Saturday, March 5, 2011



8 मार्च अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर –

क्योंकि , वह मर्द जात से है -

वर्ष 2011 का 8 मार्च विश्व के अनेक देशों में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की 100वीं वर्षगाँठ के रूप में मनाया जा रहा है | संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस बार के महिला दिवस का फोकस महिलाओं को शिक्षा , प्रशिक्षण , विज्ञान ,और तकनीकी में समान अवसर उपलब्ध कराने पर रखा है ताकि महिलाओं को उचित , शालीन और संतोषजनक ढंग से कार्यों में पुरुषों के साथ भागीदारी करने के उचित अवसर सुलभ हो सकें |
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर दुनिया के कोने कोने में होने वाले सालाना जलसों का स्वरूप आज एक ऐसे उत्सव के रूप में परिवर्तित होते जा रहा है , जिसमें दुनिया की चंद महिलाओं के द्वारा आर्थिक , राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्रों में प्राप्त की गईं उपलब्धियों का गुणगान करके , बाकी सब महिलाओं से कहा जाता है कि वे उनके नक्शेकदम पर चलें | 100 वर्ष पहले लोकतांत्रिक चुनावों में महिलाओं को वोट करने के अधिकारकी मांग को लेकर यह आंदोलन शुरू हुआ था | सात वर्ष बाद 1917 में रूस की महिलाओं ने रोटी और कपड़े की मांग को लेकर महिला दिवस पर हड़ताल रखी और महिला दिवस को समाजवादी संघर्षों के एक अस्त्र के रूप में पहचान दिलाई | पर , आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के उद्देश्यों और उसे मनाने के तौर तरीकों से वह धार हट चुकी है और यह मुख्यतः महिलाओं के द्वारा अतीत और वर्तमान में प्राप्त उपलब्धियों को उत्सवित करने का मंच बनता जा रहा है | अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के उद्देश्यों और मनाने के तौर तरीकों में आये परिवर्तनों के दो प्रमुख कारणों में से पहला तो यह है कि पिछले 100 वर्षों के संघर्षों के फलस्वरूप समाज की  उच्च और  मध्यम वर्ग की महिलाओं के लिए , सीमित ही सही , पर अवसरों के द्वार खुले और अंतरिक्ष से लेकर विश्विद्यालयों में , दफ्तरों और फेक्ट्रियों में तथा राजनीति में राष्ट्रपति ,प्रधानमंत्री जैसे प्रमुख पदों के साथ साथ वैश्विक निगमों के कुंजी पदों पर महिलाओं की सक्रियता बढ़ी | पूंजीवादी व्यवस्था में परिवारों में आय का क्षरण लगातार होता है और लगातार बढ़ते ओद्योगिकीकरण ने इस संभावना को पैदा किया कि शिक्षित वर्ग के अंदर की महिलाएं अर्थ उपार्जन के लिए घर से बाहर निकलें , पर इस प्रगति ने घरों और समाज के साथ उनके सामंती संबधों को समाप्त नहीं किया , इसीलिये सामान्यतः महिलाएं घर और परिवार दोनों संभालती दिखाई पड़ती हैं | इन अवसरों ने शहरी महिलाओं और ग्रामीण महिलाओं के मध्य की पहले से मौजूद खाई को और चौड़ा किया | ग्रामीण स्तर पर इस विकास का कोई फायदा नहीं पहुँचने के चलते , अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस जैसे अनेक कार्यक्रम शहर के पढ़े लिखे तबके तक सीमित होकर रह गए | इसका नतीजा हुआ कि अंतररष्ट्रीय महिला दिवस के सुर ताल में भी परिवर्तन आया और वह व्यवस्था को चुनौती देने वाले अवसर के बजाय , जो कुछ भी सकारात्मक प्राप्त हुआ , उसे उत्सवित करने वाला दिन बनता गया |

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की धार कम होने का दूसरा बड़ा कारण नवउदारवाद की उन नीतियों में छिपा है , जिन्होंने पिछले चार दशकों में समाज में स्वयं केंद्रित विकास की अवधारणा को मजबूत किया है | इसके चलते समाज के शोषित और दबे तबकों में मिलकर संघर्ष करने और एक दूसरे के लिए लड़ने की भावना में गंभीर ह्रास आया | इन चार दशकों के दौरान , पूंजीवाद ने स्वयं केंद्रित विकास , जो अंततः समाज के शोषण के खिलाफ लड़ने वाले तबकों में विभाजन पैदा करता है , को बलवती बनाने और अपनी चमक को बरकरार रखने के लिए जो उपक्रम किये , उनमें , अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का अपहरण भी शामिल है | आज दुनिया के 25 से ज्यादा देशों में इस अवसर पर अवकाश घोषित किया जाता है | दुनिया की विभिन्न देशों की सरकारें , बड़े नैगमिक घराने , सरकारी और अर्धसरकारी प्रतिष्ठान , स्वायत्त संस्थाएं , अपने स्तर पर महिला दिवस पर चमकीले कार्यक्रम आयोजित कराने लगे हैं | सरकारों और कारपोरेट घरानों की इस चमक दमक के बीच महिला अधिकारों के लिए लड़ने वाले संगठन और मजदूर यूनियनें अवश्य सतत प्रयत्न करती रहती है कि अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का जुझारूपन बना रहे , मगर उन प्रयत्नों के बाद भी सचाई यही है कि नौजवान पीढ़ी का बहुत बड़ा हिस्सा सोचता है कि महिलाओं के लिए सभी लड़ाईयां जीती जा चुकी हैं और सामान अवसर के द्वार खुल चुके हैं | पर , दुर्भाग्य से ऐसा है नहीं | भारत सहित दुनिया के तमाम देशों में महिलाओं के साथ घट रही घटनाएं बताती हैं कि पितृ सत्तात्मक समाज की रूढियां , परम्पराएं , और सोच पूरी ताकत के साथ महिलाओं के खिलाफ सक्रिय हैं | आज भी महिलाओं को अपने पुरुष सहकर्मी की तुलना में कम मजदूरी दी जाती है | महिलाएं आज भी राजनीति और व्यवसाय में पुरुषों से संख्या में कम तो हैं ही , उन्हें पुरुषों के समकक्ष भी नहीं समझा जाता | वैश्विक स्तर पर स्वास्थ्य और शिक्षा के मामले में वे न केवल भेदभाव का शिकार हैं बल्कि कार्यस्थल से लेकर प्राथमिक शिक्षा के स्तर तक उनके खिलाफ यौन हिंसा को एक सामान्य सी घटना मानना सरकारों , प्रशासकों और समाज के अगड़ों की सोच में कायम है |

नार्थ अमेरिका , नार्थ अफ्रीका , लेटीन अमेरिका और मध्यपूर्व एशिया के अनेक देशों में कल्चर या धर्म के नाम पर स्त्रियों और छोटी लड़कियों के जननांगों को विकलांग ( Genital Mutilation ) करना , भारत सहित मध्यपूर्व एशिया में सम्मान ह्त्या (Honour Killing) ,  या अन्य और तरह से महिलाओं को शारीरिक यंत्रणा देना , कुछ उदाहरण हैं , जो समाज की महिलाओं के प्रति सोच को दिखाते हैं | हाल ही में संयुक्त राष्ट्र संघ के महिलाओं की दशा पर बनाए गए आयोग की 55वीं बैठक में एक प्रतिनिधी ने कहा कि महिलाओं के ऊपर होने वाले हिंसक व्यवहारों तथा अपराधों के खिलाफ एक ऐसे जागरुकता अभियान की जरुरत है , जो न केवल लड़कियों और महिलाओं को उनके अधिकार के प्रति सचेत करे बल्कि उससे ज्यादा वो कार्यक्रम पुरुषों , लड़कों , समुदायों , राजनीतिक , सांस्कृतिक तथा धार्मिक प्रमुखों को शिक्षित करे कि वे उन सभी रूढ़ियों , परम्पराओं , संस्कृति और धर्म को बदलें , जो महिलाओं को कमतर और दोयम दर्जे की समझने की सोच समाज में पैदा करती हैं और महिलाओं के खिलाफ हिंसा के लिए जिम्मेदार हैं |  भारत में यह विडंबनापूर्ण परिस्थिति है कि  अंतर्राष्ट्रीय  महिला दिवस के आसपास ही देश के सर्वोच्च न्यायालय को पत्रकार पिंकी वीरानी की उस याचिका पर फैसला सुनाना है , जिसमें पिंकी वीरानी ने हिंसक बलात्कार की शिकार अरुणा शानबाग के लिए सुखमृत्यु (Euthanasia) माँगी है , जो पिछले 38 सालों से मुम्बई के केईएम अस्पताल में अचेतावस्था में पड़ी है | अरुणा शानबाग अभी 61 वर्ष की है | सर्वोच्च न्यायालय का फैसला जो कुछ भी हो , पर अरुणा शानबाग के ये ३८ वर्ष मृत जैसे ही गुजरें हैं , वो भी बिना उसके किसी कुसूर के | इसी अस्पताल में लगभग पांच माह पूर्व दीपिका परमार नाम की एक महिला ने अपनी 45 दिन की बच्ची को खिड़की से बाहर फेंक दिया था | बच्ची को गंभीर चोटें आईं थीं और बाद में उसकी मौत हो गयी | अस्पताल के डाक्टरों के अनुसार दीपिका प्रसव उपरांत नैराश्य से पीड़ित थी , एक ऐसी दशा जिससे कुछ महिलाएं गुजरती हैं | जबकि सच्चाई यह है कि दीपिका ने जुड़वां बच्चों को जन्म दिया था , उनमें से दीपिका ने लड़की को फेंका , लड़के को नहीं | क्यों ? कड़वा सच यही हो सकता है कि परिवार और समाज का दबाव , जिसने दीपिका को नैराश्य में डाला और बच्ची को फेंकने पर मजबूर कर दिया | पिछले दो सालों का हिसाब उठाकर देखें तो ये दो साल खाप पंचायतों के असंवैधानिक , अतार्किक और अप्रगतिशील हिंसक फरमानों तथा सम्मान हत्याओं (Honour Honour Killing )  के रहे हैं , जिसे रोकने की सदिच्छा सरकार , प्रशासन , राजनीति और धर्म तथा संस्कृति के प्रमुखों , किसी ने नहीं दिखाई |

भारत में यदि प्रतिवर्ष लगभग एक लाख महिलाओं की प्रसव के दौरान मृत्यु होती है तो लगभग सात लाख लड़कियों की भ्रूणहत्या होती है | हमारा देश , संयुक्त राष्ट्रसंघ की लैंगिक असमानता सूची में 122वें नंबर पर है याने पाकिस्तान-112 , बंगला देश-116 और नेपाल-110 के भी बाद | ये वो देश हैं , जिनको हमारे देश के कतिपय संस्कृति और धर्म के स्वयंभू  ठेकेदार रूढ़िवादी और दकियानूसी बताते हैं | वे हैं , लेकिन हम कम नहीं हैं | हमारे देश में ऐसे अनेक स्कूल और कालेज हैं , जहां केवल रईसों और अतिसम्पन्न घरानों तथा राजा महाराजाओं के बच्चे ही पढ़ते है और वो भी केवल पुरुष बच्चे | ऐसे ही एक दून स्कूल के प्लेटिनम जुबली समारोह में बोलते हुए राष्ट्रपती प्रतिभा पाटील ने करीब छै माह पूर्व , वहाँ के दरवाजे लड़कियों के लिए भी खोलने की सिफारिश की थी | जब समाज के शिखर पर बैठे लोगों की सोच ऐसी हो तो किसी एक महिला के राष्ट्रपति बनने या पेप्सी जैसी कंपनी की दुनिया भर की प्रमुख बनने या चार चार महिलाओं का रिजर्व बैंक का डिप्टी गवर्नर बनना एक इत्तफाक से ज्यादा और क्या मायने रखेगा ! ऐसा नहीं है कि महिलाओं को समानता देने और दिलाने के प्रयासों के परिणाम नहीं निकले हैं | क़ानून भी बने हैं और सुविधाएं भी दी गईं हैं , पर जिन पर अमल कराने की जिम्मेदारी है , उनकी सोच रास्ते की बहुत बड़ी बाधा है | संसद में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने के सवाल पर इस सोच का प्रदर्शन हम लंबे समय से देख रहे हैं |

वर्षों पहले विख्यात उर्दू लेखिका इस्मत चुगताई ने अपना अनुभव लिखा था कि उनका बावर्ची खुद को उनसे श्रेष्ठ इसलिए समझता है , क्योंकि वह मर्द जात से है | एकबार यह सोच बदले तो महिलाओं के पक्ष में बदलाव , और तेजी से , और , और ज्यादा सकारात्मक होंगे | हमारे देश और समाज के शीर्ष पर बैठे लोगों को इसकी शुरुवात अपनी सोच में परिवर्तन लाकर करनी होगी , तभी समाज के सभी तबकों में भी परिवर्तन शुरू होगा |

अरुण कान्त शुक्ला                                                           

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