केवल
सदिच्छा से “निदान” नहीं होता --
अंगरेजी
में एक कहावत है , यदि इच्छाएं घोड़ा होतीं तो हर भिखारी घुड़सवार होता | मुझे
यह कहावत इसलिए याद आई कि छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमण सिंह ने मंगलवार याने
होलिका दहन के ठीक एक दिन पहले एक ऐसी योजना “निदान” का शुभारंभ किया है , जो यदि सफल हो जाती है तो प्रदेश की जनता को
मिलने वाली राहत की कोई सानी पूरे देश में नहीं होगी | “निदान’ योजना के अंतर्गत राजधानी रायपुर समेत
प्रदेश के दस नगर निगमों में पानी बिजली की शिकायत टोलफ्री नंबर 1100 पर की जा
सकेगी और इन निकायों को 24 घंटों के अंदर उसका निराकराण करना होगा | रमण
सिंह ने 1100 पर फोन करके कुकुरबेड़ा के इश्वरीचरण के घर की पानी की दिक्कत टोल
फ्री नंबर पर नोट कराई | जब शिकायत दर्ज करने वाले आपरेटर ने मुख्यमंत्री से पूछा
क्या आप संतुष्ट हैं तो मुख्यमंत्री ने कहा कि अभी से कैसे संतुष्ट हो जाएँ | जब
आप शिकायत का निदान कर मुझे एसएमएस से सूचित करंगे तब मैं संतुष्ट हो जाऊंगा | ईश्वरीचरण
निगम के दफ्तर में कई बार शिकायत कर चुके थे पर कोई सुनवाई नहीं हो रही थी | मुख्यमंत्री
की शिकायत के बाद तो कुछ मिनटों के अंदर बिगड़ा पावर पम्प ठीक हो गया |
यही
वो बिंदु है जब मुझे उपरोक्त अंग्रेजी की कहावत याद आई | केवल
इच्छा मात्र होने से कोई घुड़सवार नहीं होता बल्कि उसके लिए घोड़े का होना भी जरूरी
होता है | राजधानी में मैदानी हाल यह है कि निगम ने काल सेंटर तो खोल
दिया मगर शिकायत दूर करने के लिए सामान और स्टाफ की किल्लत है | बिजली
सप्लाई से जुड़ी दिक्कत आई तो निगम के स्टोर में सामान की समस्या है | यही
हाल पाईप लाईनों के रखरखाव का है | सामान की कमी की वजह से आज भी यह काम समय पर
नहीं हो पाता है | टेंकर है नहीं , ऐसी हालत में पानी की सप्लाई कैसे होगी | 24
घंटे में शिकायत का निदान कैसे किया जाएगा , यह सोच सोच कर अफसर और कर्मचारियों की नींद
उड़ी जा रही है |
रमण
सिंह देश के एकमात्र मुख्यमंत्री हैं जिन्हें इस बात का श्रेय है कि उन्होंने
सार्वजनिक वितरण प्रणाली का कम्प्यूटराईजेशन करके ऐसी स्थिति का निर्माण किया है
कि कम से कम उसके तहत होने वाले राशन के घोटालों पर लगभग निर्णायक रूप से रोक लग
सकी है | यदि आज राज्य सरकार की दो रुपये किले में चावल बीपीएल से
नीचे वालों को देने की , चना और नमक देने की योजनाएं राज्य में सफलता पूर्वक चल रहीं
तो उसका श्रेय सार्वजनिक वितरण प्रणाली में किये गए सुधार को ही जाता है | पर , “निदान” याने प्रदेश की 23% आबादी , जो शहरों में रहती है , उसकी
पानी , बिजली और सफाई की समस्याओं का निराकरण घर बैठे निकालने की
योजना की सफलता का पूरा होना या न होना , केवल मुख्यमंत्री की सदिच्छा पर नहीं बल्कि
मैदानी ढाँचे पर भी निर्भर करता है , जिसे मुख्यमंत्री की इस सदिच्छा को पूरा करना
है |
ईश्वरीचरण
के समान प्रदेश के नगर निगमों में सैकड़ों लोग रोज शिकायते लेकर पहुँचते हैं | उनमें
से अनेक लोगों की दिक्कतें कभी दूर नहीं हो पाती हैं | सही
परिस्थिति यह है कि निगमों के पास इन शिकायतों को त्वरित तौर पर निराकरण के लिए न
तो पूरा स्टाफ है और न ही आवश्यक साजो सामान | दो दशकों से ज्यादा हो गया , निगमों
में ग्राऊंड स्टाफ की भरती कुछ मामलों को छोड़कर , लगभग बंद है |यह निर्णय सीधे सीधे दो दशक पहले स्वीकार कर
ली गईं नवउदारवादी नीतियों से जुड़ा है , जिन्हें स्वायत संस्थाओं पर लादा गया और
उनकी उन सेवाओं में सबसे अधिक कटौती की गयी , जिनका संबंध पानी , बिजली
, सफाई जैसी आवश्यक सेवाओं से था |
कहने की जरुरत नहीं कि इन सेवाओं में धीरे आ रही शासन की अनदेखी से छोटे मोटे
आंदोलन हुए हों तो हुए हों , पर लोगों को भी उस गन्दगी और सेवाओं में कमी
के साथ रहने की आदत सी पड़ गयी है | लोगों के सामने सेवाओं में कटौती के राज भी
धीरे धीरे खुलते गए जब उहें मालूम पड़ा कि सफाई व्यवस्था को निजी क्षेत्र को सौंपने
की बात हो रही है | पानी से संबंधित अनेक कार्यों को आज निजी क्षेत्र से ही
कराया जा रहा है | विशेषकर गर्मी के मौसम में टेंकरों को हायर करने से लेकर
अनेक कामों में प्राईवेट ठेकेदारों की बड़ी भूमिका रहती है | यह
भी कहने की जरुरत नहीं है कि इसमें निगम की शासकीय अधिकारियों सहित चुने हुए
प्रतिनिधि तक लाभकारी होते हैं | निजीकरण का यह मुद्दा भी नवउदारवादी नीतियों
से जुड़ा है | अब परिस्थिति यह है कि प्रदेश की सरकार भी उन्हीं उदारवादी
नीतियों की अनुशरण करती है | याने कि स्वायत संस्थाओं में नई नियुक्तिया
जो खाली जगहों पर हों , उसकी कोई संभावना नहीं और सेवाओं की पूरी जिम्मेदारी आने
वाले कुछ समय में निजी क्षेत्र को चला जाएगी , जिस पर सरकारों या स्वायत संस्थाओं का कितना
बस चलता है , हम जानते हैं | याने घोड़ा तैयार नहीं है | उधर
निगमों की आर्थिक हालत भी खस्ता है | निगमों के पास समय पर अपने कर्मचारियों को
वेतन देने का पैसा नहीं रहता है तो उपकरण और सामान खरीदने की बात तो दूर है | स्थिति
यह कि ट्यूबलाईट , मर्करी बल्ब जैसे सामान खरीदने के लिए तक निगम में टेंडर
बुलाये जाते हैं तो ठेकेदार पुराने बिलों का भुगतान नहीं होने की स्थिति में
सप्लाई करने से मना कर देते हैं | जैसा कि मुख्यमंत्री चाहते हैं , 6
माह के बाद इसमें अन्य सेवाओं को भी जोड़ा जाएगा , तब स्थिति कितनी विकट होगी ,
सोचा जा सकता है |
यही
कारण है कि मंगलवार को इस योजना का आरम्भ होने के तत्काल बाद रायपुर नगर निगम की
महापौर श्रीमती किरणमयी नायक ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि निदान तभी सफल हो
सकता है , जब निगमों के पास आधारभूत संरचना उपलब्ध हो | सही
बात तो यह है कि निगम के पास कर्मचारियों को वेतन देने के लिए पैसे नहीं रहते हैं
तो फिर बल्ब , फ्यूज , खम्भे , पाईप लाइन , वायरिंग कहाँ से खरीदेगा | राज्य
शासन मद के हिसाब से पैसे दे रही है | निगम अपने हिसाब से कुछ खरीदी कर ही नहीं
सकता है | उन्हें तो पक्का लगता है कि योजना चंद दिनों में ही विफल
साबित हो जायेगी | निगम के अधिकारी और कर्मचारी भी इस योजना को लेकर चिंतित
हैं | उनका कहना है कि उपकरण और सामान के अभाव में किसी की दिक्कत
के समाधान न होने की दशा में जनाक्रोश और अधिक भड़कने की संभावना पैदा हो जाती है |
यदि
रमनसिंह अपनी निदान योजना को कामयाब होते देखना चाहते हैं तो सबसे पहले उन्हें इन
निगमों को सिर्फ “निदान” के लिए अमला रिक्रूट करने और साजोसामान खरीदने के लिए
वित्तीय मदद सुनिश्चित करनी होगी , तभी उनकी सदिच्छा परवान चढ़ सकेगी |
अरुण
कान्त शुक्ला
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