Friday, May 13, 2011

ममता को मिला काँटों भरा ताज --


ममता को मिला कांटो भरा ताज –

पश्चिम बंगाल में जिस लड़ाई को कांग्रेस ने हताश होकर छोड़ दिया था , उसी लड़ाई को कांग्रेस के जरिये राजनीति में आई तेज तर्रार नेता ममता बनर्जी ने दो दशक से अधिक समय तक अपने दम पर लड़ा और आज वह लड़ाई अपने अंजाम पर पहुँच चुकी है | पश्चिम बंगाल की जनता ने पिछले 34 वर्षों से जिस वामपंथी गठबंधन को भरपूर समर्थन देकर राज्य की सत्ता में बनाए रखा था और 2006 के पिछले चुनावों में ही जिस गठबंधन को 235 सीटों का रिकार्ड बहुमत दिया था , उसी गठबंधन को सिर्फ पांच साल बाद सत्ता से उतारकर , 2006 में मात्र 30 सीटें पाने वाली तृणमूल कांग्रेस को दो तिहाई बहुमत से जिताकर ममता के माथे पर काँटों भरा ताज रख दिया है |

पश्चिम बंगाल का राजनीतिक और आर्थिक परिदृश्य देश की स्वतंत्रता के पश्चात से ही अन्य राज्यों से भिन्न रहा है | आजादी के समय हुए विभाजन की विभीषका को , पंजाब छोड़कर , इस राज्य ने जितना भुगता है , भारत में अन्य किसी राज्य को नहीं भोगना पड़ा | 1947 और फिर 1971 में लाखों की संख्या में प्रदेश में आये शरणार्थियों की समस्याओं से जूझते इस राज्य को राजनीतिक और आर्थिक रूप से स्थायित्व का दौर अगर कोई दे पाया तो वह 1977 के बाद वाममोर्चा के शासन काल के दौरान ही मिला | जून 1977 में आपातकाल के हटने के बाद देश में परिवर्तन की जो लहर चली तब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में वाममोर्चा की सरकार बनी , जिसने लगातार 34 वर्षों तक पश्चिम बंगाल में शासन किया | जबकि उसी लहर में अन्य राज्यों और केन्द्र में बनी सरकारों का क्या हश्र हुआ , यह सभी जानते हैं | नक्सलवादी आंदोलन , बिजली संकट , चेचक , हडतालों , किसानों की गिरी हुई हालत और लगभग ठहरी हुई (stagnated) अर्थव्यवस्था में सुधार लाने के जिम्मेदारी को ज्योति बसु के नेतृत्व में वाममोर्चा ने बखूबी अंजाम दिया | पश्चिम बंगाल ही एकमात्र ऐसा राज्य है , जहां वाममोर्चा की सरकार के नेतृत्व में भूमी सुधार लागू किये गये और हर जोतने वाले को कृषि भूमी प्रदान की गयी | लोकतांत्रिक पंचायत व्यवस्था , राज्य के कामगारों और कर्मचारियों को जनवादी अधिकार , साम्प्रदायिकता पर कड़ाई से नियंत्रण और सबसे ऊपर राज्य को आर्थिक विकास के रास्ते पर डालने का सबसे बड़ा काम वाममोर्चा ने ही किया | 1947 से 1977 के बीच जहां राज्य में तीन बार राष्ट्रपति शासन लगा और राज्य ने सात मुख्यमंत्री देखे , वहीं 1977 से लेकर अभी तक सिर्फ दो मुख्यमंत्रियों ने प्रदेश के कामकाज को सम्भाला है | बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक के उस दौर में भी जब विश्व के मानचित्र पर समाजवादी देश एक के बाद एक ढेर हो रहे थे और अनेक देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपने नाम तक बदल लिये थे , पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे का शासन , अपने कार्यों और जनता के साथ अपने जुड़ाव के चलते निर्बाध चलते रहा था |

वाममोर्चे के ऊपर अपनी नीतियों में समयानुकूल परिवर्तन करने का दबाव तब बढ़ा , जब भारत के शासक वर्ग ने 1991 में भूमंडलीकरण और उदारवाद के रास्ते पर चलना शुरू किया और देश में निजीकरण के रास्ते औद्योगिक विकास को तेज करने को प्राथमिकता दी जाने लगी |  सन 2000 हजार में वाममोर्चे ने स्वयं को बदलने की प्रक्रिया में विशेष आर्थिक जोन की प्रक्रिया की शुरुवात राज्य में की और टाटा जैसे उद्योगपति को राज्य में कार कारखाना लगाने के लिये न्यौता दिया | पर , एक ऐसे राज्य में जहां वाममोर्चे का पू़रा आधार ही भूमी सुधार और पंचायती राज पर निर्भर था , किसानों से जमीन अधिग्रहित करना आसान नहीं हो सका और इस तरह के औद्योगिक विकास के विरोध के बिना पर ममता बनर्जी तेजी के साथ राजनीतिक ध्रुव पर छा गईं | वाममोर्चे की दूसरा झटका वर्ष 2008 में केन्द्र सरकार से समर्थन वापस लेने से लगा | अमेरिका के साथ जिस न्यूक्लियर डील को लेकर वाममोर्चे ने केन्द्र से समर्थन वापस लिया , न तो उस मुद्दे को वाममोर्चा 2009 के 15वीं लोकसभा के लिये हुए आम चुनावों में प्रमुख  मुद्दा बना सका और न ही उतनी क्षमता के साथ जनता के मध्य ले जा सका | जबकि , उस दौर में जनता बढ़ती हुई कीमतों और विशेषकर खाद्यान्न की बढ़ती कीमतों से अत्याधिक परेशान थी और उसे लगता था कि सीपीएम सरकार को समर्थन दे रही है लेकिन महंगाई के मामले में सरकार के ऊपर कोई भी दबाव डालने से बच रही है | इसका नतीजा उसे लोकसभा चुनावों में भुगतना पड़ा , जहां सीपीएम सिमटकर 16 तथा वाममोर्चा सिमटकर 24 पर रह गया | एक प्रकार से उसी समय वर्तमान विधानसभा चुनावों के नतीजों की भविष्यवाणी हो चुकी थी |

मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने इस हार को स्वीकार करते हुए कहा है कि लोग परिवर्तन चाहते थे और इस चाहत का फायदा तृणमूल और कांग्रेस को गया है | निश्चित रूप से , जैसा कि अमूमन सभी राजनैतिक दल करते हैं , सीपीएम और वाममोर्चा भी इस हार या इस कदर बुरी हार के कारणों का विश्लेषण आने वाले दिनों में करेगी | पर, शायद यह मामला केवल इतना नहीं है कि जनता ने परिवर्तन चाहा , मात्र इसीलिये , जिस मोर्चा को 2006 में तीन चौथाई से अधिक सीटें (50.18% मत) देकर जिताया था , उसे हटा दिया | जैसा कि , पूर्व लोकसभा अध्यक्ष और पार्टी के पूर्व वरिष्ठ नेता सोमनाथ चटर्जी ने कहा है वाकई पार्टी को गहन आत्ममंथन की जरुरत है |

एक समय था , जब ऐसा लगता था कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी देश में लोगों को एक मजबूत समाजवादी विकल्प देने में सक्षम होगी | लेकिन , पार्टी में आयी वैचारिक भ्रांति और सांगठनिक अधःपतन ने इस संभावना को फिलहाल पूरी तरह खत्म कर दिया है | इसकी संभावना निकट भविष्य में कम ही दिखती है कि यह पार्टी पश्चिम बंगाल में अपनी स्थिति में जल्द ही कोई सुधार कर पायेगी , जहां जनता के सेवक बुर्जुआ शासक की तरह आचरण करने में लग चुके थे | यहाँ तक कि पार्टी का परिशोधन (RECTIFICATION) कार्यक्रम भी बुर्जुआ तरीके से ही पार्टी में चलाया जा रहा है | केवल बंगाल , केरल और त्रिपुरा में ही नहीं , हिंदी राज्यों में भी , जहां पार्टी सांगठनिक और राजनीतिक , दोनों तरीके से कमजोर है , राज्यों के नेतृत्व में ऐसे लोग हैं , जिन्होंने आय से अधिक संपति खड़ी की है और जिनके खर्चे उनकी आय के अनुपात से अधिक हैं | स्वयं पार्टी के दस्तावेजों में स्वीकार किया गया है कि ऐसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने में पार्टी की समितियों में हिचकिचाहट देखी जाती है | पार्टी के नेतृत्व में काबिज नेता जनवादी केन्द्रीयता का मजाक बनाते हुए मार्क्सवाद के बजाय न केवल स्वयंवाद पर चलना पसंद करते हैं वरन उनके अंदर पार्टी के सदस्यों या निचली कमेटियों के सदस्यों के साथ नौकरशहाना व्यवहार करने , बुर्जुआ रहनसहन पद्धति अपनाने और मजदूर संगठनों में सदस्यों के साथ अधिकारियों जैसा व्यवहार करने की बुराईयां पूरी तरह घर कर चुकी हैं , जिनसे निकालने का कोई प्रयास सीपीएम कर रही है , ऐसा नजर नहीं आता | अब वो सब जो इसकी तरफ आशा लगाए देख रहे थे , ये ही उम्मीद कर सकते है कि परिस्थिति की वस्तुगत बाध्यता और निचले केडर से पहुंचा दबाव , शायद , इस पार्टी को पुनः वापसी कराने में सहायक हो तथा वो सपने पूरे हो सकें , जो भारत की जनता ने इसके साथ देखे थे |

इसका अर्थ कतई यह नहीं कि पश्चिम बंगाल में ममता का रास्ता आसान है | 18 मई को ममता एक ऐसे राज्य में मुख्यमंत्री की शपथ लेंगी , जिसकी जनता ने वामपंथ के साथ  वो 34 वर्ष गुजारे हैं , जहां उसने पाया ही पाया है , खोया कुछ भी नहीं | आज पश्चिम बंगाल को जिस चीज की सबसे ज्यादा जरुरत है , वह औद्योगिक विकास है | इसे , ममता को देश के अंदर जो नीतियां चल रही हैं , उन्हीं पर चलकर हासिल करना होगा | पश्चिम बंगाल का कृषि उत्पादन लगभग संतृप्ति बिंदु पर पहुँच चुका है | राज्य की बेरोजगारी से निपटने , आर्थिक ठहराव को रोकने और शहरों , नगरों और कस्बों , सबको विकास के रास्ते पर डालने का काम तभी किया जा सकता है जब राज्य में कारखाने खुलें , बिजली के लिये नए प्रोजेक्ट आयें , सड़कों का , बंदरगाहों , हवाई अड्डों का जीर्णोद्धार हो और इन सब के लिये जमीन की जरुरत पड़ेगी | ममता को जमीन के लिये उन्हीं किसानों के पास जाना पड़ेगा , जिन्हें वाममोर्चे ने ही माँ–माटी-मानुष की लड़ाई सिखाई थी और ममता ने उन्हें औद्योगिकीकरण के खिलाफ खड़ा किया था | पश्चिम बंगाल की जनता आजाद हो गयी है , जैसे नारों से कुछ देर के लिये समां बांधा जा सकता है , पर सचाई यही है कि पश्चिम बंगाल की जनता ने ममता को कांटो भरा ताज पहनाया है |

अरुण कान्त शुक्ला         
     

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