मोदी के
लिए समय माँगने वालों के लिए ...
समय तो कार्यों के मूल्यांकन के लिए चाहिए
होता है| कार्य तो अभी वे ही हो रहे हैं जो
मनमोहनसिंह ने अधूरे छोड़े थे
और जिन्हें कारपोरेट पूरे कराना चाहता था | उनका
(कार्यों का) मूल्यांकन
तो पिछले तीन दशक से हो रहा है और 1991 के
बाद भारत में बना हर प्रधानमंत्री
उन कार्यों के बदौलत आलोचनाओं के घेरे में रहा है| वर्तमान में
तो बातों की सत्यतता घेरे में है|
वैसे तो समीक्षा
और आलोचना लेखन से जुड़ी
शब्दावली है..व्यक्ति के मामले में यदि
कुछ व्यक्त होगा तो उसके कार्यों
के मूल्यांकन में हो
सकता है| वैसे आपको एक बात बता दूं कि यदि लेख, उपन्यास, कहानी
कविता एकदम निकृष्ट हो तो समीक्षा स्वयंमेव आलोचना जैसी
लगने लगती है| वैसे ही यदि कोई भी व्यक्ति यदि आदतन
झूठ बोलने वाला हो तो
उसकी बातों का मूल्यांकन आलोचना लगने लगेगा और मूल्यांकन करने वाला आलोचक| समालोचक
भी खराब लेखन की समालोचना करते समय आलोचक जैसा लगेगा, उस खराब लेखक और उसके पाठकों को| उदाहरण
..आदरणीय नामवर जी बहुत सम्माननीय समालोचक
हैं..(मैं नहीं जानता कि आपने उनका नाम भी सुना है या नहीं) यदि उन्हें
दुर्भाग्यवश समीर, गुलशन
नंदा, शिवानी , इब्ने
सफी, सुरेन्द्र मोहन पाठक, केशव
पंडित के लेखन की समीक्षा करनी पढ़े तो इन महान लेखकों और उनके समझदार
पाठकों को नामवर भी एक घटिया आलोचक लगेंगे|
यही व्यक्ति के कार्यों के
मूल्यांकन में लागू होता है| जब
मनमोहनसिंह भारत के प्रधानमंत्री थे, उनके
भी कार्यों का मूल्यांकन होता था, बहुतों
के दुर्भाग्य से केवल उनकी नीतियों
और लागू करने में उनसे हो रही गलतियों का और बड़े बड़े कठिन अवसरों पर
भी मौन रखे रहने का| उनके झूठ
बोलने का मूल्यांकन करने की आवश्यकता कभी पड़ी
नहीं| अब यह और भी दुर्भाग्य है कि उस पद पर
आने के पहले से ही किसी व्यक्ति
के बढ़ चढ़ कर बोलने (मैंने कभी फेंकू शब्द का इस्तेमाल नहीं किया है, इसलिए
आज भी उससे बच रहा हूँ) और असत्य बोलने और उनके ज्ञान पर लोगों को
टिप्पणी करनी पड़ रही है| एक
उदाहरण देता हूँ..मोदी जी ने बच्चों को संबोधित
करते हुए कहा कि जापान में पेरेंट्स बच्चों को कार या दूसरे साधनों से
छोड़ने के लिए स्कूल नहीं जाते हैं , बल्कि
सडक के किनारे 25-25 कदम पर खड़े
रहते हैं और बच्चों को एक दूसरे के हवाले करते हुए स्कूल तक पहुंचा देते
हैं| इस तरह सभी बच्चों को अपना समझने और
समानता की भावना विकसित होती है| उनके
इस कमेन्ट का मुझसे कई लोगों ने उल्लेख किया| यह
सही है कि लगभग 25 वर्ष पहले तक जापान में प्रायमरी स्कूल
के लगभग 60%विद्यार्थी स्कूल स्वयं
पैदल अथवा अपने दोस्तों या अभिभावकों के साथ जाया करते थे| पर
वैसे कभी नहीं जैसा मोदी जी ने बताया कि सडक
के किनारे लाइन लगाकर 25-25 कदम
पर खड़े हो गये और बच्चों को स्कूल छोड़ा| आप
सोचिये इसमें कितना समय लगेगा और वे
पेरेंट्स अपने कार्य पर कब जायेंगे? आज
जापान में पैदल स्कूल वे ही जाते हैं, जिनका
स्कूल बिलकुल नजदीक होता है| और
अधिकाँश बच्चे सार्वजनिक वाहन, स्कूल वाहन या
परिवार की कार, स्कूटर से स्कूल जाते हैं| इस बात की सत्यता इस
लिंक पर जानी जा सकती है| http://en.wikipedia.org/wiki/School_run
जिस समय जापान में बच्चे पैदल अकेले
या पेरेंट्स के साथ जाते थे, भारत
में भी वैसा ही होता था और उनका प्रतिशत निश्चित रूप से जापान से अधिक
ही था| तब
स्कूल जाने वाले छात्रों की संख्या कम होती
थी, ट्रफिक कम होता था और बच्चों के साथ
अपराध भी कम होते थे और शिक्षा सार्वजनिक क्षेत्र में ही होती थी, उसका व्यवसायीकरण
नहीं होता था| आज भी ग्रामीण भारत में बच्चे स्कूल
पैदल या साईकिल पर ही जाते हैं| कुछ
भी लच्छेदार तरीके से बोल देना एक कला है तो उस पर
बिना विचार किये, अपनी बुद्धि को ताक पर रखकर विश्वास
करना अंधभक्त का काम
है| निश्चित ही इससे उनके भक्तों और
समर्थकों को अस:ह पीड़ा तो होगी ही और
उनके पास इसके अतिरिक्त कोई चारा नहीं है कि वे समालोचक या मूल्यांकन करता
को ही अंध आलोचक ठहरा दें, जो
वे अभी कर रहे हैं| या
फिर अभद्रता और अपशब्दों
से उसे नवाजें, जो वे कर भी रहे हैं या फिर कुतर्कों
की बाढ़ लेकर उसके
पीछे पड़ जायें, जो वे कर भी रहे हैं| उनके
अंधभक्तों और समर्थकों से मुझे
सुहानाभुती है और उनको हो रही पीड़ा के लिए मुझे खेद है|
अरुण कान्त शुक्ला,
7/9/2014
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