Friday, February 10, 2023

बजट के बारे में : बजट से इतर

बजट के बारे में बजट से इतर बात यह है कि देश के आम लोगों की प्राथमिकताएं नीति आयोग में बैठे अर्थशास्त्रियों और वित्त मंत्रालय में बैठे उन उच्च अधिकारियों की प्राथमिकताओं से एकदम भिन्न हैं जो साल दर साल यह तय करते हैं कि सरकार के पास रुपया आयेगा कहाँ से और रुपया बटेगा किसे? याद करें कि बजट के ठीक पहले जब खबरिया चैनल्स के एंकर हाथ में माईक लेकर बाजार हाट में लोगों से पूछ रहे थे कि वे बजट में क्या चाहते हैं तो गृहणियां मंहगाई कम होनी चाहिए बोल रही थीं तो युवा रोजगार के अवसर बढ़ने चाहिये कह रहे थे वृद्धजनों को दवाईयों की कीमतों और स्वास्थ्य सेवाओं के सस्ते होने की फ़िक्र थी पर, क्या यह बजट जिसे अपने भाषण के दौरान वित्तमंत्री निर्मला सीथारमण ने अनेक बार अमृतकाल का पहला सप्तऋषी बजट कहकर पेश किया गया है, आम लोगों की उन प्राथमिकताओं को पूरा करता है?

वित्तमंत्री ने जिन वस्तुओं के सस्ते होने की संभावना व्यक्त की है उनमें से किसी का भी आम आदमी के रोजमर्रा जीवन से कोई सीधा संबंध नहीं है मसलन, मोबाईल पार्ट्स और टेलीविजन के ओपन सेल के कलपुर्जों पर कस्टम ड्यूटी घटाई गयी है टीव्ही पर आयात शुल्क कम होगा, उसके सस्ते होने की संभावना है रबर पर ड्यूटी कम होने से खिलौने, साईकिल, आटोमोबाईल सस्ते हो सकते हैं वैसे यदि अभी तक के बजटों में जब कभी भी इस तरह कस्टम ड्यूटी या आयात शुल्क या अन्य कोई भी टेक्स कम करके चीजों के सस्ते होने का सब्जबाग दिखाया गया है तो अनुभव तो यही कहता है कि वह सब्जबाग ही होता है और उसका कोई भी लाभ उपभोक्ता तक नहीं पहुँच पाता है स्वयं नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश की 25% आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करती है याने हर चौथा भारतीय गरीब हैपर, समय समय पर आने वाली वैश्विक रिपोर्ट और नीति आयोग की रिपोर्ट की बात को छोड़ भी दें तो स्वयं हमारे प्रधानमंत्री गर्व से बार बार बताते हैं कि वे देश के 81 करोड़ गरीब लोगों को मुफ्त 5 किलो राशन पिछले 2 साल से दे रहे हैं और यह विश्व की सबसे बड़ी खाद्यान सहायता योजना है अब जिस महंगाई के कम होने की राह यह देख रहे होंगे, उसे तो इस बजट में छुआ भी नहीं गया है

भारत में मध्यम वर्ग कितना विशाल है, जिसका उदाहरण अनेक बार प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री सहित सरकार से लगभग सभी जनता से दो चार होने वाले नुमाइंदे करते रहते हैं और उसके बारे में कितनी चिंतित यह सरकार है, वह भी जान लेते हैं पिछले वर्ष लगभग मई माह के अंत में ‘प्रधानमंत्री को सलाह देने वाली आर्थिक सलाहकार परिषद’ के अध्यक्ष बिबेक देबरॉय ‘भारत में असमानता की दशा’ पर एक रिपोर्ट प्रधानमंत्री कार्यालय को सौंपी थीरिपोर्ट के अनुसार यदि कोई भारतीय 25000/- रुपया प्रति माह या वर्ष भर में 3 लाख रुपया कमा रहा है तो वह उन 10% भारतीयों में से एक है जो उच्चतम वेतन अर्जित करते हैं इसका सीधा मतलब था कि देश के 90% लोग 25000/- रूपये प्रतिमाह भी नहीं कमाते हैं यह रिपोर्ट लोगों के आय विवरण, बाजार में श्रम की उपयोगिता, लोगों के स्वास्थ्य, शिक्षा और घरेलू सुविधाओं और स्थिति के आधार पर समाज में कितनी आर्थिक असमानता मौजूद है उस पर न केवल प्रकाश डालती है, अंत में यह भी बताती है कि वर्ष 2017-2018 से 2019-2020 के मध्य किस तरह समाज के उच्चतम 1% की आय 15% बड़ी, जबकि उसी दौरान नीचे के 10% की आय 1% कम हुई रिपोर्ट में अंत में सुझाव दिया गया था कि इस असमानता को कम करने के लिये एक शहरी रोजगार योजना और सार्वभौम आधार आय योजना का लाना बहुत जरुरी है

रोजगार सृजन वह क्षेत्र है जिस पर वित्तमंत्री को सबसे अधिक फोकस इसलिए करना चाहिए था कि बीता वर्ष बेरोजगार युवाओं के आंदोलनों से भरा हुआ वर्ष थारेलवे में भर्तियों को लेकर हुआ आन्दोलन और अग्निवीर योजना के नाम पर युवाओं के साथ रोजगार के नाम पर किया गया आन्दोलन भुला देने योग्य घटनाएं नहीं हैं यद्यपि जनवरी 2023 में बेरोजगारी की दर कम हुई है पर 7% से अधिक की यह दर उस देश के लिये बहुत अधिक है जहां के लिये देश के प्रधानमंत्री कहते नहीं थकते हैं कि यह दुनिया की सबसे बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है और विश्वगुरु बनने की राह पर है पर, अफ़सोस की बात है की निर्मला जी ने रोजगार सृजन के मुद्दे सरकारी और निजी दोनों क्षेत्र द्वारा किये जा रहे अवेहलनापूर्ण रवैय्ये पर कोई चिंता जाहिर करने का उपक्रम भी नहीं किया ये जो रोजगार मेला भरवाकर टीव्ही में प्रधानमंत्री से रोजगार पत्र देने का इवेंट आयोजित किया जा रहा है, उससे रोजगार के संकट को नहीं निपटा जा सकता है बजट में पूंजीगत व्यय 7.5 लाख से बढ़ाकर 10 लाख किया गया है इसे वित्तमंत्री ने वर्तमान बेरोजगारी संकट के लिये ब्रम्हास्त्र बताया है सरकार इससे कौशल प्रशिक्षण केंद्र खोलकर युवाओं को विश्वस्तरीय प्रशिक्षण देने का इरादा रखती हैमुझे याद है जब अटल जी प्रधानमंत्री थे तो उन्होंने एक बार कहा था कि हम युवाओं को प्रशिक्षित करेंगे और उन्हें देश में रोजगार नहीं मिलता है तो वे विदेश में रोजगार प्राप्त करने योग्य होंगे यदि इन कौशल केन्द्रों की स्थापना का उद्देश्य युवाओं की अंतर्राष्ट्रीय पहुँच बढ़ाने के लिये है तो हम पहले से प्रतिभा पलायन से पीड़ित मुल्क में प्रतिभाओं को पलायन का एक और मौक़ा देने की कगार पर बैठ रहे हैं

यह भी एक संयोग ही था कि वित्तमंत्री के बजट के हलुआ वितरण के लगभग 13 दिनों पूर्व ही ऑक्सफैम की वह बहुचर्चित रिपोर्ट सरवाईवल ऑफ़ रिचेस्ट आई जिसमें पुरे विश्व के साथ भारत के अमीरों और भारत में व्याप्त असमानता पर भी बात की गई थी मैं उसके विस्तार में न जाकर केवल वही बात यहाँ उद्धृत करूंगा, जिसमें ऑक्सफैम के सीईओ अमिताभ बेहर ने बताया था कि भारत में हाशिये पर रहने वाले दलित, आदिवासी, मुस्लिम, और महिलाएं भारत के अमीरों के अस्तित्व को सुनिश्चित करते हैं बेहर ने भारत के वित्तमंत्री से अनुरोध करते हुए कहा था कि “ गरीब अमीरों की तुलना में अनुपातहीन रूप से उच्च करों का भुगतान कर रहे हैं, आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं पर अधिक खर्च कर रहे हैं समय आ गया है कि अमीरों पर कर लगाया जाये और यह सुनिश्चित किया जाये कि वे अपने उचित हिस्से का भुगतान करेंइसके लिये बेहर ने केंद्रीय वित्तमंत्री से धन कर और उत्तराधिकार कर जैसे प्रगतिशील कर उपायों को लागू करने की आग्रह किया जो असमानता को कम करने में ऐतिहासिक रूप से प्रभावी साबित हो चुके हैं

यह तय है की निर्मला जी किसी भी विदेशी रिपोर्ट और सलाह को तवज्जो नहीं देतीं| यह दीगर बात है की उसी सम्मेलन में पहले दिन प्रधानमंत्री अपना उद्बोधन देकर भारत युवाओं को कौशल प्रदान करने के लिये और उद्यमी बनाने के लिये क्या कर रहा है, विस्तार से बताते हैंबहरहाल, जिस पूंजीगत व्यय को बढ़ाकर रोजगार सृजन के लिये निर्मला जी ब्रम्हास्त्र बता रही हैं, उसका एक बड़ा हिस्सा महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी एक्ट में 29400 करोड़, ग्रामीण विकास आबंटन से 5113 करोड़, खाद्यान सबसीडी में 89,844 करोड़, बच्चों के मध्यान्ह भोजन और प्रधानमंत्री पोषण योजना में 1200 करोड़, प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना में 8000 करोड़ रुपये कम करके जुटाया गया है अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक बताते हैं कि वित्तमंत्री ने चार बुनियादी बातों को नजरअंदाज कर दिया पहली, यदि बिलकुल उतनी ही राशी, यदि सामाजिक क्षेत्र पर खर्च की जाये, तो उतनी ही मात्रा में रोजगार सृजन होगादूसरी, यह राशी यदि सामाजिक क्षेत्र पर खर्च की जाती तो सीधे तौर पर कामकाजी लोगों के लिये फायदेमंद होती, जिनके मामले में, जैसा कि संसद में बजट से एक दिन पूर्व पेश किये गये आर्थिक सर्वेक्षण में स्वीकार किया गया है कि वास्तविक मजदूरी में गिरावट आई है तीसरा, सरकार जो राशी सामाजिक क्षेत्र में खर्च करती है उसका गुणात्मक प्रभाव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मेहनतकश की क्रयशक्ति को बढाता है, यह सार्वजनिक पूंजीगत व्यय के प्रभावों से बहुत अधिक है बेरोजगारी पर प्रभाव डालने के लिये पूंजीगत व्यय अधिक करना होता है जबकि उतनी ही राशी सामाजिक क्षेत्र में खर्च करने से अधिक प्रभाव हासिल होता है और चौथा, पूंजीगत व्यय का अधिकाँश हिस्सा पूंजीगत वस्तुओं के आयात के रूप में “बाहर” निकल जाता है, जिससे कामकाजी लोगों की खपत सामर्थ्य में कोइ बढ़ोत्तरी नहीं होती

जैसा की वित्तमंत्री बजट पेश करने के काफी पहले से कहती रहीं कि वे मध्यमवर्ग से आती हैं और उसका ख्याल रखना उनकी प्राथमिकता में है, आयकर के नये रिजाईम में टेक्स से छूट की सीमा 7 लाख रूपये कर दी गई है ऐसी ही मेहरबानी पुरानी योजना वालों के लिये क्यों नहीं की, यह शोध का विषय है एक बात जो वित्तमंत्री ने नहीं बताई और उनसे पूछने का मन करता है कि 7 लाख से मात्र कुछ हजार, मान लीजिये 10,000 रूपये आय अधिक होने पर वह व्यक्ति मध्यम वर्ग से इतना बाहर हो जाता है कि उसकी आय पर कर लगना 3 लाख रूपये से शुरू हो जाएगा बहरहाल, 3 लाख से ऊपर कमाने वाले 10% में अडानी साहब भी हैं तो अम्बानी साहब भी, वे तो खुश हैं, बाकी 90% के लिये राष्ट्रवाद से लेकर हिज़ाब तक अनेक झुनझुने हैं, जिनसे वे बहल जाते हैं

 अरुण कान्त शुक्ला             
10 फरवरी 2023
 
     
 
 
 
 
 
 
 
 
  
 

 

 

Monday, January 30, 2023

भारत जोड़ो यात्रा और बीबीसी के वृतचित्र

आज राहुल गांधी की 7 सितम्बर को कन्याकुमारी से प्रारंभ हुई भारत जोड़ो यात्रा श्रीनगर में कांग्रेस कार्यालय के समक्ष राष्ट्रीय ध्वज फहराने के साथ समाप्त हो गयी है। यात्रा राहुल गांधी ने अपने दिवंगत पिता राजीव गांधी, स्वामी विवेकानंद और तमिल कवी त्रिवल्लुवर को श्रद्धांजलि देने के बाद शुरू की थी। यात्रा के शुरू होने के साथ ही प्रथम आक्रमण उनकी अमेठी की प्रतिद्वंदी स्मृति ईरानी के आक्रमण के साथ हुआ था। जो बाद में हमेशा की तरह स्मृति ईरानी का बड़बोलापन ही निकला। उसके बाद तो वे सारे आक्रमण हुए, जिनका उल्लेख करना यहाँ मेरा मकसद कतई नहीं है।आज जब यह यात्रा समाप्त हो रही है इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि राहुल गांधी की जो छवि, जैसे भी, निर्मित की गयी थी अथवा बन गयी थी, उसमें एक जबरदस्त सकारात्मक परिवर्तन दिखाई पड़ रहा है।सफ़ेद टीशर्ट में सादे और दाढ़ी वाली यात्रा कर रहे राहुल गांधी, उस राहुल गांधी से नितांत अलग दिख रहे हैं, जिनके बारे में सूना जाता था की वे कांग्रेस अध्यक्ष होते हुए भी या लोकसभा का सत्र चलने के दौरान भी अचानक छुट्टियां मनाने बीच बीच में जाने कहाँ विदेश चले जाते हैं।

 

 भारत जोड़ो यात्रा का समापन एक ऐसे समय हो रहा है जो प्रधानमंत्री मोदी के लिये सहज नहीं है बीबीसी के उस वृत्त चित्र का दूसरा भाग भी यूनाईटेड किंगडम में रिलीज हो चुका है जो भारत सरकार ने देश में बेन कर रखी है और जिसका प्रदर्शन अनेक जगह करने के जुर्म में पुलिस विश्विद्यालयों सहित अनेक जगह छात्रों तथा नागरिकों की धरपकड़ में जुटी है हालांकि, जैसा की मीडिया या जानकारों से पता चल रहा है कि दोनों वृतचित्रों में ऐसा कुछ भी नहीं है जो पहले से ही सार्वजनिक डोमेन में नहीं था जब भी 2002 के गुजरात के दंगों की बात होती है तो बीजेपी 1984 के दिल्ली दंगों की याद दिलाती है इससे 2002 के दंगे न्यायपूर्ण नहीं हो जाते यह एक अलग बात है, पर, क्या बीजेपी स्वयं उन दंगों को कभी भुलाने के लिये तत्पर हुई है, इस पर हमेशा प्रश्नवाचक चिन्ह लगा रहा है वस्तुत: जब भी मौक़ा लगा, बीजेपी के बड़े नेताओं ने अप्रत्यक्ष रूप से ही सही उन दंगों की याद लोगों को दिलाई है, फिर चाहे वह समाज के एक वर्ग को धमकाने और बहुसंख्यक से वोट बटोरने के लिये ही क्यों न हो 


वास्तव में 2002 की यादों को दोहराना बीजेपी को कभी भी राजनीतिक रूप से हानिकारक लगा ही नहीं फिर बीजीपी को बीबीसी के उन दो वृतचित्रों से डर क्यों लगा? दोनों वृतचित्रों के खिलाफ बीजेपी सरकार की भारी-भरकम प्रतिक्रिया से, जेएनयू में की गयी बिजली कट से, जामिया में दंगा पुलिस भेजने के कार्य से और अजमेर में राजस्थान के केन्द्रीय विश्वविद्यालय में 10 छात्रों को निलंबित करने की प्रतिक्रिया से स्पष्ट प्रतीत होता है कि उस वृतचित्र के प्रदर्शन से केंद्र सरकार ने न केवल तिलामलाई हुई है बल्कि स्वयं को घिरा भी महसूस कर रही है


समझा जा सकता है कि जब प्रधानमंत्री सहित बीजेपी का हर छोटा-बड़ा नेता भारत के जी-20  के अध्यक्ष बन जाने के गुणगान करने में लगा हो तथा इस हर वर्ष किसी अन्य देश के बारी बारी से मिल जाने वाली अध्यक्षता को देश के लोगों को भारत के विश्वगुरु बन जाने के रास्ते पर पड़ने वाले कदम के रूप में देखने के लिये प्रेरित कर रहे हों तब आवश्यकता ऐसी बातों को होती है जो इन सब की चापलूसी में कही जाये, उस समय बीबीसी के वृत्त चित्र, राहुल की यात्रा का पूर्ण होना, लाल चौक पर राष्ट्रीय ध्वज लहराना कतई दिल खुश करने वाली या बीजेपी के मनोबल को बढ़ाने वाली बातें तो नहीं हैं संपूर्ण यात्रा के दौरान और अब उसके समापन पर राहुल गांधी के व्यक्तित्व में आये परिवर्तन उन सबने महसूस तो किये ही हैं जो यात्रा पर थोड़ी भी नजर रख रहे थेउनके अंदर की विनम्रता बाहर आई है, उन्हें अपने वक्तव्यों पर और अधिक नियंत्रण हासिल हुआ है और वे एक मोहब्बत से भरे ऐसे इंसान के रूप में खुद को पेश क्र सके हैं जो हंसता है, गले मिलता है और जन से जुड़ने की इच्छा रखता है यह उस छवि के ठीक विपरीत है जो राहुल से ज्यादा समय देकर और मेहनत करके प्रधानमंत्री ने बनाई है वे एक अधिनायकवादी व्यक्ति के रूप में दिखते हैं जिनका सिर केवल अपने आदेश के पालन के लिये इशारा करते ही दिखता है 


यहाँ मेरा उद्देश्य भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस को कितना लाभ होगा या बीजेपी को कितना नुकसान होगा, उस पर चर्चा करना नहीं हैमैं केवल यह बताना चाहता हूँ कि राहुल गांधी के लिये चुनौती तो अभी शुरू हुई हैये चुनौतियां दो हैं प्रथम, आज मोदी जी की जो कसी हुई पकड़ देश की संस्थाओं तथा देश के एक वर्ग में है, उसमें किसी भी मोदी विरोधी संदेश अथवा लहर को गढ़ने का मतलब उन संस्थाओं और उनके समर्थकों की नाराजगी को आमंत्रित करना है दूसरी चुनौती यह है कि बीबीसी के दोनों वृतचित्र केवल यह नहीं बताते कि वर्ष 2002 में क्या हुआ थावे यह भी बताते हैं कि मोदी जी ने अपने राजनीतिक जीवन की गुजरात में कहाँ से शुरुवात की थी और उसे किस तरह उसका पुनर्निर्माण किया और उसे किस तरह पुन: ढाला हैकहने का तात्पर्य है कि 2024 के चुनावी समर में एक बदले हुए राहुल गांधी का मुकाबला उस विरोधी से होगा जिसे 2002 से अपने व्यक्तित्व को परिस्थिति अनुसार बदलते रहने में महारत हासिल है

 
अरुण कान्त शुक्ला 
30 जनवरी 2023    

Tuesday, November 1, 2022

‘भारतमाता’ जवाहरलाल नेहरू की नजर में

 

‘भारतमाता’ जवाहरलाल नेहरू की नजर में

देश एक ज़मीन का टुकड़ा ही नहीं है। कोई भी इलाका, कितना भी, खूबसूरत और हराभरा  हो अगर वह वीराना है तो देश कैसा? देश बनता है उसके नागरिकों से। पर नागरिकों की भीड़ से नहीं। एक सुगठित, सुव्यवस्थित, स्वस्थ, सानन्द और सुखी समाज से। एक उन्नत, प्रगतिशील और सुखी समाज, एक उदात्त चिंतन परम्परा और समरस की भावना से ही गढ़ा जा सकता है । देश को अगर मातृ रूप में हम स्वीकार करते  है, तो निःसंदेह, हम सब उस माँ की संताने हैं। स्वाधीनता संग्राम के ज्ञात अज्ञात नायकों ने न केवल एक ब्रिटिश मुक्त आज़ाद भारत की कल्पना की थी, बल्कि उन्होंने एक ऐसे भारत का सपना भी देखा थाजिसमे हम ज्ञान विज्ञान के सभी अंगों में प्रगति करते हुये, एक स्वस्थ और सुखी समाज के रूप में विकसित हों। इन नायकों की कल्पना और आज की जमीनी हकीकत का आत्मावलोकन कर खुद ही हम देखें कि हम कहां पहुंच गए हैं और किस ओर जा रहे हैं। भारत माता की जय बोलने के पहले यह याद रखा जाना जरूरी है कि, दुनिया मे कोई माँ, अपने दीन हीन, विपन्न, और झगड़ते हुए संतानों को देखकर सुखी नही रह सकती है। इस मायने में नेहरु की दृष्टि में भारतमाता की छवि एकदम साफ़ थी। भारत की विविधता को, उसमें कितने वर्ग, धर्म, वंश, जातियां, कौमें हैं और कितनी सांस्कृतिक विकास की धारायें और चरण हैं, नेहरु ने इसे बहुत गहराई से समझा था। प्रस्तुत है उनके आलेखों की माला ‘भारत एक खोज’ से एक अंश कि ‘भारत माता’ से नेहरु क्या आशय रखते थे।    


"अक्सर, जब मैं एक बैठक से दूसरी बैठक , एक जगह से दूसरी जगह , लोगों से मिलने के लिये जाता था, तो अपने श्रोताओं को हमारे इस इंडिया, इस हिंदुस्तान, जिसका नाम भारत भी है के बारे में बताता था भारत, यह नाम हमारे समाज के पौराणिक पूर्वज के नाम पर रखा गया है मैं शहरों में ऐसा कदाचित ही करता होउंगा, कारण साधारण है क्योंकि शहरों के लोग कुछ ज़्यादा सयाने होते हैं और दुसरे ही किस्म की  बातें सुनना पसंद करते हैं पर हमारी ग्रामीण जनता का देखने का दायरा थोड़ा सीमित होता है उन्हें मैं अपने इस महान देश के बारे में, जिसकी स्वतंत्रता के लिये हम लड़ रहे हैं, बताता हूँ उन्हें बताता हूँ कि कैसे इसका हर हिस्सा अलग है , फिर भी यह सारा भारत है पूर्व से पश्चिम तक, उत्तर से दक्षिण तक, यहाँ के किसानों की समस्याएं एक जैसी हैं उन्हें स्वराज की बात बताता हूँ, जो सबके लिये होगा, हर हिस्से के लिये होगा| मैं उन्हें बताता हूँ कि खैबर दर्रे से लेकर कन्याकुमारी तक की यात्राओं में हमारे किसान मुझसे एक जैसे सवाल पूछते हैं उनकी परेशानियां एक जैसी हैं गरीबी, कर्जे, निहित स्वार्थ, सूदखोर, भारी लगान और करों की दरें, पुलिस की ज्यादती, यह सब उस ढाँचे में समाया हुआ है जो विदेशी सत्ता द्वारा हमारे ऊपर थोपा हुआ है और जिससे सबको छुटकारा मिलना ही चाहिये| मेरी कोशिश रहती है की वे भारत को संपूर्णता में समझें कुछ अंशों में वे सारी दुनिया को भी समझें, जिसका हम हिस्सा हैं

मैं चीनस्पेनअबीसीनियामध्य यूरोपमिस्र और पश्चिम एशिया के मुल्कों में चल रहे संघर्षों की बात करता हूंमैं उन्हें रूस और अमेरिका में हुए परिवर्तनों की बात बताता हूंयह काम आसान नहीं हैपर इतना मुश्किल भी नहीं हैं जितना मुश्किल मैं समझ रहा थाहमारे प्राचीन महाकाव्योंहमारी पौराणिक कथाओं और किंवदंतियों से वे भली भांति परिचित हैं और इसके माध्यम से वे अपने देश को जानते समझते हैं| हर जगह मुझे ऐसे लोग भी मिले जो तीर्थयात्रा के लिये देश के चारो कोनों तक जा चुके थे या उनमें पुराने सैनिक भी थे जिन्होंने प्रथम विश्व युद्ध या अन्य अभियानों में विदेशी भागों में सेवा की थी। यहां तक ​​कि विदेशों के बारे में मेरे संदर्भों से भी उन्हें 'तीस के दशक' के महान मंदी के परिणामों की याद आई जिसने उन्हें घर वापस लाई थी।

कभी ऐसा भी होता कि जब मैं किसी जलसे में पहुंचता, तो मेरा स्वागत भारत माता की जयनारे के साथ किया जाता। मैं लोगों से पूछ बैठता कि इस नारे से उनका क्या मतलब है? यह भारत माता कौन है जिसकी वे जय चाहते हैं। मेरे सवाल से उन्हें कुतूहल और ताज्जुब होता और कुछ जवाब न सूझने पर वे एक दूसरे की तरफ या मेरी तरफ देखने लग जाते। आखिर एक हट्टे कट्टे जाट किसान ने जवाब दिया कि भारत माता से मतलब धरती से है। कौन सी धरती? उनके गांव की, जिले की या सूबे की या सारे हिंदुस्तान की?

इस तरह सवाल जवाब पर वे उकताकर कहते कि मैं ही बताऊँ। मैं इसकी कोशिश करता कि हिंदुस्तान वह सब कुछ है, जिसे उन्होंने समझ रखा है। लेकिन वह इससे भी बहुत ज्यादा है। हिंदुस्तान के नदी और पहाड़, जंगल और खेत, जो हमें अन्न देते हैं, ये सभी हमें अजीज हैं। लेकिन आखिरकार जिनकी गिनती है, वे हैं हिंदुस्तान के लोग, उनके और मेरे जैसे लोग, जो इस सारे देश में फैले हुए हैं। भारत माता दरअसल यही करोड़ों लोग हैं और भारत माता की जय से मतलब हुआ इन लोगों की जय। मैं उनसे कहता कि तुम इस भारत माता के अंश हो, एक तरह से तुम ही भारत माता हो और जैसे जैसे ये विचार उनके मन में बैठते, उनकी आंखों में चमक आ जाती, इस तरह मानो उन्होंने कोई बड़ी खोज कर ली हो।"

 

अरुण कान्त शुक्ला

1/11/2022              


 

      


      

 


Wednesday, May 4, 2022

भारतीय जीवन बीमा निगम के शेयरों को बेचने का अर्थ इसके बीमा धारकों को भविष्य में होने वाली आय को बेचना है...

भारतीय जीवन बीमा निगम के शेयरों को बेचने का अर्थ इसके बीमा धारकों को भविष्य में होने वाली आय को बेचना है...

देश आज 4 मई को देश की उस सबसे बड़े वित्तीय  फेरबदल की शुरुवात देख रहा है जिसे वित्तमंत्री होते हुए और बाद में प्रधानमंत्री रहते हुए भी नहीं कर पाने का अफसोस शायद पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह को अब भी अवश्य होता होगायह शायद जुलाई 2012 की बात है जब ब्रिटिश अखबार ‘द इंडिपेंडेंट’ ने प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह को तात्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का पूडल कहा था मैंने तब अपने लेख ‘मनमोहनसिंह पूडल तो हैं पर किसके’ में यहीं पर कहा था कि;

“यदि मनमोहनसिंह पूडल हैं तो सोनिया के नहीं अमेरिका, वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ के पूडल हैं और पिछले दो दशकों में सत्ता का सुख प्राप्त कर चुके सभी दल इनके पूडल रह चुके हैं, यहाँ तक कि देश का मीडिया भी, विशेषकर टीव्ही मीडिया और बड़े अंग्रेजी दां अखबार भी इनके पूडल हैं।“

देश के आर्थिक परिदृश्य में सिर्फ इतना परिवर्तन आया है कि वह मनमोहनसिंह युग से और भी बद्तर हुआ है। पर, अब कोइ पूडल नहीं कहलायेगा, क्योंकि अब वर्ल्डबैंक, आईएएफ और डब्लयूटीओ को इशारे करने की जरूरत नहीं पड़ती है। आपदा से अवसर निकालकर हम आत्मनिर्भर हो गए हैं, पर कैसे, यह विचारणीय है?      

भारत के  जीवन बीमा क्षेत्र को, जो 1956 से पूरी तरह सरकारी संरक्षण में था, 1991 में विश्वबैंक तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के तहत अपनाई गयी उदारवादी वित्त व्यवस्था के अनुरूप ढालने की सिफारिशें प्राप्त करने के लिए 1993 में आर ऍन मल्होत्रा कमेटी का गठन किया गया था, जिसकी रिपोर्ट 1994 में भारत सरकार को प्राप्त हो गयी थी और कहने की जरूरत नहीं है कि इसकी रिपोर्ट ठीक वैसी ही थी जैसी विश्वबैंक और मुद्राकोष के साथ साथ देशी विदेशी पूंजी चाहती थी याने जीवन बीमा के क्षेत्र में भाजीबीनि का एकाधिकार समाप्त करके न केवल विदेशी-देशी पूंजी को इसमें खेलने की अनुमति दी जाए बल्कि भाजीबीनी के स्वामित्व से भी भारत सरकार हटे और इसमें देशी-विदेशी पूंजी को घुसने का मौक़ा दिया जाए रिपोर्ट प्राप्त करने के बाद लगभग दो वर्ष मनमोहनसिंह के नेतृत्व में 1995 तक कांग्रेस की सरकार रही पर वह उन सिफारिशों को दो वजह से लागू नहीं कर पाई| प्रथम तो भारतीय जीवन बीमा निगम की भारत की अर्थव्यवस्था में जो रणनीतिक भूमिका थी और देश के सामाजिक जीवन के उत्थान तथा प्रगति में जो योगदान था, उसमें एकदम और अचानक अवरोध से जो समस्याएँ खडी होतीं, उन्हें समझने की क्षमता तात्कालीन सरकार और कांग्रेस पार्टी में थी, जिसने मनमोहनसिंह को तमाम वैश्विक दबावों के बावजूद इस कार्य को करने से रोका दूसरा महत्वपूर्ण कारण था भाजीबीनी कर्मचारियों का आन्दोलन और उस आंदोलन के साथ जुड़ी भाजीबीनि के बीमा धारकों और आम लोगों की एकजुटता पर, जो कार्य तमाम अंतर्राष्ट्रीय दबावों के बावजूद 1995 तक कांग्रेस नीत सरकार और उसके बाद आईं मिली-जुली सरकारें नहीं कर पाईं, वह दिसंबर 1999 में भाजपा के नेतृत्व में बनी अटल वाजपाई सरकार ने कर दिया और जीवन बीमा का बाजार विदेशी-देशी पूंजी के लिए खोल दिया गया पर, एल आई सी को हाथ लगाने की जुर्रत उसके बाद भी पुरे 21 साल कोई सरकार नहीं कर पाई

आज सरकार अपने 3.5% शेयर बाजार के हवाले कर रही है और उसे पूरी उम्मीद है कि वह इससे वर्ष 2023 के लिए निर्धारित अपने विनिवेश के 78 हजार करोड़ के लक्ष्य को प्राप्त कर सकेगी                  

भारतीय जीवन बीमा निगम में राष्ट्रीयकरण के समय सरकार ने मात्र 5 करोड़ की पूंजी लगाई थी| उस प्रारंभिक निवेश के बाद व्यवसाय के विस्तार के लिए सरकार ने कभी कोई अतिरिक्त पूंजी का योगदान नहीं किया है। एलआईसी की पूरी उन्नति  और विस्तार एलआईसी द्वारा पॉलिसीधारकों से एकत्रित बीमा के लिए प्रदत्त धन से ही हुआ है। यहां तक ​​कि नियमों के अनुसार आवश्यक सॉल्वेंसी मार्जिन भी पॉलिसीधारकों से एकत्रित फंड के द्वारा ही हुआ है। यह कहा जा सकता है कि एलआईसी एक अनोखी ट्रस्ट या म्यूचुअल बेनिफिट सोसाइटी जैसी है, जो “लोगों के धन से, लोगों के लिए, लोगों के द्वारा”, शुद्ध लोकतांत्रिक मूल्यों पर चलाई जाती है पिछले कई दशकों में निर्मित एलआईसी के सरप्लस फंड, इसकी 38 लाख करोड़ रुपये की संपत्ति, इसके पॉलिसीधारकों की है, इसलिए वे ही एलआईसी के वास्तविक मालिक हैंसरकार अपने 5 करोड़ के एवज में 28 हजार करोड़ से ज्यादा का लाभांश और लगभग इतने का ही निवेश जनकल्याणकारी योजनाओं में एलआईसी से प्राप्त कर चुकी हैबीमा धारक ही इसके 100% इक्विटी शेयर धारक हैं। इसीलिए, एलआईसी का स्लोगन भी रहा है ‘पॉलिसीधारक हमारे स्वामी हैं’ यह हास्यास्पद सा लगता है कि इसके सच्चे स्वामियों को आज सरकार उपकृत सा करते हुए उन्हें आईपीओ में 10% निवेश की जगह देने का झुनझुना पकड़ा रही है

भारतीय जीवन बीमा निगम का निजीकरण मोदी सरकार के निजीकरण के अभियान के सबसे बुरे निर्णयों में से एक प्रमुख निर्णय होने जा रहा है 1956 से विकास के झंडे को देश के दूरदराज के आदिवासी तबकों से लेकर सम्पूर्ण ग्रामीण भारत के कोने कोने तक पहुंचाने वाली संस्था, जिसके पीछे चलकर ही बाकी तमाम वित्तीय योजनाएं और संस्थाएं उन इलाकों तक पहुँची, स्वतंत्रता पश्चात आत्मनिर्भर भारत के जिस स्वप्न को देखा गया और जिसे अमली जामा पहनाने निगम के लाखों कर्मचारियों, अधिकारियों और एजेंटों ने अपना खून पसीना दिया, उस ट्रस्ट को तोड़कर आज एलआईसी को पॉलिसीधारकों के ट्रस्ट से बदलकर शेयरहोल्डर्स के लिए मुनाफे अर्जित करने वाली कंपनी में बदला जा रहा है इसे करने के लिए इंश्योरेंस रेगुलेटरी एंड डेवलपमेंट अथॉरिटी ऑफ इंडिया (IRDA)  दो बदलाव पहले ही कर चुकी है। पहला कि, नॉन-सेविंग लिंक्ड पॉलिसी एक अलग लाइफ फंड होगी जिसका रिटर्न पॉलिसीधारकों को नहीं बल्कि शेयरधारकों को जाएगा। दूसरा, पॉलिसी-धारकों को वितरित किए जाने वाले शुद्ध रिटर्न के अनुपात को 95 प्रतिशत से घटाकर 90 प्रतिशत कर दिया गया है। जैसे-जैसे निजी शेयरधारक बढ़ेंगे, यह अनुपात निश्चित रूप से और घटेगा।सरकार एलआईसी में विदेशी पूंजी की भी अनुमति दे रही है। इससे निश्चित रूप से विदेशी पूंजी को  घरेलू बचत पर और अधिक पहुंच और नियंत्रण हासिल करने में मदद मिलेगी, जिससे राष्ट्रीय विकास परियोजनाओं के लिए धन-संग्रह में रुकावट पहुंचेगी। आत्मनिर्भर भारत की रट लगाने वाली सरकार यह समझ भी रही है या नहीं, किसे पता?

एलआईसी के निजीकरण का निस्संदेह रूप से सरकार की तरफ से पॉलिसीधारकों को दी जाने वाली सॉवरेन गारंटी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। भारतीय जीवन बीमा निगम में आम लोगों के अटूट विश्वास के पीछे यह सॉवरेन गारंटी एक महत्वपूर्ण कारक थी। भारत के अधिकांश हिस्सों में, गरीबों को शायद ही कोई सामाजिक सुरक्षा सुरक्षा प्राप्त है। एलआईसी उन्हें कम प्रीमियम पर कई सामाजिक सुरक्षा बीमा कार्यक्रम, आकर्षक सावधि जमा योजनाएं और स्वयं सहायता समूहों के लिए विशेष योजनाएं प्रदान करती रही है और कर रही है। यदि क्रॉस-सब्सिडी समाप्त हो जाती है, तो ऐसी योजनाएं संकट में पड़ जाएंगी।

पॉलिसीधारकों और कर्मचारियों को शेयरों की पेशकश एक छलावे के अतिरिक्त कुछ नहीं है। शेयर मार्केट में आईपीओ आने के बाद एलआईसी का नियंत्रण किस और कैसे निवेशक समूह में स्थानांतरित होगा और वे इसके लाखों के असेट्स का तथा लाईफ और सरप्लस फंड का कैसा क्या उपयोग-गोलमाल करेंगे, इसे जानने के लिए राष्ट्रीयकरण के पहले का निजी बीमा कंपनियों इतिहास उपलब्ध है।

सरकार का एलआईसी का आईपीओ लाये जाने के पक्ष में दिये जा रहे तर्क कि इससे एलआईसी में और अधिक जवाबदेही और पारदर्शिता सुनिश्चित होगी, बोगस है, क्योंकि सरकार स्वयं साल दर साल संसद में एलआईसी का पॉलिसीधारकों के हितों की रक्षा करने के बेदाग रिकॉर्ड पेश करती रही है। क्योंकि एलआईसी हर साल भारी निवेश योग्य सरप्लस देती है, इसलिए इस तर्क का कोई मतलब नहीं है कि इससे अधिक पूंजी एकत्रीकरण में मदद मिलेगी। यह तर्क तो और भी हास्यास्पद है कि एलआईसी का आईपीओ लाने से भारतीय जनता को लाभ होगा, क्योंकि शेयर बाजार में खुदरा निवेशक आबादी का लगभग 3% ही हैं। वास्तव में एलआईसी में अपने स्वामित्व के हिस्से के शेयरों को बाजार में बेचने का मतलब केवल और केवल अमीर, कॉर्पोरेट और विदेशी पूंजी को सस्ती कीमत पर एकत्रित सार्वजनिक संपत्ति-धन को उपलब्ध कराना ही है। सरकार एलआईसी में अपने शेयरों को बेचकर, वास्तव में, पॉलिसी-धारकों को भविष्य में होने वाली आय को अमीर, कॉर्पोरेट और विदेशी पूंजी को सस्ती कीमत पर बेच रही है।

 
अरुण कान्त शुक्ला 
4 मई, 2022