Wednesday, March 21, 2012


टाला जा सकता था आदिवासियों से हुए टकराव को -

क्या 19 मार्च , सोमवार को विधानसभा पर प्रदर्शन करने जा रहे आदिवासियों पर विधानसभा से लगभग  10 किलोमीटर दूर हुए लाठीचार्ज को टाला जा सकता था ? यह प्रश्न सोमवार शाम से ही रायपुर के प्रबुद्ध जनों के मानस में रह रह कर उठ रहा है |

आंदोलन को कुचलने की पूर्व तैय्यारी थी –

सर्व आदिवासी समाज ने दस सूत्रीय मांगों को लेकर विधानसभा को घेरने की घोषणा काफी पहले से कर रखी थी और प्रशासन भी उनके नेताओं के साथ बात करने के साथ साथ आदिवासियों की रैली को विधानसभा पहुँचने के पूर्व ही रोकने के लिए सभी आवश्यक तैय्यारियाँ कर रहा था | इस तैय्यारी में आदिवासियों के नेताओं के साथ बात करके रैली को पहले ही खत्म करने के वायदे को लेने की कोशिश के साथ साथ आदिवासियों को राजधानी में प्रवेश करने के पहले ही रोकने के इंतजाम और रैली को प्रारम्भ होने के स्थल पर ही तितिर बितिर करने का इंतजाम भी था | पहले दो इंतजाम के असफल हो जाने के बाद पोलिस प्रशासन ने तीसरा रास्ता अपनाने का निर्णय लिया , जिसने फौरी तौर पर प्रदेश के कोने कोने से आये लगभग तीन हजार से ऊपर आदिवासियों को उत्तेजित किया |

क्यों नहीं निकालने दी रैली -

गोंडवाना समाज भवन , जहां एकत्रित होने के बाद आदिवासी रैली की शक्ल में विधानसभा पर प्रदर्शन के लिए कूच करने वाले थे , उस स्थल , सिद्धार्थ चौक के एकदम पास है , जहां पोलिस ने उन्हें रोका | यह जगह विधानसभा से लगभग दस किलोमीटर से ज्यादा दूर है और पूरा रायपुर शहर क्रास करने के बाद विधानसभा जाने का मुख्य मार्ग शुरू होता है | इसके पूर्व अनेकों ऐसे प्रदर्शन हुए हैं जो कहने के लिए विधानसभा पर किये गए कहलाये हैं , पर उन सभी रैलियों को पोलिस ने विधान सभा से तीन किलोमीटर पहले लोधी पारा चौक पर या उसके थोड़े आगे रोका था | फिर आदिवासियों की ही रैली को दस किलोमीटर पहले और वह भी रैली प्रारंभ होने की जगह पर रोकने का निर्णय क्यों लिया गया , यह समझ से परे है ? यदि रैली को लोधीपारा चौक तक जाने दिया जाता तो आदिवासियों के साथ हुए टकराव को टाला जा सकता था |

कहाँ गए बड़े नेता –

रैली की शक्ल में निकलने के पहले गोंडवाना समाज के भवन में हुई सभा को कांग्रेस विधायक कवासी लखमा , पूर्व केन्द्रीय मंत्री अरविंद नेताम , विधायक हृदयराम राठिया , पूर्व मंत्री और गोंडवाना समाज के नेता मनोज मंडावी तथा पूर्व आईएएस बीपीएस  नेताम ने संबोधित किया था | जब रैली निकली तो इनमें से कोई भी रैली के साथ नहीं था |

रैली शांतिपूर्ण थी –

रैली शांतिपूर्ण थी और उसी इरादे से निकाली जा रही थी , इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि रैली में भारी संख्या में महिलाएं शामिल थीं , बल्कि वे अपने परंपरागत परिधानों में सजकर नृत्य करते हुए रैली में जाने की तैय्यारी से आईं थीं |

पानी की बौछार और अश्रु गैस से मची भगदड़ और उत्तेजना –

रैली में शामिल आदिवासियों को जब रैली प्रारम्भ होते ही रोका गया तो उन्होंने रास्ता बंद करने वाले बेरीकेड्स को हटाकर आगे बढ़ाने का प्रयास किया | पोलिस की तरफ से तुरंत पानी की बौछार के साथ साथ अश्रु गैस के गोले फेंके गए और  लाठियां लहरा कर उन्हें तितिर बितिर करने और रोकने का प्रयास हुआ , जिसके कारण पथराव हुआ और उत्तेजना फ़ैली | आदिवासियों में से कुछ के पास तीर कमान और छोटे कुल्हाड़े थे , जिसे जो भी उनकी संस्कृति को जानता है , उसे मालूम है कि वे साथ रखते हैं | कुछ पत्थरों के चलने से उत्तेजित पोलिस ने उसके बाद आदिवासियों को आसपास की गलियों में और घर में घुसे लोगों को घरों से निकाल के बेतहाशा लाठियां बरसाईं | 1600 से ज्यादा आदिवासी महिला , पुरुषों को गिरफ्तार किया गया और रायपुर सेन्ट्रल जेल में जगह न होने के चलते , उनमें से अनेक को दुर्ग जेल भेजा गया | चालीस के लगभग आदिवासी जख्मी हुए और  दो पोलिस अफसरों सहित करीब दर्जन भर पोलिस वालों को भी चोटें आईं |

आदिवासी फिर भी पहुंचे विधान सभा –

जब विधानसभा से दस किलोमीटर दूर पोलिस आदिवासियों पर बेरहमी से लाठियां बरसा रही थी , एक दिन पहले से विधानसभा के पीछे की तरफ लगभग तीन किलोमीटर दूर स्थित बरौदा गाँव में एक दिन पहले से आकर रुके हुए आदिवासी रैली की शक्ल में विधानसभा पर प्रदर्शन करने पहुंचे | यहाँ अपेक्षाकृत पोलिस बल कम होने के बावजूद उनको रोकने की जबरदस्त कोशिश की गयी और डंडे लहराकर पोलिस उनको भगाते रही | पर , ऐसा लग रहा था मानो वे विधानसभा को कम से कम छूकर ये बताना चाह रहे हों कि लोकतंत्र का ये मंदिर किसी की जागीर नहीं है | पोलिस लाख प्रयत्नों के बाद भी उन्हें विधानसभा की पिछली बाऊंड्रीवाल तक पहुँचने से नहीं रोक पायी |

क्या रैली पर लाठीचार्ज का निर्णय राजनैतिक था –

यह मानना अत्यंत मुश्किल है कि विधानसभा के चलते हुए पोलिस अपने मन से रैली के ऊपर लाठीचार्ज का निर्णय ली होगी | रैली को कई कांग्रेसी नेताओं के द्वारा संबोधित किये जाने के चलते , इसकी संभावना ही अधिक है कि रैली को विफल करने के लिए ही राजनीतिक रूप से बल प्रयोग की अनुमति पूर्व से ही पोलिस के पास होगी या उसे ऐसे निर्देश होंगे | वैसे भी प्रदेश में जितने भी आंदोलन अभी तक पिछले नौ वर्षों में हुए हैं , उनमें से अधिकाँश कुचले ही गए है | चाहे वे किसानों के हों या मजदूरों के या आदिवासियों के |

प्रदेश का प्रबुद्ध वर्ग हतप्रभ और नाराज –

आदिवासियों के ऊपर हुए इस क्रूर प्रहार से प्रदेश का प्रबुद्ध वर्ग हतप्रभ और नाराज है | लोगों का कहना है कि प्रदेश में आदिवासी किसी न किसी राजनैतिक दल के साथ जुड़े ही रहते हैं और उनकी सभा रैलियों में राजनैतिक नेताओं का संबोधन करना और शामिल होना स्वाभाविक प्रक्रिया का ही अंग है | प्रश्न उनकी मांगों का है , जिन्हें लेकर वे लंबे समय से आंदोलित हैं | वैसे भी उनकी जमीनों और जंगल पर लगातार ओद्योगिक घरानों के बेजा कब्जे होते जाने से भी वे व्यथित हैं | ऐसे में जब कहीं भी , कोई भी सुनवाई न होने की दशा में , उनके पास राजधानी आकर अपनी मांगो को आम लोगों के सामने रखने के अलावा चारा ही क्या रह जाता है | लोगों का यह भी कहना है कि विधानसभा में जनता के द्वारा चुने गए प्रतिनिधि ही जाते हैं | ऐसे में यदि जनता का एक हिस्सा विधानसभा के सामने जाकर प्रदर्शन करना चाहता है या सीधे विधानसभा पहुंचकर मुख्यमंत्री को ज्ञापन देना चाहता है तो उन्हें रोकने की क्या जरुरत है ? क्या एक बार चुनाव में हिस्सेदारी करने के बाद मत डालने वाली जनता के लिए लोकतंत्र का यह मंदिर क्या ऐसी जगह बन जाता है , जहां वह जा नहीं सकती ? ऐसे बहुत से प्रश्न आज उठ रहे हैं | लोग सोशल साईट्स पर फोटो डालकर पोलिस की इस कार्रवाई का विरोध कर रहे हैं | नगर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार गिरीश पंकज ने फेसबुक पर लिखा कि वे आदिवासियों पर किये गए बेरहम लाठी चार्ज से बहुत आहत हैं | उन्होंने अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए फेसबुक पर लिखा है कि रायपुर में आदिवासियों पर हुए पुलिसिया दमन से जो पीड़ा हुई, उससे अब तक नहीं उबर सका हूँ | हम लोग आदिवासियों को पीट रहे हैं और अपने को सही कह रहे  हैं ?  उनके हाथों में तीर-कमान, फरसे को देख कर विचलित हो रहे हैं ? गोया वे  हमारी जान लेने पर तुले थे ? अरे, ये तो उनके सहज श्रृंगार हैं | सदियों से रखते आये हैं और हमारी खूनी-व्यवस्था उसे हथियार बता कर धाराएँ लगा रही  है ? क्या आदिवासियों को अपने तरीके या परम्परा से जीने का हक़ ही  नहीं ?  ये कैसा लोकतंत्र है ?

अरुण कान्त शुक्ला
      

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