Tuesday, June 8, 2010

BHOPAL GAS KAND KA SABAK

भोपाल गैस कांड का सबक
भोपाल गैस कांड में न्यायविद मोहन पी तिवारी ने कोई भी अनेपक्षित फैसला नहीं सुनाया है विश्व की सबसे बडी औद्योगिक त्रासदी के दोषियों को ढूंढने उन्हें सजा देने के लिये जिस मजबूत विधिक बुनियाद की जरुरत होती है ,उस बुनियाद को केंद्र सरकार एवं म.प्र.की राज्य सरकार के इशारों पर सीबीआई ने प्रारम्भ में ही कमजोर कर दिया था जिन्हें कानून का तनिक भी ज्ञान है , वे पहले से ही जानते थे कि अपराध दंड सहिंता की जिन धाराओं में यह मुकदमा चल रहा है , उनमें दो साल से ज्यादा की सजा किसी को नहीं होगी यूनियन कारबाईड के अमेरिकी चेयरमेन वारेन एंडर्सन को सजा की बात तो कोई सोच भी नहीं सकता था दरअसल , जब भोपाल गैस कांड जैसी त्रासदियां होती हैं , जिनमें 15000 से ज्यादा लोग मारे जायें और पाँच लाख से ज्यादा लोग उसी समय प्रभावित हों तथा बाद की तीन पीडियां अभी तक उस त्रासदी के दंश को भोग रही हों , तब दोषियों को सजा मिलने से भी ज्यादा अहं होता है , लोगों को फौरी और दीर्घकालीन राहत का पर्याप्त बन्दोबस्त ताकि उन्हे महसूस हो कि राज्य व्यवस्था और न्यायपालिका उनके साथ है दुर्भाग्य से भोपाल गैस कांड के हजारों लाखों पीडितों के साथ इसके ठीक उलट हुआ और केंद्र तथा म.प्र.की सरकारों ने पीडितों का साथ देने के बजाय दोषी बहुराष्ट्रीय कंपनी का साथ दिया मैं 26 वर्ष तक चले इस मुकदमे के विवरण और इस दौरान घटी घटनाओं के क्रमिक विवरण में नहीं जा रहा हूँ क्योंकि उनका उल्लेख अनेकों बार अनेक तरह से हो चुका है मैं जिस बात पर जोर दे रहा हूँ , वह यह है , कि यूनियन कारबाईड के भोपाल कारखाने में मिथाईल आईसोसाइनेट नामक जहरीली गैस रिसने की घटना भले ही 26 वर्ष पूर्व हुई हो , पर इन 26 वर्षों में बीस वर्ष वे भी हैं , जिनके दौरान केंद्र में एक के बाद एक आई सरकारों ने न केवल भारत के आर्थिक तथा औद्योगिक जगत के दरवाजे ढेरों भीमकाय विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिये खोले हैं , बल्कि अमरीका के साथ ऐसे अनेक समझौते कृषि , उद्योग , व्यापार और सामरिक क्षेत्रों में किये हैं ,जो विशुद्ध रुप से अमरिका और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हितों को ही ज्यादा साधते दिखते हैं पर ,किसी भी सरकार ने एक बार भी भोपाल गैस त्रासदी के लिये जिम्मेदार यूनियन कारबाईड की आर्थिक जिम्मेदारी तय कराने के मामले को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रमुखता से उठाने की ज्ररुरत तक नहीं समझी वारेन एंडर्सन ,यूनियन कारबाईड के अमरिकी चेयरमेन के साथ केंद्र और म.प्र.सरकार का बर्ताव बडी नरमी का था , जबकि भारत में तकनीकि रुप से खराब मशीनें भेजने , प्लांट के रखरखाव और सुरक्षा सावधानियों की अनदेखी करने के लिये वही प्रमुख रुप से जिम्मेदार था उसे 7दिसम्बर,1984 को गिरफ्तार करने के पहले ही बता दिया गया था कि गिरफ्तारी नाटक है और उसे तुरंत जमानत पर छोड दिया जायेगा ऐसा किया भी गया जब भोपाल की अदालत ने लगातार कोर्ट में उपस्थित नहीं होने के कारण वारेन एंडर्सन को 1 फरवरी 1992 को भगोडा घोषित करके भारत सरकार से कहा कि वह अमेरिका से भारत लाने का प्रयास करे, तब अमेरिका के साथ प्रत्यार्पण संधि होने के बावजूद सरकार ने अमरिका और एंडर्सन को परेशान करना उचित नहीं समझा एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य कि गैस कांड त्रासदी के बाद पीडितों की तरफ से ढेरों मुकदमे दायर किये गये थे , जिन्हे मेनेज करना मुश्किल बताकर , सरकार ने एक कानून बनाया और खुद समस्त पीडितों की प्रतिनिधी बन गई तथा यूनियन कारबाईडसे 3.3 बिलियन $ डालर के कंपनसेशन की मांग की यूनियन कार्बाइड ने पहले 350 $ डालर देने की पेशकश की और अंतत: भारत सरकार ने न केवल 470$ डालर में समझौता कर लिया , बल्कि यूनियन कारबाईड को समस्त देनदारियों तथा आपराधिक मामलों से भी मुक्त कर दिया जनता की दुर्दशा और पीडाओं को ताक पर रखकर ऐसा समझौता करने वाली दुनिया में शायद ही कोई दूसरी सरकार हो
इस संक्षिप्त विवरण को देने का उद्देश्य यह था कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों तथा पश्चिमी देशों , विशेषकर अमरिका के प्रति भारत की केंद्रीय सरकार तथा राज्य सरकारों के रुख को हम अच्छी तरह समझ सकें भोपाल गैस त्रासदी के निष्कर्ष गम्भीर हैं पहला कि भारत की केंद्र सरकार और राज्यों की सरकारें भीमकाय बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के सामने बेबस और निरीह नजर आती हैं दूसरा यह कि पीडित जनताके गरीब और तबके की कोई भी सुनवाई न तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर है और न ही देशी सरकारें उनकी गुहार पर कोई कान देती हैं तीसरा कि किसी भी त्रासदी में समान रुप से पीडित होने के बावजूद संपन्न तबका अपनी पहुंच और प्रभाव के बल पर गरीब और वंचित तबके की तुलना में हमेशा बेहतर मुआवजा प्राप्त करता है
आज ,जबकि देश की सरकारें जनता के वंचित तबके के प्रति अपने उत्तरदायित्व से लगातार हाथ खींचते जा रही हैं , उपरोक्त तीनो तथ्य बहुत अधिक सामयिक हैं और जनता के लिये उनमें सबक है कि वह किस हद तक सरकारों पर भरोसा कर सकती है विशेषकर , जब , पिछले 26 वर्ष में से 11 वर्ष मनमोहनसिंह ही भारत में वित्तमंत्री और प्रधानमंत्री रहे हैं यह भी गौर करने लायक है कि मनमोहनसिंह के वित्तमंत्री रहते हुए ही भारत सरकार के द्वारा मांगा गया 3.3 बिलियन $ डालर का मुआवजा 470 मिलियन $ डालर हो गया था किसी भी देश की सरकार का कर्तव्य है कि वह देशवासियों के हितों के अनुरुप व्यवहार अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से करे , किंतु रीगन और थेचर के सिखाये उदारवादी रास्ते पर चलकर तो यह होने से रहा अब मनमोहनसिंह एक ऐसा नाभकीय क्षतिपूर्ति विधेयक लागू कराना चाहते हैं , जिसमें सारी जिम्मेदारी वह अपने और भारतीय आपरेटर के सिर ले रहे हैं याने यूनियन कारबाईड से तो मुआवजा मांगने की जहमत उठानी पडी थी , अब वे उससे स्वयं को तथा विदेशी रिएक्टर आपूर्तिकर्ताओं पूरी तरह मुक्त करना चाहते हैं यहाँ तक कि कोई विदेशी रिएक्टर आपूर्तिकर्ता यदि दोषपूर्ण और घटिया उपकरणों की सप्लाई भी करता है , तब भी उस पर कोई कानूनी देनदारी या जिम्मेदारी नहीं होगी जनहानी , पर्यावरण और अन्य सभी तरह के नुकसानों के लिये वो केवल 30 करोड यूएस डालर (2142.85 करोड रुपये) का प्रबंध कर रहे हैं अमरिका में वहां का कानून प्राईस-एंडर्सन एक्ट 10 अरब डालर ( 45000 करोड रुपये से ज्यादा ) , याने भारत से 23 गुणा ज्यादा ,की जिम्मेदारी तय करता है मनमोहनसिंह का अमरिकावाद केवल भारत के संपन्नों के लिये है , आमजनों के लिये नहीं
जिन्हें सजा सुनाई गयी , वे मोहरे हैं अदालत ने एक शब्द भी वारेन एंडर्सन के लिये नहीं कहा जैसी की न्याय व्यवस्था है , जिन्हे सजा सुनाई गई , उन्हें तुरंत जमानत भी मिल गई अपील होगी , अपील के बाद क्या होगा , फिलहाल कोई नहीं बता सकता फैसले से पीडित तबका छला गया है और नाखुश है यूनियन कारबाईड पर किया गया पाँच लाख का जुर्माना पूरी दुनिया में भारत की उस हैसियत की खिल्ली उडा रहा है , जिसका गुणगान करते मनमोहनसिंह और उदारीकरण के समर्थक थकते नहीं हैं सचाई यही है कि नाभकीय दुर्घटना की स्थिति में भारत सरकार बोझ नहीं उठा सकती जनता को दबाव बनाना होगा ताकि भारत सरकार नाभकीय क्षतिपूर्ति विधेयक में आमूलचूल परिवर्तन के लिये बाध्य हो
अरुण कांत शुक्ला

No comments: