Tuesday, June 7, 2011

भ्रष्टाचार , सत्याग्रह और बर्बर दमन--


भ्रष्टाचार , सत्याग्रह और बर्बर दमन--


 

भारतीय राजनीति को थोड़ा सा भी ध्यान से देखने वाला व्यक्ति जानता है कि कांग्रेस देश के बड़े पूंजीपतियों और जमींदारों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी है | यह मुख्य विरोधी पार्टी भाजपा से केवल इस मामले में तनिक अलग है कि साम्प्रदायिकता इसका मुख्य एजेंडा नहीं है लेकिन जब भी इसे आवश्यकता महसूस होती है , यह साम्प्रदायिकता से समझौता करने में परहेज नहीं करती है | शाहबानो के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को नकारने वाला क़ानून बनाने का मामला हो या बाबरी मस्जिद ध्वंस के समय नरसिम्हाराव की आपराधिक निष्क्रियता , इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं | पूंजीवादी व्यवस्था में कोई भी बुर्जुआ राजनीतिक दल तभी तक लोकतांत्रिक बना रहता है , जब तक आप उसकी सत्ता को चुनौती नहीं देते या जब तक देश के पूंजीपतियों और धन्नासेठों के हितों पर आंच नहीं आती | जैसे ही उन्हें महसूस होता है कि अब उनके हितों के ऊपर प्रहार हो रहा है , वे लोकतंत्र का बाना उतारकर तानाशाह बन जाते हैं | वर्त्तमान मामले में भी यही हो रहा है | आप इसे इस तरह और बेहतर तरीके से कह सकते हैं कि " एक क़ानून का राज तभी तक क़ानून का राज रहता है , जब तक आप उसे चुनौती नहीं देते , जैसे ही आप उसे चुनौती देते हैं या क़ानून को अपने पक्ष में इस्तेमाल करने लगते है , या तो क़ानून बदल दिया जायेगा या क़ानून का राज खत्म करके , जंगल का क़ानून लागू कर दिया जायेगा | जैसा कि अभी दिल्ली में हुआ है कि निहत्थे और सोते हुए लोगों पर प्रशासन बर्बरता के साथ टूटा | इसकी जितनी निंदा की जाये कम है |


 

प्रश्न रामदेव के जनांदोलन संगठित करने में अनाड़ीपन का नहीं है जैसा कि उनके प्रशंसक और अनुयायी दबे स्वर में कहते हैं | रामदेव स्वयं केन्द्र सरकार के फैलाए सम्मोहन में फंसे हुए थे और अपनी तथाकथित सफलता से अति आत्ममुग्ध थे , यह उनकी बातों और घोषणाओं से स्पष्ट है | यह एक जनांदोलन तो था ही नहीं , रामदेव की व्यक्तिगत महत्वाकान्क्षाओं , घमंड और अहं का सैलाब था ,जो फूटे पड़ रहा था | केंद्र सरकार ने उन्हें अन्ना के आंदोलन को कमजोर करने के अस्त्र के रूप में इस्तेमाल किया | उस अहं में वे यह भी भूल गये कि जनांदोलन सरकारों के साथ गुप्त समझौता करके नहीं चलाये जाते और उनका साबका एक कुटिल सरकार से है | अपनी आवभगत और पूछ परख में डूबे रामदेव ने सरकार से समझौता भी किया और अपने अनुयायिओं सहित देश के लोगों को धोखा भी दिया , जो किसी भी प्रकार से क्षम्य नहीं है | यह कहने की कोशिश हो रही है कि इस देश के 121 करोड़ रीढ़विहीन लोगों में से कम से कम रामदेव बाबा ने यह साहस दिखाया कि काले धन के सवाल पर आंदोलन की राह पर चले | इस देश के 121 करोड़ लोग रीढ़ विहीन नहीं हैं | यदि ऐसा होता तो बड़ी संख्या में जो किसानों और मजदूरों के आंदोलन हो रहे है , जिसमें वे अपनी जाने गँवा रहे है , वे आंदोलन नहीं हुए होते | बाबा ने काले धन का मामला उठाया , अच्छा किया | पर , इस प्रक्रिया में वे यह भूल गये कि पूंजीवादी ही सही , पर भारत के इस लोकतंत्र के लिये लोगों ने कुरबानियां दी है और उसे 1975 के काले दिनों में भी बचाकर रखा है | यदि वह लोकतंत्र इसी तरह ऐसे कुछ व्यक्तियों की इच्छाओं और सनकों पर , जिनके पास अपने किसी और प्रोफेशन की वजह से दो , चार , दस लाख लोगों को इकठ्ठा करने की ताकत है , चलने लगा , तो देश के मजदूर और किसान अपने छोटे छोटे हितों की रक्षा के लिये भी कहाँ जायेंगे ? मैंने अपने लेख "भारतीय उच्च वर्ग : साधारण नागरिक दायित्व बोध से भी दूर" में कहा है कि " भारतीयों का विदेश में जमा कालाधन , राजनीतिज्ञों , नौकरशाहों और उच्चवर्ग की मिलीभगत से फैले भ्रष्टाचार के दोषियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई निहायत जरूरी है , इससे किसी को इनकार नहीं हो सकता | पर , उतना ही या उससे भी ज्यादा जरूरी उस सफ़ेद धन के एकत्रीकरण पर अंकुश लगाना और उसे बाहर निकालना भी है , जो मित्र-पूंजीवाद की सहायता से उच्चवर्ग ने अनाप-शनाप तरीकों से एकत्रित किया है और करते जा रहे हैं | थोड़ी सी ही बुद्धी लगाने से यह समझ में आ सकता है कि यदि देश से बाहर गया खरबों रुपये का काला धन पूरा का पूरा सरकारी खजाने में आ भी जाये , भ्रष्टाचारियों से हड़पी गयी लाखों करोड़ की राशी पूरी की पूरी वसूल भी हो जाये , तब भी इसकी गारंटी क्या है कि ये उच्च वर्ग सरकारों के ऊपर दबाब बनाकर नीतियां ही ऐसी नहीं बनवा लेगा कि सरकारी राजस्व का बहुतायत हिस्सा फिर उनकी तिजोरी में पहुँच जाये |"


 

देश का पैसा बाहर नहीं जाना चाहिये और काला धन देश के अंदर आना चाहिये , इस पर किसी को क्या आपत्ति हो सकती है , पर क्या उतना पर्याप्त है ? रामदेव यह मांग उठाने वाले पहले व्यक्ति नहीं हैं , इस देश का वामपंथी आंदोलन संसद के अंदर और संसद के बाहर लगातार काले धन को सामने लाने और उसे जमा करने वालों के खिलाफ कठोर कार्रवाई करने की मांग करता रहा है , जिसमें विदेशों में जमा धन और मारीशस के रास्ते भारत के शेयर बाजार में आने वाला कालाधन भी शामिल रहा है | यह मांग एकांकी नहीं हो सकती है | रामदेव जिस समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं , वह भारत का बीस रुपये रोज पर निर्वाह करने वाला समुदाय नहीं है | इसमें दो बातें महत्वपूर्ण हैं , जिनका जिक्र किये बिना किसी भी बात को समझना आसान नहीं होगा | पहली यह कि , वह आंदोलन चाहे अन्ना का हो या रामदेव का , उसके पीछे इतनी संख्या में मध्यम वर्ग इसलिए एकत्रित हुआ क्योंकि यही वह वर्ग है जो देश की अस्मिता और प्रतिष्ठता पर थोड़ी भी आंच आने पर बहुत ज्यादा प्रभावित होता है | इसके तार दुनिया से किसी न किसी तरह जुड़े रहते हैं और इन करप्ट और लालची राजनीतिज्ञों , नौकरशाहों और धन्नासेठों की वजह से भारत की प्रतिष्ठता बहुत धूमिल हो रही थी | यह वर्ग अच्छी तरह से जानता है कि यदि काला धन आ भी जाये और भ्रष्टाचार रुक भी जाये , तो भी उस पैसे का इस्तेमाल आम आदमी के लिये नहीं होने वाला है | यहाँ तक कि रामदेव भी उसे नहीं करा सकते हैं , क्योंकि , जैसा वो खुद कह रहे थे कि उनकी लड़ाई सत्ता से नहीं है , व्यवस्था बदलने से है और बदली व्यवस्था क्या होगी और कैसी होगी , उसका कोई विजन रामदेव के पास नहीं है | हो भी नहीं सकता क्योंकि उतनी योग्यता और राजनीतिक समझ भी उनमें नहीं है | यह लोकपाल बिल में प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को शामिल करने के सवाल पर उनकी ढुलमुल प्रतिक्रिया से पता चल गया था | दूसरी बात यह है कि , मध्य पूर्व के देशों में हुए जनांदोलनों , विशेषकर , मिश्र की घटनाओं , ने हमारे देश के मध्यवर्ग के ऊपर यह प्रभाव डाला कि इस तरह के आन्दोलनों से सरकार से बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है | अन्ना को मिली सफलता ने भ्रांति को न केवल मध्यवर्ग में पुष्ट किया , स्वयं रामदेव भी उसका शिकार हो गये | जबकि , उन देशों की परिस्थिति और भारत की परिस्थितियों में जमीन आसमान का अंतर है | वहाँ लोग उस लोकतंत्र के लिये लड़े जो हमारे देश में पहले से ही मौजूद है , फिर चाहे वह बहुतायत लोगों को वंचना देने वाला ही क्यों न हो | यदि रामदेव इस मुगालते में नहीं होते तो गिरफ्तारी देने के बजाय वे महिलाओं के बीच में छिपते और भागने की जुगत करते नहीं फिरते | आज रामदेव को भगतसिंह और गांधी याद आ रहे हैं | पर, उन्हें अपनी करतूतों की तुलना देश के इन सम्मानित और कुरबानियां देने वालों से करके , उनका अपमान करने का कोई अधिकार नहीं है |


 

कुछ लोग कहते हैं कि जनांदोलनों का कोई अनुभव नहीं होने की वजह से उनसे कुछ अनाड़ीपन हो गया | रामदेव ने जो किया , वह अनाडीपन नहीं , बल्कि उससे भी बड़ा और गंभीर अपराध है | वे कोई गोरिल्ला युद्ध या भगतसिंह जैसी लड़ाई नहीं लड़ रहे थे | भगतसिंह ने एक विदेशी शासन का , जबकि वे जानते थे कि उनकी मौत निश्चित है , बहादुरी से मुकाबला किया था | उन्हें जेल से भागने का प्रस्ताव मिला तो उन्होंने मना कर दिया था | गांधी ने भी कभी भी गिरफ्तारी से बचने के लिये मुँह छिपाकर भागने का रास्ता नहीं अपनाया | गांधी आज सरकार की लाठियां चलने पर रोते या नहीं , जैसा के रामदेव कह रहे हैं , मैं नहीं जानता पर रामदेव के भागने पर जरुर रोते | रामदेव एक जनांदोलन का नेतृत्व कर रहे थे , जिसकी अपनी जिम्मेदारियां होती हैं , जिसे वे पूरा नहीं कर पाए | अब में अंतिम बात पर आता हूँ , क्या दिल्ली की घटना को अंजाम देने के पीछे सरकार की मंशा देश को आतंकित करने की नहीं थी ? बिलकुल थी , सरकार की तरफ से जिस सौम्यता की आवश्यकता सरकार समझती थी , वह अन्ना से उसे हासिल हो चुकी थी | रामदेव सरकार से अनशन शुरू करने के पहले ही समझौता करके कमजोर पड़ चुके थे | ऐसे में सरकार को अपने को मजबूत सिद्ध करने का मौक़ा रामदेव ने ही सरकार को मुह्हैय्या कराया | सरकार ने भविष्य में कोई जनांदोलन न करे इसका सन्देश दिया तो वह अवसर रामदेव की कृपा से ही उसे मिला | आप अन्ना के आंदोलन को याद करिये , उस समय सरकार ने अन्ना के सामने समर्पण नहीं किया था ,बल्कि अन्ना का इस्तेमाल सरकार ने प्रेशर कुकर के सेफ्टी वाल्व के समान किया था | आप भारतीय स्त्रोत के गूगल को टटोलें तो पायेंगे कि 14 मार्च से 22 मार्च, 2011 के मध्य केवल तीन लेखों में अन्ना के नाम का जिक्र आया था | मार्च, 23 को अन्ना हजारे ने घोषणा की कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने उन्हें मुलाक़ात के लिये बुलाया है | प्रधानमंत्री कार्यालय ने कहा कि सरकार अन्ना से लोकपाल बिल पर बात करेगी , जिसके लिये वे आमरण अनशन पर बैठने वाले हैं | इसके बाद मार्च, 24 से 31,मार्च के मध्य गूगल पर सर्च में 4281 लेखों में अन्ना का नाम आया है | मेरा इरादा किसी भी तरह , इन प्रयासों को छोटा करके आंकने का नहीं है | पर, इनसे उपजी खुमारी में डूबने के पूर्व , यह याद रखना बहुत जरूरी है कि ये प्रयास किसी भी तरह इन सरकारों या उस व्यवस्था की मूलभूत नीतियों में कोई परिवर्तन नहीं लाते हैं , जिनसे आम जनता की जिंदगी में कोई फर्क पड़े |


 

शायद कुछ बुनियादी बातों की तरफ लौटने से बात ज्यादा साफ़ हो | मनमोहनसिंह , प्रणव, या चिदंबरम और उनके मालिक अमेरिका की दुनिया में , केवल एक ही बात है , जो अपराध है , वह है गरीब का धनवानों के राज का प्रतिरोध करना या उसे चुनौती देना | उनके मुक्त बाजार में हर चीज बिकाऊ है , सांसद , मीडिया , मंत्री फिर चाहे वे केन्द्र के हों या राज्य के , न्याय , लोकतंत्र , सिविल सोसाईटी , सामाजिक कार्यकर्ता , संत और बाबा , सभी | ये राहत या संतोष देते इसलिए दिखते है कि अभी भी अच्छे और भोले लोग हैं , जो यह समझते हैं कि आयोगों और कानूनों से व्यवस्था में सुधार लाया जा सकता है | पर, ऐसा होने का नहीं है | इसके लिये , लोगों को खुद जागरूक होना होगा , लड़ना होगा , बाबाओं से मुक्त होकर , एक ऐसी व्यवस्था के लिये , जो वर्त्तमान व्यवस्था के ठीक उलट हो और जिसमें जनता के हाथों में लोकतांत्रिक अधिकार झुनझुने के समान नहीं बल्कि वास्तव में हों | यह व्यवस्था गहरे तक सड़ चुकी है , रामदेव के अफलातूनी और आधे अधूरे ख़्वाबों से यह नहीं सुधरेगी |

अरुण कान्त शुक्ला

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