Wednesday, June 23, 2010

Jangadna men Jaati unmoolen

जनगणना और जाति उन्मूलन
इस सचाई के बावजूद कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में 'गरीबी मिटाना' और 'जाति मिटाना' दो
प्रमुख उत्प्रेरक तत्व रहे हैं,जनगणना में जाति की पहचान के प्रश्न को राष्ट्रीय एकता की भावुक नजरों से देखना गलत होगा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान तथा स्वतंत्र भारत के 63 वर्षों के दौरान भी , जातियता के उपर किये गये कड़ॆ प्रहारों के बावजूद , आज भी यदि भारतीय समाज की संरचना को समझना है तो जातीयता के प्रश्न से गुजरना ही होगा विडम्बना यह है कि जाति उन्मूलन पर बहस शुरु होते ही उच्च जाति से लेकर निचली जाति तक के सभी नुमांइदों का व्यवहार पाखंडी हो जाता है अधिकांश बुध्दिजीवी , राजनीतिज्ञ , स्तम्भकार , अखबारोंतथा चैनलों के सम्पादक जातियता के खिलाफ तरकश लेकर खड़े हो जाते हैं , जैसा कि अभी जनगणना में जातिकी गणना के सवाल को लेकर हो रहा है पर , जाति व्यवस्था से इस कदर नफरत करने वालों में से उंगलियों पर गिने जा सकने लायक कुछ ही होंगे , जिन्होनें अपने जाति सूचक कुलनाम या उपनाम छोड़े हैं , जिससे पता चले कि वे अपने प्रयासों में गम्भीर हैं यह काम स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान भी नहीं किया गया , जब जाति व्यवस्था पर सबसे कड़े प्रहार हो रहे थे यहां तक कि गांधी और आम्बेडकर , दोनों ने भी अपना उपनाम
नहीं छोड़ा , जो हरिजनों और दलितों के उपर होने वाले उत्पीड़न , शोषण के खिलाफ संघर्ष के अग्रणी नेता थे
यह सब बताने का अर्थ कतई जाति व्यवस्था की तरफदारी करना नहीं है , बल्कि यह बताना है कि जाति व्यवस्थाकी जड़ें भारतीय समाज में बहुत गहरी हैं और इसे 'मेरी जाति हिन्दुस्तानी' या 'पीपलस आफ इंडिया' जैसे आदर्शवादी नारों या भावनाओं से समाप्त नहीं किया जा सकता है
जनगणना में जाति गणना पर बहस-
यह स्वागत योग्य है कि भारतीय लोकतंत्र स्वतंत्रता के 63 वर्ष के पश्चात आज सामाजिक विडम्बनाओं ,
उनके निराकरणों तथा आदर्श समाज के गठन जैसे गम्भीर प्रश्नों पर बहस में जुटा है यही कारण है कि महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने के सवाल पर बरसों लम्बी बहसें होती हैं और उसे लागू करने के सवाल पर अभी भीजद्दोजहद बाकी है यही स्थिति जनगणना में जाति की गणना को लेकर है किसी भी बहस में जाने से पहले अपनेअनुभवों को टटोल लेना अच्छा होता है आजाद भारत में जाति के आधार पर जनसंख्या का आंकलन jaatiव्यवस्था को मिटाने की पूर्ण सदभावना के साथ छोड़ दिया गया था समस्त सरकारी अभिलेखों , रजिस्टरों औरआवेदन प्रपत्रों से जाति का उल्लेख करने वाली प्रविष्टियां हटा दी गईं थीं जैसा कि मैने पूर्व में कहा है , भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष का एक प्रमुख उत्प्रेरक घटक 'जाति व्यवस्था मिटाना ' था , अत: स्वाभाविक रुप से स्वतंत्र भारत का भी एक प्रमुख उद्देश्य इस सामाजिक बुराई को समाप्त करना बना किंतु, क्या पिछले 63 वर्षों में जाति व्यवस्था
समाप्त हो पाई ? इसके ठीक उलट ,आज अनेक समुदाय स्वयं को निचली जातियों अथवा आदिवासियों में शामिलकराने के लिये हिंसक आन्दोलन कर रहें हैं , ताकि उनको जाति आधारित आरक्षण का अधिकतम लाभ मिलसके इसी का नतीजा है कि तमिलनाडु में आरक्षण सत्तर प्रतिशत तक पहुंच गया है यद्यपि , उच्चतम न्यायलय ने इसे पचास प्रतिशत तक सीमित रखा है
बात केवल सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण प्रदान करने की नहीं है
स्वतंत्रता पश्चात अभी तक हुए समस्त लोकसभा , विधानसभा , स्थानीय निकायों व पंचायतों तक के चुनावों में जातियता का घनघोर (दुर)उपयोग समस्त राजनैतिक दल करते रहे हैं यहाँ तक कि वामपंथी राजनैतिक दल भी उम्मीदवार खड़ा करते समय जाति समीकरण पर अवश्य ध्यान देते हैं देश में पिछले 40 वर्षों में ऐसे अनेकराजनैतिक दलों का प्रादुर्भाव हुआ है ,,जिनके गठन का आधार ही जातियता और क्षेत्रियता है लालू, मुलायम, शरद,रामविलास पासवान, ममता, मायावती, करुणानिधि, जयललिता,चंद्रा बाबू, ठाकरे परिवार ऐसे ही राजनैतिक दलोंका प्रतिनिधित्व करते हैं ये सभी दल कांग्रेस या बीजेपी के साथ गठबंधन करके या स्वयं का अलग मोर्चाबनाकर अखिल भारतीय राजनीति का हिस्सा भी हैं इनमें अनेक ऐसे हैं , जिनका अन्य पिछड़ी जातियों मेंठोस आधार है इनका तर्क है कि जनगणना में जाति-आधारित गणना नहीं होने से पिछड़ी जातियों की संख्या ,उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति का सही मूल्यांकन नहीं होता है , जिसके कारण केंद्रीय स्तर पर बनाई जाने वाली योजनाओं में उन्हें उचित प्रतिभाग नहीं मिलता है उनका तर्क एकदम खारिज नहीं किया जा सकता
यह दलील भी बेमानी है कि व्यवस्थाजन्य आर्थिक शोषण पूरी जनसंख्या पर समान रुप से असर डालता है भारत में एक व्यक्ति पैदा होते ही समर्थ या दीन घोषित हो जाता है जिस जाति में वह पैदा होता है , वह जातिउसे पैदा होते ही कुलीन , पिछड़ा या दलित बना देती है , साथ ही इसका निर्णय कर देती है कि वह क्या कामकरेगा और किस समूह में उसका विवाह होगा एक बार पेशा और सामाजिक स्थिति निर्धारित होने के बाद देश के सामाजिक और आर्थिक विकास का हिस्सा भी उसे उसी अनुपात में प्राप्त होता है इसलिये , जरुरी है , उस जड़ पर प्रहार करना , जिसके हित जातीय व्यवस्था में सुरक्षित हैं
जाति -गणना नया विचार नहीं -
जनगणना में अन्य पिछड़ी जातियों की गणना और उनके पिछड़ेपन को आंकने के लिये जाति को
आधार बनाने का विचार नया नहीं है इ पी डब्लयू रिसर्च फाउंडेशन के निदेशक कनकसबापथी के अनुसार जनगणना में जाति की गणना को छोड़ देने के पश्चात भी 1955 में प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग ने सिफारिश की थी कि 1961 की जनगणना में जनसंख्या की गणना जाति के आधार पर की जाये तथा पिछड़ापन निश्चित करने के लिये " जाति का मानक " रखा जाये आयोग ने पिछड़ी जातियों के रुप में 2399 जातियों की सूची भी तैयारकी थी , जिसमें से 837 जातियों का वर्गीकरण " अत्याधिक पिछड़ी " के रुप में किया गया था इस रिपोर्ट को उस समय इस डर से दाखिल दफ्तर कर दिया गया था कि पिछड़ी जातियों की बहुलता होने से सही या योग्य जरुरतमन्दों की तरफ विशेष ध्यान नहीं दिया जा सकेगा इसके पश्चात द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने ब्रिटिश राज में 1931 में हुई अंतिम जाति आधारित जनगणना के आंकड़ों को आधार बनाकर आंकलन पेश किया कि कुलजनसंख्या का 54 प्रतिशत ( दलित और आदिवासियों को हटाकर ) हिस्सा पिछड़ी जातियों और समुदायों का है आयोग ने 3743 जातियों और समुदायों की पहचान पिछड़े के रुप में की थी
जाति गणना पर आपत्तियां -
वह चाहे ' मेरी जाति हिंदुस्तानी ' आंदोलन हो , जिसके संयोजक वैद प्रताप वैदिक हैं और जिसमें
सोमनाथ चटर्जी , बलराम जाखड़ , राम जेठमलानी , पूर्व केंद्रीय मंत्री आरीफ खान से लेकर नृत्यांगना सोनल मानसिंह और उमा शर्मा हैं या अखबारों तथा चैनलों के संपादक , स्तंभकार और बुद्धिजीवी , सभी का सोचना है कि जनगणना मेंजाति की गणना के समावेश से देश पुन: पुराने जातीय दलदल वाले युग में पहुंच जायेगा कमोबेश , इन सभी का कहना है कि केंद्र सरकार अपने अस्तित्व को बचाये रखने के संकीर्ण राजनैतिक स्वार्थ के चलते यादवी त्रिमूर्ति के समक्ष समर्पण कर रही है गरीबी केवल पिछड़ों तक सीमित नहीं है एक ऐसे देश में जहाँ की आबादी के 40 प्रतिशत लोग एक डालर प्रतिदिन से कम पर गुजारा करते हैं , सभी राजनैतिक दलों का संयुक्त प्रयास होना चाहिये कि लोगों की दारुण आर्थिक अवस्था को सुधारा जाये इनका यह भी कहना है कि वक्त आ गया है जब आरक्षण का आधार बद्लकर जाति के बजाय गरीबी किया जाये आरक्षण का आधार जाति नहीं बल्कि एक व्यक्ति कितना कमाता है , यह हो
जाति गणना का सकारात्मक पक्ष -
प्रश्न यह है कि जनगणना में सिर्फ पिछड़ी जातियों को ही क्यों छोड़ दिया जाये ? जनगणना में सभी धर्मों ,एस सी / एस टी की पहचान की जाती है चाहे जो भी कारण हो पर अन्य पिछड़ी जातियों को जानबूझकर छोड़दिया जाता है जब पिछड़ी जातियों को आरक्षण देना स्वीकार किया ही गया है , तो वह 1931 की जनगणना के आधार पर क्यों दिया जाये ? जनगणना में सेक्स , आयु , धर्म , व्यवसाय , उपार्जन , गतिविधि , शिक्षा , भाषा ,एस सी / एस टी से संबंधित अनेक जनसांख्यिकीय आंकड़े एकत्रित होते हैं , जो समाज के अन्दर व्याप्त विसंगतियों ,परिवर्तनों , विकास और अवरोहों की पहचान कराते हैं जनगणना के जरिये प्राप्त वास्तविक आंकड़े हमें बता सकते हैं कि कितनी जातियां अभी तक आर्थिक और सामाजिक रुप से वास्तव में कितनी पिछड़ी हैं तथा शिक्षा , व्यवसाय और आधारभूत संरचना के उपभोग के मामले में जातियों के मध्य का अंतर और भेदभाव कितना है जनगणना में जाति
को शामिल करके सरकार को भविष्य की योजनाएं बनाने की दिशा मिलेगी और भारतीय समाज की सही तस्वीर हमारे सामने होगी इसके अतिरिक्त साम्प्रदायिक तत्व जो मौका मिलते ही समाज में धर्म , जाति और सम्प्रदाय के नाम पर भ्रांति और तनाव फैलाते हैं , हतोत्साहित होंगे यह तो तय है कि जनगणा में जाति को शामिल नहीं करके एक अवास्तविक आदर्श्वादी स्थिति जरुर बनाई जा सकती है , पर जाति व्यवस्था का उन्मूलन नहीं किया जा सकता
तो , क्या जाति व्यवस्था का उन्मूलन कभी सम्भव ही नहीं है ? क्या जाति व्यवस्था थोड़े बहुत
फेरबदल के साथ यूं ही बनी रहेगी ? इसी तरह के सभी प्रश्नों का जबाब एक बड़े नहीं में दिया जा सकता है आज जिस विकसित औद्योगिक समाज में हम रह रहे हैं , उसमें जाति व्यवस्था के लिये कोई स्थान नहीं है पर , भारत ही नहीं जाति का उभार एक या दूसरे रुप में पूरी दुनिया का सरदर्द आज बना हुआ है इसका कारण है कि विश्व पूंजीवाद ने , पूंजीवाद के जन्म के साथ ही समाज में पैदा हुई वर्गीय ताकत को तोड़ने के लिये जिन सामंती तौर तरीकों के साथ समझौता किया , जाति व्यवस्था के साथ समझौता उसी का हिस्सा है जाति व्यवस्था का समूल नाश न तो भारतीय लोकतंत्र के अकेले के बस की बात है और न ही कोरे आदर्शवादी नारों या भावनाओं से इसे समाप्त किया जा सकता है पूंजीवाद ने वर्गीय एकता और मजबूती को तोड़ने के लिये जाति व्यवस्था के साथ समझौता किया है , वर्गीय एकता को मजबूत बनाकर ही जाति व्यवस्था से छुटकारा मिल सकता है

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