स्वतन्त्र भारत के इतिहास में शायद ही किसी वित्तमंत्री या उसके विभाग को बजट में किये गए प्रस्तावों में से किसी एक पर इतने स्पष्टीकरण देने पड़े होंगे, जितने अरुण जेटली और उनके वित्त मंत्रालय को कर्मचारी भविष्य निधी के 60% जमा हिस्से को आयकर के दायरे में लाने पर देने पड़ रहे हैं| जाहिर है, वित्तमंत्री और उनका मंत्रालय उनके इस कदम पर जितने भी तर्क दे रहे हैं, वे इतने बेदम हैं कि उनमें से एक भी किसी के गले उतरने वाला नहीं है|
सामाजिक सुरक्षा योजना बनाम अनिवार्य बचत योजनाओं की सच्चाई-
भारत में यह एक कड़वी
सच्चाई है कि वह चाहे संगठित क्षेत्र के श्रमिक, कर्मचारी हों अथवा असंगठित
क्षेत्र के, उनका वेतन कभी इतना नहीं रहा कि वे अपने जीवन की रोजमर्रा की
आवश्यकताओं, आकस्मिक जरूरतों और पारिवारिक तथा सामाजिक जिम्मेदारियों का निर्वाह
करते हुए स्वयं होकर भविष्य अथवा वर्तमान की किसी सुरक्षा के लिए अपने वेतन का 8
से लेकर 12 प्रतिशत तक हिस्सा किसी भी बचत योजना में बिना अपनी रोजमर्रा की
आवश्यकताओं में कटौती किये लगा सकें| यह बात कर्मचारी भविष्य निधी से लेकर अन्य हर
तरह की बचत योजना पर लागू होती है| इस बात की पुष्टी के लिए एक ही उदाहरण काफी है,
सरकार यदि आज जीवन बीमा, आमबीमा, चिकित्सा बीमा और इससे जुडी सभी योजनाओं से आयकर
की छूट समाप्त कर दे तो सारी बीमा कंपनियों का व्यवसाय केवल अति संपन्न तबके तक सिमिट
कर रह जाएगा और उच्च मध्य वर्ग तक के लोग
बीमा से किनारा कर लेंगे| इसकी पुष्टी इस तथ्य से भी होती है कि हमारे देश में
लगभग 57 करोड़ लोग ऐसे हैं जो बीमा के योग्य हैं,पर, सभी जीवन बीमा कंपनियों का
व्यक्तिगत जीवनों पर बीमाधारकों की संख्या पांच करोड़ से उपर नहीं है| इसका अर्थ है
कि बीमा के योग्य होने के बावजूद बीमा इसलिए नहीं है क्योंकि उसे खरीदने की ताकत
बाकी लोगों में नहीं है|
श्रमिक/कर्मचारी के
वेतन के कुछ हिस्से को इसीलिये उनकी भविष्य की जरूरतों और सुरक्षा की दृष्टि से
बचत में डालना अनिवार्य किया गया| पूंजीवादी व्यवस्था के होने के बावजूद, इस
सच्चाई को महसूस किया जाता रहा कि नियोक्ता/मालिक से श्रमिक/कर्मचारियों को कभी भी
श्रम का उचित (पूरा) मूल्य नहीं मिलता है| इसीलिये, नियोक्ता/मालिक को भी कर्मचारी
भविष्य निधी में कर्मचारी के लिए तय न्यूनतम अंशदान के बराबर की राशी जमा करने की
बाध्यता रखी गई| श्रमिक/कर्मचारी के द्वारा कर्मचारी भविष्य निधी में जमा राशी कभी
भी उनकी आय का हिस्सा नहीं रही, इसीलिये उसे इस अंशदान पर आयकर से छूट भी मिली और
नियोक्ता को भी तय मानदंडों के अनुसार उस एकत्रित कोष को निवेश करके आय करने की छूट
रही, जिसका एक हिस्सा ब्याज के रूप में जमा राशी पर दिया जाता रहा है| इस पूरे
मायाजाल का एक दिलचस्प पहलू और है| नियोक्ता/मालिक कर्मचारी भविष्य निधी में दिए
गए उनके योगदान के लिए उसी प्रकार आयकर में छूट प्राप्त करते हैं, जैसे श्रमिक
कर्मचारी को मिलती है| अब यदि उस एकत्रित कोष, जिसका प्रबंधन भविष्य निधी के लिए
बनाया गया ट्रस्ट करता है, के 60% हिस्से पर आयकर लगाया जाता है तो
श्रमिक/कर्मचारी उस मूल हिस्से और उसके ब्याज पर भी आयकर देंगे, जिस पर
नियोक्ता/मालिक आयकर की छूट प्राप्त कर चुका है| याने अपने जिस हिस्से पर कर्मचारी
को आयकर की छूट मिली थी, उस पर तो वह आयकर देगा ही,साथ ही उस हिस्से पर भी आयकर
देगा जिसकी छूट नियोक्ता/मालिक ले चुका है| यह घालमेल कितना अनैतिक है, यह बताने
की आवश्यकता नहीं है|
नीयत में खोट है-
सर्वप्रथम, हम बजट
भाषण में कही गई इस बात को लेते हैं कि ये प्रस्ताव 1 अप्रैल 2016 के बाद जमा किये
गए अंशदान पर लागू होगा| यह सीधे सीधे
श्रमिकों/कर्मचारियों में भेद करके उनकी एकता को तोड़ने वाला प्रस्ताव है| वे
श्रमिक/कर्मचारी जो आनेवाले कुछ वर्षों में सेवानिवृत होने वाले हैं, यह सोचकर
प्रस्ताव का विरोध करने में ढीले पड़ सकते हैं कि यह सरदर्द तो पिछले कुछ वर्षों
में नौकरी पर आये तथा भविष्य में कामगार दुनिया में प्रवेश करने वालों का है
क्योंकि उनको ही बड़ा नुकसान होगा| चूँकि, उन्हें (पुराने कर्मचारियों को) हानी का
बड़ा हिस्सा नहीं झेलना है, अतएव वे क्यों पचड़े में पड़ें? अब यह किसी से छुपा नहीं
है कि श्रम नियमों में सुधार मोदी सरकार का सबसे बड़ा एजेंडा है और इसके लिए
विभाजित श्रम समुदाय सरकार को चाहिए, उसी अनुरूप ये प्रस्ताव भी है|
दूसरी बात,
वित्तमंत्री का मुस्कराते हुए यह कहना है कि इस प्रस्ताव से यह फ़ायदा होगा कि निजी
कंपनियों के कर्मचारी अथवा वे श्रमिक/कर्मचारी जो किसी पेंशन योजना के सदस्य नहीं
हैं, उस 60% हिस्से को किसी बीमा कंपनी के एन्युटी (पेंशन) योजना में लगाकर स्वयं
के लिए नियमित पेंशन का इंतजाम कर सकते हैं| यह सीधे सीधे बीमा कंपनियों के माध्यम
से शेयर बाजार के जुआरियों के पास श्रमिक/कर्मचारियों की पेट काटकर की गई बचत को
पहुंचाना है| यह सभी जानते हैं कि सरकार की शेयर मार्केट से जुड़ी कर्मचारी पेंशन
योजना का पहले से ही श्रमिक/कर्मचारी विरोध करते आ रहे हैं, जहां उनका पैसा सदा
जोखिम में रहता है| कुल मिलाकर संपन्नों के ऊपर हाथ डालने से हमेशा ही डरने वाली
सरकार (चाहे वह कोई भी सरकार हो) वैश्विक मंदी में देशी/विदेशी कारपोरेट को पूंजी
मुहैय्या कराने के लिए श्रमिक/कर्मचारियों की जीवन भर पेट काटकर की गयी बचत पर
सेंधमारी कर रही है| बेहतर यही है कि यह श्रमिक/कर्मचारी पर छोड़ दिया जाना चाहिए
कि वह किस तरह अपनी गाढ़ी बचत का उपयोग/निवेश करना चाहता है|
देश की सामाजिक परिस्थितियों के बारे में समझ की कमी-
सरकारें जब कभी भी
गरीब-गुरबा, श्रमिक/कर्मचारी/किसानों के बारे में इस तरह के घड़ियाली प्रस्ताव लेकर
आती है तो अक्सर कहा जाता है कि एयर-कंडीशन में बैठकर प्रस्ताव बनाते समय सरकार के
मुखियाओं और अधिकारियों को देश में व्याप्त सामाजिक सच्चाई का कोई ज्ञान नहीं
होता| वित्तमंत्री का कर्मचारी भविष्य निधी के 60% हिस्से पर आयकर लगाने का
प्रस्ताव उस धारणा को एक बार पुन: पुष्ट करता है| आज के सामाजिक हालात की सच्चाई
यह है कि एक नवजवान की आयु पढ़ाई पूरी करके किसी स्थायी प्रकृति के रोजगार में लगते
लगते 35वर्ष के आसपास हो जाती है और जब उसके रोजगार से सेवानिवृत होने की आयु
आयेगी/आती है तब उसके बाल बच्चे रोजगार की बात तो दूर पढ़ाई भी पूरी नहीं कर पाते
हैं या कर पायेंगे| यह वह समय होता है जब उसके समक्ष स्वयं के लिए घर, बच्चों की
पढ़ाई (उच्च शिक्षा), शादी के अलावा अन्य तरह की सामाजिक जिम्मेदारियां मुंह बाए
खड़ी होती हैं या होंगी| इन सबसे निपटने के लिए उसे एकमुश्त बड़ी धनराशी की जरुरत
होती है और वह पूरी तरह भविष्य निधी की अपनी जमा राशी पर ही निर्भर रहता है, जिसे
वित्तमंत्री बजट प्रस्तावों के जरिये शेयर बाजार के लुटेरों के हवाले करना चाहते हैं|
इस क्रूर सामाजिक सच्चाई से सैकड़ों करोड़ की दौलत रखने वाला वित्तमंत्री भिज्ञ नहीं
हो सकता, समझ में आता है| पर, प्रधानमंत्री क्यों नहीं समझ रहे, यह समझ से परे है!
अरुण कान्त शुक्ला
4मार्च, 2016
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