकायत पर
धारा 302 से लेकर आर्म्स एक्ट सहित विभिन्न 8 धाराओं के तहत एफ़आईआर दर्ज हुई है|
यह स्पष्ट है कि उपरोक्त तीनों ने पार्टी के कुछ अन्य लोगों के साथ लगभग छै माह
पूर्व मई में दरभा में कुमाकोलेंग और नामा गाँवों का दौरा किया था| तभी से वे
बस्तर पुलिस के निशाने पर थे| ज्ञातव्य है की तब नंदिनी सुन्दर ने ऋचा केशव के नाम
से दौरा किया था| नंदिनी सुन्दर के अनुसार क्योंकि वे बस्तर पहले भी आती रही हैं
और बस्तर पर उनकी खोजपूर्ण किताबें भी हैं, उनका नाम पुलिस के लिए पहचाना है और
पुलिस उन्हें असली नाम से जाने नहीं देती, उन्होंने ऐसा किया था और वापिस लौटते ही
अपना असली नाम उजागर कर दिया था| यह सच है क्योंकि पहले स्वामी अग्निवेश, ताड़मेटला
की जांच करने वाली सीबीआई की टीम और मार्क्सवादी पार्टी के ही डेलिगेशन के साथ ऐसा
हो चुका है| उसी समय आईजी पुलिस ने राज्य शासन को अलहदा रखते हुए दिल्ली
विश्वविद्यालय को पत्र लिखकर नंदिनी सुन्दर और अर्चना प्रसाद के खिलाफ कार्यवाही
की मांग की थी| फिलवक्त जो खबर है, उसके अनुसार आईजी कल्लूरी ने डीजीपी को पत्र
लिखकर पूरे मामले की जांच सीबीआई से करने की सिफारिश की है| वह जैसा भी हो और आगे
पुलिस की जांच के बाद जो भी कार्यवाही हो, पर, पूरे मामले पर राय बनाने से पहले
कुछ बातों का खुलासा आवश्यक है|
राष्ट्रीय वामपंथी दल माओवाद के समर्थक नहीं हैं
पहली यह कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी देश के
दो बड़े राजनीतिक दल हैं और अनेक बार राष्ट्रीय सरकारें इनके कन्धों पर चढ़कर बनी
हैं| बंगाल में वामपंथ की सरकार स्वयं नक्सलवाद का सामना करती रही है| इन दोनों
राष्ट्रीय पार्टियों की नक्सलवाद-माओवाद के बारे में घोषित कार्यनीति है कि वे
माओवादी गतिविधियों का समर्थन नहीं करती हैं और माओवाद के खात्मे के लिए संयुक्त
राजनीतिक अभियानों और जन-आन्दोलन की पक्षधर हैं| उनकी स्पष्ट मान्यता है कि
आदिवासियों को उनकी जमीन और जंगल से बेदखली की कार्यवाही को रोककर शिक्षा तथा
स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं को सुदूर ईलाकों तक पहुंचाकर माओवाद पर अंकुश लगाया जा
सकता है| इन दोनों दलों की इस कार्यनीति का अवलोकन उनके राजनीतिक दस्तावेजों में
किया जा सकता है, जो उनकी वेबसाईट पर उपलब्ध हैं| दूसरी बात कि दोनों राजनीतक दल
इतने अनुशासित हैं कि केंद्र से लेकर कसबे स्टार तक कोई साधारण कार्यकर्ता भी इस
कार्यनीति के उल्लंघन की बात सोच भी नहीं सकता| दोनों राजनीतिक दलों के अनेक
कार्यकर्ता बस्तर व अंता:गढ़ क्षेत्र में नक्सली हमलों का शिकार होकर मारे गए हैं| पुलिस
ने कभी भी किसी मामले में ठोस कार्यवाही नहीं की|
तीसरी बात की शुरुवात मैं मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के एक प्रतिनिधी मंडल
की तात्कालीन डीजीपी से लगभग आठ दस पूर्व हुई मुलाक़ात का उदाहरण देकर करना चाहता
हूँ| पार्टी के एक प्रतिनिधी मंडल ने बीजापुर क्षेत्र में जाने के पूर्व डीजीपी से
रायपुर में मुलाक़ात की और उन्हें बताया कि वे बस्तर के हालात जानने के लिए
बीजापुर, दोरनापाल इलाकों में जाना चाहते हैं| उन्होंने कहा आराम से जाईये पर थोड़ा
सावधान रहियेगा| महत्वपूर्ण इसके बाद की बात है| उन्होंने कहा कि आप लोगों की भी
जिम्मेदारी बनती है| क्योंकि, आप लोगों के जन-आन्दोलन आदिवासी क्षेत्र में बहुत कम
और कमजोर हो गए हैं, उस जगह को माओवाद ने कब्जा लिया है| शहरी क्षेत्र तो ठीक है
पर थोड़ा आदिवासी क्षेत्र पर भी ध्यान दीजिये| आप जानते हैं कि वामपंथी राजनीतिक
दलों के आन्दोलन-जनसंघर्ष शोषित-पीड़ित जनता के उपर होने वाले व्यवस्था-जन्य
उत्पीड़न के खिलाफ होते हैं| इसका अर्थ यह हुआ कि माओवाद अथवा नक्सलवाद को प्रारंभ
से ही क़ानून-व्यवस्था का मामला मानने बावजूद, कहीं न कहीं, प्रशासन के अवचेतन में
यह बात थी कि माओवाद केवल क़ानून-व्यवस्था का मामला नहीं बल्कि व्यवस्था से पैदा हो
रही समस्याओं का भी परिणाम है| पिछले छै वर्षों में और केंद्र में भाजपा के
सत्तारूढ़ होने के बाद से प्रशासन और राजनीति की यह सोच पूरी तरह समाप्त हो चुकी
है|
छत्तीसगढ़ में लोकतंत्र से ‘लोक’ गायब है
चौथी बात, छत्तीसगढ़ में आज हम जिस लोकतंत्र में रह रहे हैं, उसमें से ‘लोक’
पूरी तरह गायब है| इसका सबसे बड़ा उदाहरण मुख्यमंत्री द्वारा आज से कुछ वर्ष पूर्व
बुलाया गया विधानसभा का वह ‘गुप्त’ सत्र है, जो बस्तर में नक्सलवाद के खिलाफ
रणनीति तय करने के लिए बुलाया गया था| इसमें भाजपा, कांग्रेस, राकपा, बसपा सभी
शामिल थे, पर आज तक प्रदेशवासियों को इसकी जानकारी नहीं मिली की आखिर क्या रणनीति
बनाई गयी थी? और क्यों, उसके बाद से बस्तर में माओवाद से कई गुना अत्याचार आदिवासी
पर पुलिस का हो रहा है| यहाँ यह प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि क्या क्लोज सेशन में
प्रताड़ित कर आदिवासियों को बस्तर से भगाने का निर्णय हुआ था? क्योंकि उसके बाद से
लाखों आदिवासी या तो पलायन कर गए हैं या लापता हैं| शहरी क्षेत्र में आचानक पुलिस
कस्टडी में होने वाली मौतें आम सी हो चली हैं| यदि यह कहा जाए कि पूरे प्रदेश में
और बस्तर में तो पूरी तरह एक भयभीत करने वाला लोकतंत्र पसरा पड़ा है तो कोई
अतिशयोक्ति नहीं होगी| आप सुरक्षित हैं, जब तक ‘राज्य’ के खिलाफ कोई आवाज नहीं
उठाते| अधिकाँश प्रिंट मीडिया और स्थानीय चैनल पूरी तरह राज्य शासन के नियंत्रण
में हैं और उनका काम पुलिस तथा शासन की प्रस्तुती को ही लोगों के समक्ष रखना है|
इसे समझने के लिए सिर्फ दो उदाहरण पर्याप्त हैं| राज्य सरकार ने आदिवासियों को
आदिवासियों से ही लड़ाने की मंशा रखते हुए सलवा जुडूम शुरू किया| यह कोई नक्सलवाद
के खिलाफ शांतिपूर्ण मार्च या मोर्चा नहीं था बल्कि आदिवासी बालिग़-नाबालिग युवकों
को कुछ हजार रुपये की तनख्वाह पर रखकर एसपीओ याने विशेष पुलिस बल कहकर उन्हें
हथियार थमा दिए गए| इन एसपीओ की सहायता से पुलिस प्रशासन ने आदिवासियों को मजबूर
किया कि वे अपना घर द्वार छोड़कर शासन निर्मित केम्पों में जाकर रहें| गाँव के गाँव
खाली करा लिए गए| आदिवासियों को इन केम्पों में अमानवीय परिस्थितियों में रहने को
मजबूर किया गया| हालात यह थे कि केम्प छोड़ कर गाँव वापिस जाने की कोशिश करने वाले
परिवारों-व्यक्तियों को ये विशेष पुलिस बल के आदिवासी जवान ही मार डालते थे और
उन्हें नक्सली कहा जाता था| इन केम्पों में बाहरी व्यक्तियों का प्रवेश असंभव था
और उन इलाकों में जाने की कोशिश करने वालों को ये एसपीओ वर्चुअली मारपीट कर भागने
को मजबूर कर देते थे| पूरे प्रदेश में इस सलवा-जुडूम और एसपीओ का विरोध हो रहा
था,पर,राज्य शासन ने कोई कान नहीं दिया| अंतत: सर्वोच्च न्यायालय ने सलवा-जुडूम और
एसपीओ के गठन दोनों को अवैधानिक घोषित किया| थोड़े अंतराल के बाद ही उन्हीं एसपीओ
को राज्य शासन ने डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड के नाम से फिर नियुक्त कर लिया| उसके
बाद से पुलिस और स्थानीय प्रशासन की शह और दबाव में ऐसे अनेक मंच बने हैं, जो
लगातार बस्तर में काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, वकीलों पर हमले
करते हैं और पुलिस खामोशी से उन्हें देखती रहती है| यह कौनसा लोकतंत्र का मॉडल है
जिसमें राज्य और प्रशासन गैरकानूनी ढंग से लोगों को डराने, धमकाने के लिए युवकों
की भर्ती करता है?
दूसरा उदाहरण ताड़मेटला, मोरापल्ली, तिम्मापुर गाँवों में 250 से अधिक
आदिवासियों के घरों को जलाने के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के सामने पेश की गयी
सीबीआई की हाल में ही आई रिपोर्ट पर बस्तर के प्रशासनिक अमले की तरफ से व्यक्त की
गईं प्रतिक्रियाओं का है| कथित तौर पर सीबीआई ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि न
केवल घरों को फ़ोर्स ने जलाया बल्कि फ़ोर्स को दंतेवाड़ा के तत्कालीन एसपी और वर्तमान
आईजी बस्तर एसआरपी कल्लूरी के निर्देश पर भेजा गया था| ज्ञातव्य है कि इस मामले
में पुलिस और सैन्य-बलों दवारा यह स्टेंड लिया जा रहा था कि घरों को माओवादियों ने
जलाया है| इस पर प्रदेश के राजनीतिक दलों ने उन्हें हटाने और उनके खिलाफ जांच करने
की मांग की| अमूमन राजनीतिक दलों के द्वारा लगाए आरोपों और मांग पर राज्य शासन या
सत्तारूढ़ पक्ष ही जबाब देता है| पर, आश्चर्यजनक रूप से इस पर प्रेस कांफ्रेंस करके
कांग्रेस को चुनौती देते हुए आईजी बस्तर ने ही चुनौतीपूर्ण ढंग से प्रतिक्रिया
व्यक्त की| इसके मायने हुए कि बस्तर के लोकतन्त्र को राज्य शासन और सत्तारूढ़ दल ने
पूरी तरह पुलिस के हवाले कर दिया है| आई जी बस्तर से इस शह को पाकर दूसरे दिन
बस्तर के कई इलाकों में डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड के जवानों ने ड्रेसबद्ध होकर
(जोकि वास्तव में पुराने एसपीओ ही हैं) सर्वोच्च न्यायालय गए सामाजिक कार्यकर्ताओं
के पुतले जलाए और पुलिस ने कोई प्रतिरोध नहीं किया| यहाँ न तो यह कहने की जरुरत है
कि बिना सर्वोच्च अधिकारी की शह के ऐसा नहीं हो सकता था और न ही यह बतलाने की
जरुरत है कि इसमें राज्य शासन की सहमती अवश्य ही रही होगी क्योंकि अभी तक राज्य
शासन ने, जिसने की इन रिजर्व गार्डों की भर्ती की है, कोई ठोस कार्यवाही नहीं की
है| क्या प्रशासन का कोई अंग विशेषकर पुलिस अथवा सेना लोकतांत्रिक कार्यवाही और
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के खिलाफ ऐसा कदम लोकतंत्र में उठा सकता है?
क्या इस तरह खत्म करेंगे बस्तर में माओवाद को
आईजी एसआरपी कल्लूरी?
मामले में ताजा घटनाक्रम यह है कि प्रो. नंदिनी सुन्दर की सर्वोच्च न्यायालय
में एफआईआर रद्द करने के लिए लगाई गयी याचिका पर राज्य शासन ने सर्वोच्च न्यायालय
के रुख को भांपते हुए भरोसा दिलाया है कि 15 नवम्बर तक किसी की गिरफ्तारी नहीं की
जायेगी और राज्य शासन जांच की पूरी कार्यवाही की रिपोर्ट और अन्य दस्तावेज सीलबंद
लिफ़ाफ़े में 15नवम्बर तक सर्वोच्च न्यायालय को सौंपेगा| यह भी खबर है कि सामनाथ की
पत्नी ने कहा है कि उसने पुलिस को कोई नाम नहीं दिए थे| किंतु, पिछले छै साल में
बस्तर में माओवाद से निपटने के नाम पर पुलिस द्वारा गिरफ्तार किये जाने वाले अनेक
मामले में आरोपित व्यक्तियों को बेदाग़ अदालतों ने छोड़ा है बल्कि पुलिस तंत्र और
राज्य सरकार की कटु आलोचना भी की है| सोनी सोरी की गिरफ्तारी और पुलिस हिरासत में
उस पर की गयी अमानवीय ज्यादती सर्व विदित है| हाल ही में सोनी सोरी पर रसायन
फिकवाने का आरोप भी पुलिस पर लगा है| किसी भी लोकतांत्रिक सरकार के लिए अदालतों
में उसके कार्यों को पलटा जाना और उसकी निंदा होना न केवल सरकार और तंत्र के लिए शर्म
का विषय होना चाहिए बल्कि यह यह भी दर्शाता है कि वह सरकार कितनी अलोकतांत्रिक ढंग
से परिस्थिति से निपटती है| बस्तर की स्थिति को बेहतर ढंग से समझने के लिए मैं एक
उद्धरण देना चाहता हूँ;
“ जिन घटनाओं से हमारा साबका पड़ा है उन पर यकीन नहीं होता; लेकिन ये हुईं तो
हैं| दरअसल, रिपोर्ट में भयानक घटनाओं को पूरी तरह बयान नहीं किया जा सकता| और न
ही उन लोगों की नाक़ाबिले-बयान क्रूरता और हैवानियत का ब्यौरा दिया जा सकता है, जो
जिले के प्रशासन और पुलिस की जिम्मेदारी संभाले थे| जिस सवाल का जबाब चाहिए वो है;
सरकार की नौकरी में रहते हुए कैसे इन लोगों को लगा कि उनके खिलाफ कोई कदम नहीं
उठाया जा सकता है| कैसे उनकी हिम्मत हुई कि सरकारी साधनों का इस्तेमाल करके वे ऐसे
अकथनीय गुनाह कर सके, जिनके लिए हमारे सामने पेश किये गए सबूतों के बिना पर हम
आपको जिम्मेवार समझते हैं?”
उपरोक्त उद्धरण 1930-1934 के बीच हुए चिटगांव विद्रोह पर मानिनी भटाचार्य की
किताब ‘करो या मरो’ से लिया गया है| मानिनी आगे लिखती हैं; “ चिटगांव शस्त्र भंडार
पर हमलों के कुछ दिन ही बाद बकरगंज के पुलिस डीआईजी, जे सी फारमर ने इन्सपेक्टर
खान साहब असानुल्ला का तबादला बरिसाल से चिटगांव कर दिया| उसको क्रांतिकारियों को
ढूँढने में पुलिस की मदद करनी थी| 6मई 1930 को फारमर ने असानुल्ला के बारे में कहा
कि ‘जानकारी एकत्रित करने और निगरानी में वो काफी चालू है’ और सबसे बड़ी बात है कि
वो खुद बहुत सक्रिय है’|” चिटगांव की घटनाओं पर आई रिपोर्ट और ताड़मेटला पर आई
सीबीआई की रिपोर्ट में पूरा साम्य होने के बावजूद एक बड़ा फर्क है जो काबिले-गौर
है| चिटगांव पर आई रिपोर्ट एक गैर सरकारी जांच कमेटी की थी और सीबीआई की रिपोर्ट
सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर ‘सरकारी एजेंसी सीबीआई’ की है| ठीक यही परिस्थिति आज
बस्तर के अन्दर मौजूद है| केंद्र और राज्य शासन ने माओवाद के खिलाफ लड़ने के नाम पर
बस्तर में युद्ध छेड़ दिया है| आदिवासियों पर जुल्म ढाने के लिए पुलिस के उन तमाम
लोगों को बस्तर में तैनात किया है जिनके ऊपर पूर्व से ही मानवाधिकार उल्लंघन के
गंभीर आरोप हैं| बस्तर आईजी, जो पहले वहां एसपी थे, के ऊपर फर्जी मुठभेड़ आयोजित
करने से लेकर आदिवासी स्त्री से बलात्कार जैसे आरोप भी लग चुके हैं|
यह वह परिप्रेक्ष्य है, जिसमें हमें बस्तर में हो रहे माओवादियों के नकली
आत्मसमपर्ण, मुठभेड़ के नाम पर हो रही हत्याओं, बलात्कारों तथा राजनीतिक, सामाजिक
कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के ऊपर होने वाले आक्रमणों तथा उनके खिलाफ फर्जी एफआईआर
दर्ज करने के प्रकरणों का अवलोकन करना पड़ेगा| यह सच है कि क्रान्ति की माओवादी
अवधारणा, जिसकी राह पर माओवादी चल रहे हैं, न तो भारतीय समाज और न ही भारतीय
परिस्थति के अनुरूप है| पर क्या, बस्तर में लोकतंत्र को ताक पर रखकर, वहां पर
उपस्थित राजनीतिक और सामाजिक ताकतों को अपराधी घोषित करके, माओवाद के नाम पर
आदिवासियों पर राज्य की हिंसा को लादकर क्या बस्तर में माओवाद का खात्मा कर
पायेंगे, बस्तर आईजी एसआरपी कल्लूरी?
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