2 सितम्बर की हड़ताल को मिलना चाहिए अपार जनसमर्थन
देश
के सभी प्रमुख केन्द्रिय श्रम संगठनों तथा किसानों, सार्वजनिक प्रतिष्ठानों,
केंद्रीय सरकार, राज्य सरकार और असंगठित क्षेत्र के प्रमुख संगठनों के आव्हान पर
देश के श्रमिक/कर्मचारी 2 सितम्बर को एक दिनी हड़ताल पर रहेंगे| नवउदारवादी नीतियों
के खिलाफ भारत के श्रमिक वर्ग के अनवरत चलते संघर्ष के मध्य पिछले 25 वर्षों में की
जा रही यह 17वीं हड़ताल है| पिछली 16 हडतालों में फरवरी 2013 में की गयी ‘लगातार 48
घंटों की हड़ताल’ भी शामिल है जिसका उल्लेख भारत ही नहीं विश्व के कामगार आन्दोलन
में हमेशा गौरवपूर्ण ढंग से किया जाता है|
सरकार
लेकर आई झुनझुने
हमेशा
की तरह सरकार ने इस बार भी श्रमिकों/कर्मचारियों के इस कदम के प्रति अवेहलना भरा
रवैय्या ही अपनाया| केंद्रीय ट्रेड यूनियनों ने यद्यपि इस संयुक्त कार्यवाही की
घोषणा 30 मार्च, 2016 को ही कर दी थी, पर, सरकार ने श्रमिकों/कर्मचारियों के प्रतिनिधि
संगठनों के साथ बातचीत की कोई पहल नहीं की| पहल हुई हड़ताल के लिए निश्चित तिथी 2
सितम्बर के चार दिन पहले याने रविवार, 28 अगस्त को| वह भी शायद औपचारिकता निभाने
के लिए, क्योंकि मंत्रिमंडल की एम्पावर्ड कमेटी के पास न तो कोई ठोस प्रस्ताव थे
और न ही ठोस आश्वासन| इसके 2 दिनों के बाद वित्तमंत्री कुछ झुनझुने लेकर आये|
अखबारों में इन झुनझुनों को कितने भी बड़े बेनर में क्यों छापा गया हो या सरकार के
पेड खबरिया चैनलों ने इन्हें कितना भी क्यों न बजाया हो,पर, श्रमिकों के मूलभूत और
बुनियादी हकों तथा कल्याण पर लगातार हो रहे हमलों से परेशान श्रमिक वर्ग को ये
झुनझुने बहलाने के बजाय खिजाने वाले ज्यादा हैं| 18000 रुपये न्यूनतम मासिक मजदूरी
की मांग के सामने ही नहीं, आज के महंगे जीवन-यापन में, सरकार की दैनिक वेतन को
वर्तमान 246 से बढ़ाकर 350 रुपये प्रतिमाह करने की घोषणा हास्यास्पद ही है| केन्द्रिय
कर्मचारियों के लिए 7वें वेतन आयोग का एरियर और 2 वर्ष का रुका हुआ बोनस जारी करना
कोई नया फ़ायदा नहीं है| यह वह हक़ है जिसे सरकार दबाये बैठी थी|
सरकार
के आश्वासनों-वायदों पर विश्वास क्यों हो?
फिर,
सरकार के आश्वासनों/वायदों पर देश का मेहनतकश विश्वास क्यों करे? यही सरकार जो आज
असंगठित क्षेत्र के कामागारों की दैनिक मजदूरी 350 रुपये करने का ढोल पीट रही है,
बीते दिनों उनकी भविष्य निधी की निकासी पर जाम थोपने और उसके 60% हिस्से पर आयकर
लगाने की जुगत में थी| इसी सरकार ने इस वित्तीय वर्ष से छोटी बचत योजनाओं पर
मिलाने वाले ब्याज की दरों में कमी की है| जबकि गरीब और कमैय्या वर्ग के लिए ये
योजनाएं ही सुरक्षा और आकस्मिक परिस्थितियों से निपटने का सबसे बड़ा और सशक्त जरिया
हैं| इन सारी योजनाओं को स्वत्तंत्र भारत में सरकारों ने समाज की सरंचनात्मक
परिस्थितियों में पैदा होने वाली अड़चनों से स्वयं निपटने की शक्ति कमैय्या वर्ग को
प्रदान करने के लिए बनाया था| ये सरकारी कोष के लिए भी बड़ा स्रोत हैं| यह भी कैसे
भूला जा सकता है कि सत्ता संभालने के साथ ही श्रम सुधारों को लागू करने की जो कवायद, हड़बड़ी एनडीए की
सरकार ने दिखाई, उसकी हिम्मत तो सुधारों के पितामह मनमोहनसिंह भी नहीं कर पाए थे|
सरकार बनने के दो महीने बाद ही, 30 जुलाई को मोदी कैबिनेट ने फ़ैक्ट्रीज़ एक्ट 1948, अप्रेंटिसेज़ एक्ट 1961 और लेबर लॉज़ एक्ट 1988 जैसे श्रम क़ानूनों में
कुल 54 संशोधन पास किए और
असंगठित क्षेत्र के लगभग 98 प्रतिशत मजदूरों को श्रम कानूनों के दायरे से बाहर कर
दिया|
ऐसा नहीं है कि सरकार के प्रति यह अविश्वास का भाव सिर्फ देश के
श्रमिकों/कर्मचारियों में है| जनता का कुछ प्रतिशत ऐसा हिस्सा जो अघाया और पेड भक्त
है, को, यदि छोड़ दिया जाए तो आम जनता का प्रत्येक तबका सरकार की नीतियों और
व्यवहार से त्रस्त है| 2 सितम्बर की हड़ताल में शामिल होने वाले करोड़ों छोटे किसान,
खेतिहर मजदूर, जहां एक तरफ पिछले वर्षों में लगातार पड़े सूखे या अतिवृष्टि से
परेशान होकर कर्जों में दबे अपने भाईयों को आत्महत्या करते देखकर परेशान और दुखी
हैं तो वहीं सरकार की मगरमच्छी योजनाएं, जिनमें बहुप्रचारित फसल बीमा योजना भी है,
उनके जले पर नमक छिडकने का काम कर रही हैं| पूरी दुनिया में भारत ही शायद एकमात्र
देश होगा जहां फसल के मुआवजे के तौर पर राज्य सरकारें एक या दो रुपये का भुगतान भी
डिजिटल करती हैं|
हड़ताल को मिलना चाहिए व्यापक जनसमर्थन
आम जनता के प्रत्येक तबके को 2 सितम्बर की हड़ताल को व्यापक समर्थन
देना चाहिए| श्रमिकों/कर्मचारियों के इस संघर्ष को आम लोगों का समर्थन सिर्फ इसलिए
नहीं मिलना चाहिए कि श्रमिक/कर्मचारी भी उनका हिस्सा है| बल्कि यह समर्थन इसलिए
मिलना चाहिए कि 2 सितम्बर की हड़ताल की 12 मांगों में महंगाई, बढ़ती साम्प्रादियक्ता,
पूरी तरह बेकाबू क़ानून व्यवस्था से लेकर वे सभी मुद्दे मौजूद हैं जो आम आदमी के
जीवन को दूभर कर रहे हैं| हमें आजाद भारत में पहली बार एक ऐसी सरकार मिली है जिसके
अभी तक के कार्यकाल ने ही आम लोगों के जीवन को आर्थिक-सामाजिक दोनों स्तरों पर
अराजक परिस्थितियों में डाल दिया है| जिस सुशासन की बात आम चुनावों के वक्त
प्रधानमंत्री करते थे, वह राजनीतिक जुमला था| सच्चाई दु:शासन बनकर आम लोगों पर
टूटी है| एक तरफ अल्पसंख्यक, दलित, आदिवासी सामाजिक रूप से पीड़ित, प्रताड़ित और
असुरक्षित महसूस कर रहे हैं तो दूसरी तरफ महंगाई प्रत्येक की थाली पर असर डाल रही
है| 2 सितम्बर की हड़ताल इसे ही आवाज देने के लिए है| इसे आम जनता के प्रत्येक तबके
से अपार समर्थन मिलना चाहिए|
अरुण कान्त शुक्ला
1 सितम्बर, 2016
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