Monday, September 10, 2012

व्यवस्था और व्यक्तियों की आलोचना को देश तक मत ले जाओ ..



व्यवस्था और व्यक्तियों की आलोचना को देश तक मत ले जाओ ..

त्रिवेदी के कार्टून बहुत पहले मैंने कार्टून अगेंस्ट करप्शन  पर देखे थे और उस समय भी दो कार्टून पर मैंने एतराज किया था एक जिसमें भारत माँ की तस्वीर बनाकर राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों और कार्पोरेट्स को रेप करने के लिए कहता दिखाया गया है और दूसरा अशोक स्तंभ वाला

ये सच है कि राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों, और कार्पोरेट्स ने जिस स्थिति में देश को
पहुंचाया है, वह देशवासियों के बहुसंख्यक हिस्से को उद्वेलित कर रहा है, पर, ये तो स्वयं को विचारवान कहते हैं और मानते हैं, क्या इन लोगों को देश के प्रतीकों और चलाने वाले व्यक्तियों और देश में चल रही व्यवस्था के बीच अंतर करने का भी शऊर नहीं है?

मुझे तभी लगा था कि आज नहीं तो कल त्रिवेदी की इस करतूत पर किसी न किसी का ध्यान जाएगा और फिर त्रिवेदी को  देशद्रोह में धरा जाएगाआखिर जिस व्यवस्था में हम रह रहे हैं, उसमें ये  उम्मीद आप कैसे कर सकते हैं कि वह आप को अपने प्रतीकों के साथ, चाहे वे कितने भी खोखले क्यों न हो गए हों, कोई भी खिलवाड़ करने देगी

त्रिवेदी, इस देश के एकमात्र, पहले और सबसे अधिक बड़े कार्टूनिस्ट नहीं हैं इससे पहले भी बड़े बड़े कार्टूनिस्ट हुए हैं और उनमें से अनेक राजनीति से भी जुड़े रहे उनके कार्टून भी राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों और कार्पोरेट्स को तिलमिलाते रहे हैं उनमें से अनेक ने प्रताड़नाएं भी झेली हैं, पर, प्रतीकों  के साथ उन्होंने खिलवाड़ किया हो, ऐसा मामला कभी सामने नहीं आया

इस देश के अंदर ऐसे बहुत से लोग हैं, जो, वर्त्तमान संविधान के अनेक प्रावधानों को नहीं मानते और पहला अवसर मिलते ही उनमें परिवर्तन चाहेंगे और वह भी इस देश की दबी कुचली जनता के पक्ष में  क्या वे सब संविधान को इसी  तरह अपमानित करें? फिर, आपकी लड़ाई क्या संविधान के खिलाफ है?

भूलो मत कि आज जो भी आधे अधूरे और टूटे फूटे अधिकार इस देश के 80 करोड़ बेचारगी झेल रहे लोगों को प्राप्त हैं, उसी संविधान के तहत हैं उन्हें वो प्यारा है क्योंकि, वो उनकी झूठी और दिखावटी ही सही, पर, आजादी का प्रतीक है, जिसके लिए उन्होंने और उनके पुरखों ने जानें गंवाईं हैं और त्याग किये हैं  

उससे भी बड़ी बात कि क्या आप किसी व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई में जुटे हैं  नहीं, सारे आंदोलनों और अब तक की उठापठक का एक ही सार निकला है कि आप उसी  मैदान के खिलाड़ी बनाना चाहते हैं शायद दूसरों की तुलना में कुछ कम बुरे  फिर, राष्ट्र के प्रतीकों के साथ खिलवाड़ क्यों?

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, निश्चित रूप से पूंजीवादी लोकतंत्र में एक बड़ा अधिकार है, जनता के पासपर किसी भी देश में, ये कभी भी निरापद रूप से प्राप्त नहीं हुआ हैये पूंजीवादी व्यवस्था का सोने का वो गहना है, जिसमें हमेशा तांबा (खोट) ज्यादा रहता है उस आधे अधूरे अधिकार को भी आप यदि बुद्धिमानी से अपने पक्ष में इस्तेमाल नहीं कर सकते तो सोचिये आप इस देश के आमजनों का हित कर रहे हैं या अहित

यह किसी विडंबना है कि व्यवस्था के खिलाफ लड़ने वाले बस्तर के अनेक आदिवासी नेताओं पर , जिनमें महिलाएं भी शामिल हैं , देशद्रोह के आरोप लगते हैं, जिन्होंने कभी भी देश के खिलाफ कोई  काम नहीं किया है और वे सारे जुल्मों का मुकाबला कर रहे हैंपर, उन्होंने व्यवस्था को ललकारने के बाद भी देश के प्रतीकों के साथ कभी खिलवाड नहीं किया

विनायक सेन दो साल अंदर रहते हैं रमेश अग्रवाल को गोली मारी जाती है इनमें से कोई भी हाय तौबा नहीं मचातावे अपने संघर्ष में लगे रहते हैं पर, उनमें से किसी ने भी देश के प्रतीकों के साथ खिलवाड़ नहीं किया है

व्यवस्था के साथ संघर्ष बंदरों की तरह उछल कूद  करने और सियारों जैसे चिल्लाने से नहीं किया जाता, उसमें अपने उद्देश्य के प्रति गंभीरता का अहसास होना चाहिये .. जो अन्ना और रामदेव दोनों के आन्दोलनों से गायब है

भगत सिंह के रास्ते पर चलने का दम भरने भर से कुछ नहीं होता, उसमें भगत सिंह की वैचारिकता, सहन शक्ति और गंभीरता भी चाहियेपहले देश का सम्मान करना सीखोव्यक्तियों का असम्मान करते करते  देश के असम्मान की तरफ नहीं बढ़ो

व्यवस्था और व्यक्तियों की आलोचना को देश तक मत ले जाओ ..!                     


अरुण कान्त शुक्ला                                                     10,सितम्बर,2012
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