Monday, November 7, 2011

कसौटी पर अन्ना टीम –


 कसौटी पर अन्ना टीम –


टीम अन्ना के आचरण के बारे में नित नए हो रहे खुलासे और  टीम में उभरते मतभेदों की खबरें उन लोगों के मन में हताशा पैदा करने के लिये पर्याप्त हैं , जो अन्ना को सत्याग्रह के गांधीवादी तौर तरीकों का प्रतिनिधि मानकर , आंदोलन को सिद्धांतों पर आधारित ऐसा आंदोलन मान रहे थे जो सही और गलत तथा अच्छे और बुरे में सही और अच्छे के पक्ष में लड़ा जा रहा था | अरविंद केजरीवाल , किरण बेदी और प्रशांत भूषण के आचरण और अन्ना के मौनव्रत के दौरान तथा मौनव्रत के पूर्व और बाद में दिये गये नित नए बयानों तथा धमकियों ने मध्यवर्ग के उस बड़े हिस्से की भावनाओं को तगड़ी चोट पहुंचाई है , जो अन्ना के साथ , उनकी साफ़ सुथरी छवि के साथ जुड़ा था और उन्हें उनकी टीम में सबसे ज्यादा साफ़ सुथरा और विश्वसनीय मानकर उम्मीद लगाए बैठा था कि वो गलत को कभी भी प्रश्रय नहीं देंगे | हाल में पैदा हुए हालात बताते हैं कि लोगों की इस धारणा को चोट पहुँची है | विशेषकर , अन्ना के ब्लॉग मेनेजर राजू पारुलेकर ने स्वयं अन्ना की हस्तलिपि में हस्ताक्षर की गई चिठ्ठी को ब्लॉग में डालकर अन्ना के एक दिन पूर्व दिये गये बयान को असत्य के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया है |


अन्ना टीम के दो महत्वपूर्ण सदस्य किरण बेदी और अरविंद केजरीवाल अपने कदाचार को इस बिना पर दबंगई के साथ उचित ठहरा रहे हैं  क्योंकि वे समाज सेवा के पुनीत कार्य में लगे हैं | गोया , समाज सेवा या एक एनजीओ चलाना ऐसा पुनीत कार्य है कि वह साधारण नागरिक से भी अपेक्षित सदाचार के अनुपालन से उन्हें छूट दे देता है | किरण बेदी स्वयं भारत सरकार में जिम्मेदार पदों पर रह चुकी हैं और वे बेहतर ढंग से जानती हैं कि यात्रा व्यय बिल में हेरफेर कितने भी पुनीत उद्देश्य के साथ क्यों न किया जाये , कदाचार और अनैतिकता ही है | कमोबेश यही स्थिति अरविंद केजरीवाल के साथ है | प्रशासनिक सेवा में रहते हुए किये गये नियमों के उल्लंघन को वे इस बिना पर ठीक ठहराना चाहते हैं , क्योंकि वे सूचना के अधिकार जैसे आंदोलन के लिये काम कर रहे थे | प्रधानमंत्री को जो पत्र उन्होंने लिखा है , वो एक ढिटाई से अधिक कुछ नहीं है | उनसे , क्योंकि उन्हें संविधान की गहरी जानकारी है , यह अपेक्षा तो रखी जा सकती है कि वो पैसा और पत्र भारत के राष्ट्रपति को भेजते , जिसके वे मुलाजिम थे | बहरहाल , विडंबना यह है कि दोनों समाज के लिये उनके द्वारा किये जा रहे कार्यों की कीमत चाहते हैं और वह कीमत है , थोड़े बहुत कदाचार की छूट |
मेरा कोई भी उद्देश्य अन्ना टीम की व्यक्तिगत नीयत पर प्रश्नचिन्ह लगाने का नहीं है | भारत में भ्रष्टाचार के ताने बाने की ढिलाई को समझाने के लिये उपरोक्त विश्लेषण आवश्यक है , इसीलिये किया गया है | भ्रष्टाचार स्वयं में अलग थलग कोई स्वतान्र कृत्य नहीं है , जिसका मनुष्य के आचरण के अन्य मूल्यों , मसलन , नैतिकता , सदाचार या सद्विवेक के साथ कोई संबंध न हो | बल्कि , ये वे मूल्य हैं जो मनुष्य को भ्रष्ट होने से रोकते हैं | यदि व्यक्तिगत रूप से लाभान्वित नहीं होना ही नैतिकता ,सदाचार और सद्विवेक की एकमात्र कसौटी है तो प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह की , सद्विवेक को इस्तेमाल नहीं करने के लिये की जा रही , सारी आलोचनाएं व्यर्थ हैं क्योंकि आज तक व्यक्तिगत लाभ प्राप्त करने के लिये सद्विवेक का इस्तेमाल नहीं करके भ्रष्टाचार होते रहने का दोष किसी ने भी उन पर नहीं लगाया है |


दरअसल , शुरुवाती जूनून खत्म होने के साथ यह स्पष्ट होता जा रहा है कि अन्ना टीम की समझ भी भ्रष्टाचार के मामले में उन करोड़ों भारतीयों की औसत समझ से ऊपर नहीं है , जो ये मानते हैं कि भ्रष्टाचार बहुत बुरा है , किन्तु नैतिकता , सदाचार और सद्विवेक को उसमें शामिल नहीं करते | या इसे यूं भी कहा जा सकता है कि भारत में भ्रष्टाचार का ताना बाना इतना ढीला है कि इसके अनेक स्वरूप नैतिकता , सदाचार और सद्विवेक के दायरे से बाहर ही रहते हैं | इसका प्रमुख कारण यह है कि भारतीय समाज में पारिवारिक , व्यक्तिगत और मित्रता के संबंधों को सामाजिक संबंधों से ज्यादा महत्व दिया जाता है | अपने पद और प्रभाव का इस्तेमाल परिवार , मित्रों और खुद से संबंधित संस्थाओं के लिये करने वाले व्यक्ति को सम्मान और प्रतिष्ठता के साथ देखा जाता है | मसलन , कोई प्रभावशाली व्यक्ति अपने परिवार या मित्र समाज के सदस्य का कार्य शासकीय या निजी संस्थान में स्वयं के प्रभाव के चलते नियमों की अवेहलना करके करवाता है , तो उसे अनैतिक या कदाचारी नहीं माना जाता , बल्कि सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है | जो ऐसा नहीं कर सकता , वह प्रभावहीन समझा जाकर असम्मानित होता है | उदाहरण के लिये यदि कोई अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके परिवार या मित्र समाज में किसी ऐसे व्यक्ति को ड्राईविंग लाईसेंस दिलवा सकता है , जिसे गाड़ी चलाना नहीं आता तो वह व्यक्ति प्रभावशाली मानकर सम्मान की दृष्टि से देखा जायेगा | यह समाज में ऊपर से नीचे तक याने संपन्न तबके से लेकर सबसे निचले तबके तक समान रूप से लागू है |


इसी तरह धन , राजनीतिक या पद के प्रभाव के चलते अपने घर पर या कहीं भी अपने अधीनस्थ लोगों से बेगार कराने को भारतीय वातावरण में सम्मान समझा जाता है | प्रभावशाली व्यक्ति न केवल स्वयं से जुड़ी संस्थाओं बल्कि अनेक सार्वजनिक कामों के लिये भी अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके धन एकत्रित करते हैं और इसे वे स्वयं तथा समाज भी सम्मान की दृष्टि से देखता है | विडम्बना यह है कि इस सचाई को कोई भी स्वीकार नहीं करना चाहता है कि जब भी किसी पक्षपात के लिये किसी नियम को तोड़ा जाता है तो उस संस्था की विश्वसनीयता घटती है | इस तरह का पक्षपात बाकी समाज के टूटते विश्वास की कीमत पर किया जाता है , इसे मानने को नियम तोडने वाला तैयार नहीं होता है क्योंकि वह समझता है कि उसने कोई व्यक्तिगत फायदा नहीं उठाया है और अपने कृत्य को वह नैतिकता , सदाचार और सद्विवेक के दायरे से बाहर रखता है | प्रभावशाली व्यक्तियों का यह व्यवहार समाज को नियमों को तोड़ने और फिर उसका बचाव करने के अनैतिक , कदाचारी और अविवेकपूर्ण रास्ते पर ले जाता है |


एक फायदे के लिये किया गया कदाचार , चाहे वह कितने भी अच्छे प्रयोजन के लिये क्यों न हो , समाज की कार्यशैली को भ्रष्ट करता है | दरअसल , भ्रष्टाचार को पनपने के लिये जिस जमीन की जरुरत होती है , यह कदाचार वह जमीन मुहैय्या कराता है | समाज में भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष तभी पुख्ता होगा , जब नैतिकता , सदाचार और सद्विवेक के सिकुड़े दायरे को विस्तृत किया जायेगा | यह बात अन्ना टीम को समझना होगी , हर आरोप के जबाब में जनलोकपाल के विरोधियों की साजिश करार देने से काम नहीं चलेगा |
अरुण कान्त शुक्ला

Friday, September 23, 2011

गरीबी नहीं , कंगाली की रेखा --


       गरीबी नहीं , कंगाली की रेखा –

ऐसा प्रतीत होता है कि यूपीए सरकार के पास अपनी दूसरी पारी में देशवासियों को देने के लिये कुछ भी अच्छा नहीं है | यूपीए-2 के कार्यकाल के पिछले लगभग ढाई वर्षों में देश की जनता के उस हिस्से को , जिसे सरकार से राहतों की उम्मीद रहती है , महँगाई और भ्रष्टाचार के कड़वे घूंटों के अलावा कुछ नहीं मिला है | सर्वोच्च न्यायालय में  पेश , प्रधानमंत्री से अनुमोदित शपथ-पत्र , जिसमें गरीबी रेखा को शहरी क्षेत्रों के लिये 20 रुपये से बढ़ाकर 32 रुपये और गाँवों के लिये 15 रुपये से बढ़ाकर 26 रुपये किया गया है , एक और कड़वा घूंट है , जिसे यूपीए सरकार देशवासियों को पिला रही है |

गरीबी रेखा आय की वह सीमा है , जिसका निर्धारण सरकारें करती हैं और किसी परिवार की आय उस सीमा से नीचे जाने पर उस परिवार को आधिकारिक रूप से गरीब या गरीबी रेखा से नीचे माना जाता है , जिससे वह परिवार सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का हकदार बनता है | पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में समाज के वंचित तबकों के अथवा समाज के विभिन्न कमजोर वर्गों के जीवन स्तर को उन्नत करने वाले कदमों को उठाने से सरकार के ऊपर पड़ने वाले आर्थिक भार को फिजूल खर्ची समझा जाता है | विकसित देशों से लेकर विकासशील देशों तक , सभी देशों में कारपोरेट जगत और संपन्न तबका हमेशा सरकार के द्वारा कमजोर  तबकों के लिये किये जा रहे कल्याणकारी कार्यों के ऊपर होने वाले खर्चों की खिलाफत में रहता है | सरकारें भी सामान्यतः कारपोरेट जगत और संपन्न तबके के दबाव में काम करते हुए हमेशा कल्याणकारी कामों से पीछा छुड़ाने की चेष्ठा करते ही नजर आती हैं | यही कारण है कि गरीबी रेखा के लिये न्यूनतम आय सीमा तय करते समय सरकार का भरसक प्रयत्न यही होता है कि यह  मानक नीचे से नीचा हो ताकि गरीबों की संख्या कम से कम दिखाई दे | जब योजना आयोग के यह कहता है कि शहर में 32 रुपये प्रतिदिन और गाँवों में 26 रुपये प्रतिदिन खर्च कर सकने वाले को गरीब नहीं कहा जा सकता है , तो , उसके पीछे सरकारी कल्याणकारी योजनाओं के लाभ से अधिक से अधिक लोगों को बाहर रखने की मंशा ही है |

सरकार ने गरीबों की संख्या को लेकर देश में हमेशा ही भ्रम की स्थिति बने रहने दी | सरकारी आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2004 में गरीबी रेखा के नीचे जी रहे लोगों की संख्या जनसंख्या के 27.5% के बराबर थी , जो 2010 में बढ़कर 37.2% के करीब हो गयी | इसके ठीक विपरीत सरकार के द्वारा ही बनाई गयी अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में उजागर किया था कि भारत में 70% लोग 20 रुपये प्रतिदिन से भी कम पर गुजारा करते हैं | उसके अनुसार देश में लगभग 70 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे जी रहे थे | जाहिर है सरकार ने उस रिपोर्ट को कभी मंजूर नहीं किया | मंजूर तो सरकार को संयुक्त राष्ट्र संघ का भी गरीबी का मानक कभी नहीं हुआ , जिसके अनुसार प्रतिदिन 1.25 डालर (आज के हिसाब से लगभग 60 रुपये) से कम पर गुजारा करने वालों को गरीबी रेखा से नीचे माना जाता है |

सर्वोच्च न्यायालय की फटकार पड़ने के बाद योजना आयोग के द्वारा गरीबी रेखा के मानक में किया गया  वर्त्तमान सुधार भी पिछले मानकों के समान ही बेतुका और गरीबों का मखौल उड़ाने वाला है | कुछ समय पहले ही विश्वबैंक ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि गरीबी से लड़ने के भारत सरकार के प्रयास ही अपर्याप्त नहीं हैं बल्कि गरीबी रेखा के लिये निर्धारित मानक भी कुछ ज्यादा ही कम हैं | विश्वबैंक ने उम्मीद जताई थी कि भारत सरकार देश की वास्तविक स्थिति को देखकर उन मानकों को कम से कम 1.17 डालर याने लगभग 56 रुपये प्रतिदिन तक खर्च करने वाली आबादी तक अवश्य बढ़ाएगी | इसमे किसी को कोई संशय नहीं हो सकता कि बीसवीं सदी के अंतिम तीन दशकों में विश्वबैंक , आईएमएफ , और विश्व व्यापार संगठन विश्व में विकसित देशों की बहुउद्देशीय कंपनियों और संपन्न तबके के हितों को साधने वाले शक्तिशाली अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों के रूप में उभरे और इनके दबाव में प्रायः दुनिया के सभी देशों ने भूमंडलीकरण के नाम पर उन नवउदारवादी नीतियों और कार्यक्रमों को अपनाया , जिनकी वजह से पूरी दुनिया में गरीबों की संख्या में न केवल बढ़ोत्तरी हुई बल्कि उनके जीवनस्तर में भी तेज गिरावट आई | नवउदारवाद की नीतियों के लागू होने के दो दशकों के बाद ही प्रायः सभी देशों के गरीब तबकों और कमैय्या वर्ग के जीवनस्तर पर इस नीतियों के गंभीर दुष्परिणाम दिखने लगे थे और अंतिम दशक में संयुक्त राष्ट्र संघ सहित विश्वबैंक , आईएमएफ सभी को अंतर्राष्ट्रीय विकास लक्ष्यों में गरीबी उन्मूलन और भुखमरी से सबसे निचले तबके को बचाने के लक्ष्य को शामिल करना पड़ा |  वर्ष 2000 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने जब सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य स्वीकार किये तो उसमें गरीबी और भुखमरी को 2015 तक 50% कम करने का लक्ष्य रखा गया | संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित गरीबी की रेखा का मानक पहले एक डालर प्रतिदिन था , जिसे 2005 में बढ़ाकर 1.25 प्रतिदिन किया गया |

यहाँ महत्वपूर्ण यह है कि विकसित देशों और विशेषकर अमेरिका तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों को फायदा पहुंचाने के लिये अपनी शर्तों को दुनिया के देशों के ऊपर थोपने वाले विश्वबैंक , आईएमएफ ने गरीबी रेखा के मानक खुद तय करने की छूट सभी देशों को देकर रखी है और इसके लिये कभी भी कोई दबाव वे नहीं बनाते हैं | दरअसल , गरीबी और यदि उसे खत्म नहीं किया जा सकता है तो उसे कम करने की जरुरत पर प्रवचन करना , आज का फैशन बन गया है | यह बहुत कुछ उन्नीसवीं सदी में दान देने के लिये प्रोत्साहित करने को दिये जाने वाले प्रवचन के समान ही है | विश्वबैंक , आईएमएफ या संयुक्त राष्ट्र संघ ही क्यों आज वारेन बफेट और बिल गेटस भी यही कर रहे हैं | इनमें से कोई भी नहीं चाहता कि उस सामाजिक और आर्थिक रचनातंत्र पर कोई भी बातचीत हो , जो गरीबी का जनक है | जबकि आज के समाज में वो सामाजिक और तकनीकि क्षमता मौजूद है , जिससे गरीबी को समाप्त किया जा सकता है |

सच तो यह है कि भारत में 1991 से उदारीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद से देश के कामगारों , स्वरोजगारियों और नौकरी पेशा लोगों की वास्तविक आय में भारी कमी हुई है और श्रम नियमों की तरफ से आँखें मूँद लेने के चलते कम से कम वेतन पर रखने और कम से कम मजदूरी देने की छूट छोटे से लेकर बड़े तक सभी तरह के नियोक्ताओं को मिली है , जिसका सीधा असर लोगों और परिवारों की आय पर पड़ा है | इसके परिणामस्वरुप बहुत से ऐसे परिवार जो ठीक ठाक गुजर बसर करते थे , एकदम से गरीबी की जद में आये हैं | 2008 से जारी आर्थिक मंदी और पिछले पांच वर्षों से लगातार बढ़ती हुई मंहगाई ने देश में करोड़ों लोगों को गरीबी की उस जद में ला पटका है , जहां कोई भी सरकारी सहायता मिलती नहीं और स्वयं की आय पर केवल एक बदहाल और अवसाद भरी जिंदगी ही जी जा सकती है | इस तरह , गरीबी की इस जद में देश की जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा है , जिसकी आय एक लाख रुपये सालाना से ऊपर तक है | इसमें प्राईवेट स्कूलों में काम करने वाले शिक्षक , सरकार के द्वारा नियुक्त शिक्षाकर्मी , मनरेगा के मजदूर , घरों में काम करने वाली बाईयां , दिहाड़ी मजदूर , दैनिक वेतनभोगी कर्मचारी , आटोचालक , फेरी से सब्जी बेचने वाले जैसे स्वरोजगार में लगे लोग , निजी अस्पतालों और दुकानों में काम करने वाले लोग , जैसे करोड़ों हैं , जिन्हें अमीरों की श्रेणी में रखना , उनके साथ एक भद्दा मजाक है | योजना आयोग की गरीबी की रेखा , गरीबी की नहीं कंगाली की रेखा है | गरीबी की जद में तो भारत के अस्सी प्रतिशत परिवार आयेंगे , जिसको स्वीकार करना , एक ऐसी सरकार के लिये कभी भी संभव नहीं है , जैसी कि हमारे देश में है |

अरुण कान्त शुक्ला  

Tuesday, September 13, 2011


नवउदारवादी साजिश और आक्रमण के घेरे में हिंदी --

जाने माने व्यंगकार और कवि गिरीश पंकज ने फेसबुक पर हिंदी के वर्त्तमान स्वरूप के ऊपर अपने परिचित अंदाज में एक टिप्पणी लिखी | मैंने उसी अंदाज में उस पर कमेन्ट भी कर दिया | टिप्पणी थी ,

हिंदी के ब्राईट फ्यूचर को लेकर मैं होपफुल हूँ . इस लेंगुएज में कुछ बात तो है . कल 14 सेप्टेम्बर को हिंदी डे सेलीब्रेट किया जायेगा . गवर्नमेंट के लोग खूब एंज्वाय करेंगे . आखिर आफिसियल लेंगुएज , बोले तो राजभाषा है हिंदी . आप क्या सोचते हैं , हिंदी सरवाईव करेगी न ..?

मेरा कमेन्ट था , यस , यस व्हायी नाटॅ , जरुर सरवाईव करेगी |    

बात शायद आई गयी हो गई होती , यदि शाम को मेरी तीन वर्षीय पोती ने अपने खिलौना कम्प्यूटर पर खेलते हुए मुझसे यह न कहा होता कि दद्दू इस बटन को कन्टिनुयस दबाने से गेम फिनिश हो जाता है | मैंने उससे कहा , हाँ बेटा बटन लगातार दबाने से गेम बंद हों जाता है | उसने तुरंत जबाब दिया , लगातार नहीं , कन्टिनुयस | जाहिर है , अंग्रेजी स्कूल के माध्यम से ही सही , नर्सरी में जाने वाली बच्ची को कन्टिनुयस और फिनिश जैसे शब्द घर से ही मिले होंगे | यह घटना हमारी बोलचाल में अंग्रेजी शब्दों के बढ़ते चलन को ही नहीं बताती है , इससे आगे यह है कि लोग उन अंग्रेजी शब्दों की जगह इस्तेमाल होने वाले शब्दों को ही पूरी तरह भूलते जा रहे हैं | ऐसा नहीं है कि बोलचाल में अंग्रेजी शब्दों का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग करने की प्रवृति शहरी लोगों या अंग्रेजी स्कूल से शिक्षा प्राप्त या शिक्षा प्राप्त कर रहे लोगों में ही है | सुदूर ग्रामीण अंचलों तक में स्थानीय बोलियों और भाषाओं में अंग्रेजी शब्दों की घुसपैठ मजबूती से घर कर चुकी है | देश के किसी भी हिस्से में खेती से संबंधित खादों , दवाईयों , कीटनाशकों , बीजों और अनाज की किस्मों , ट्रेक्टर के उपकरणों के नाम ग्रामीण अंग्रेजी में सही उच्चारण के साथ लेते हुए दिखेंगे , जबकि उनका वास्ता अंग्रेजी स्कोऊल से कभी नहीं पड़ा हो | यह बोलचाल में भी दिखाई पड़ता है | छत्तीसगढ़ी में ही यह संवाद अक्सर सुनाई दे देगा , मैं मोर मदर ला हास्पिटल में एडमिट कराय हों | ओखरबर एपल लायेबर जावत हों | ते ह पेपर बनवा के एडवांस बिल जमा करवा दे |

देश के बुद्धु बक्से पर दिखाए जाने वाले सीरियलों और रियलिटी शोज तथा हिंदी फिल्मों ने भी हिंदी में अंग्रेजी मिश्रण को बेशुमार बढ़ाया है | एक सीरियल में सुहाना नाम की स्त्री किरदार को हिंदी के शब्द ही समझ नहीं आते | गिरफ्तार शब्द सुनकर वह बोलती है , गिरफ्तार , यू मीन अरेस्ट | ऐसा एक बार नहीं , प्रत्येक भाग में अनेक बार होता है | देश की आजादी के बाद अनेक हिंदी फिल्मों में हिंदी के साथ अंग्रेजी का प्रयोग अंग्रेजी की खिल्ली उड़ाने के लिये हुआ | पर , गाईड आते आते फिल्मकारों के लिये भी अंग्रेजी महत्वपूर्ण हो गयी | गाईड में दो पंडितों के शास्त्रार्थ में देवानंद अंग्रेजी का प्रयोग उन्हें हराने  के लिये करते हैं | जब पंडित देवानंद से कहते हैं कि तुम्हें संस्कृत नहीं आती , तो देवानंद का जबाब होता है कि तुम्हें अंग्रेजी नहीं आती | यह सुनकर गाँव के पूरे लोग देवानंद के साथ हो जाते हैं | यह सिलसिला बढ़कर अब आय एम तू सेक्सी फॉर यू , तेरे हाथ नहीं आनी और आई नो यू वांट इट , बट यू आर नेवर गोना गेट इट तक पहुँच चुका है , जिसमें हिंदी के बीच अंग्रेजी में पूरी अश्लीलता परोसी जा रही है | देश में यह गाना न केवल युवाओं के बीच लोकप्रिय होता है बल्कि छोटे छोटे बच्चे भी अंग्रेजी की पंक्तियों को सही उच्चारण के साथ घरों में गाते हैं और परिवार के लोग बैठकर मुस्कराते हैं | हमारे सामने जो चित्र है , वह हिंदी में अंग्रेजी की घुसपैठ को दिखाने के साथ साथ यह भी बता रहा है कि यह घुसपैठ हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हो रही है |

सचाई तो यह है कि हिंदी का खाने वाले टेलीविजन और फिल्मों में आज कहानी , पटकथा अंग्रेजी में ही लिखी जाती है | यहाँ तक कि कलाकारों के संवाद भी लेटिन अंग्रेजी में लिखे जाते हैं | देश के टेलीविजन और फिल्मों के कलाकारों को भी , अन्य अंग्रेजी दां भारतीयों की तरह , हिंदी को अंग्रेजी में ही पढ़ना आसान लगता है | फेसबुक और ट्वीटर जैसे माध्यम तो रोमन अंग्रेजी से भरे पड़े रहते हैं , क्योंकि उनका की बोर्ड अंग्रेजी में होता है और हिंदी टाईपिंग सीखना पड़ता है | जबकि यदि लोग चाहें तो एक साफ्टवेयर डलवाकर उसी अंग्रेजी से हिंदी में टाईप कर सकते हैं |

अमूमन सभी विज्ञापन पटलों पर विज्ञापन अंग्रेजी में होते हैं | देश में कोई भी अच्छा वेतन देने वाली नौकरी या रोजगार बिना अंग्रेजी ज्ञान के नहीं मिलता | उच्च शिक्षा पूरी तरह से अंग्रेजी के कब्जे में है | देश में अंग्रेजी का प्रभाव इतना गहरा है कि ग्रामीण इलाकों में भी कंपनियां बेचने के लिये सामान का ब्रांड नाम अंग्रेजी में रखती हैं , क्योंकि उनके अनुसार ग्रामीण उपभोक्ता उससे प्रभावित होता है |

पूछने पर प्रत्येक भारतवासी यही बतायेगा कि देश की राष्ट्रभाषा हिंदी है | पर , सचाई यही है कि हिंदी राजकाज चलाये जाने की दो भाषाओं में से एक है और दूसरी भाषा , जिसमें वास्तव में राजकाज चलता है , अंग्रेजी है | आजादी के बाद राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की प्रस्तावना और अन्य स्थानीय भाषाओं के बीच हुए टकरावों का नतीजा यह निकला कि शासक वर्ग और देश के संपन्न तबके ने अंग्रेजी को अघोषित रूप से राष्ट्रीय भाषा जैसा ही दर्जा दे दिया है |इसका नतीजा यह निकल रहा है कि देश के 80 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या का भारत की प्रशासनिक व्यवस्था , नीतियों के निर्माण और देश के लिये कुछ सोचने की प्रक्रिया में कोई भी योगदान नहीं है क्योंकि इस 80 प्रतिशत जनता के बहुत बड़े हिस्से की पहुँच ही शिक्षा तक नहीं है और जो शिक्षित होते भी हैं , चूंकि वे प्राथमिक स्तर से अंग्रेजी से परिचित नहीं होते , प्रतियोगिता और चयन में उस स्तर तक नहीं पहुँच पाते , जहां निर्णय लिये जाते हैं | देश के सामाजिक वातावरण में व्याप्त इस कमी का गंभीर दुष्प्रभाव अब स्पष्ट रूप से सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र के साथ साथ देश की लोकतांत्रिक प्रणाली पर भी दिखाई पड़ रहा है |

भारत के शासक वर्ग में ऐसे लोगों की कमी नहीं है , जो दबे स्वर में ही सही , पर यह मांग करने लगें कि यदि भारत के दलितों और पिछड़ों को मुख्यधारा में जोड़ना है तो अंग्रेजी को ही राष्ट्रभाषा बना दिया जाये ताकि इस तबके के उस हिस्से को जो सरकारी स्कूलों से शिक्षा प्राप्त करता है , प्राथमिक स्तर से ही अंग्रेजी की शिक्षा मिलने लगे | हो सकता है , आज ये बात कपोल कल्पित लगे , पर , नवउदारवाद के रास्ते पर चल रही सरकारों और संपन्न वर्ग के तौर तरीकों को इस संभावना को नकारा नहीं जा सकता है | विदेशी तकनीक , विदेशी धन कभी , अकेले नहीं आता उसके साथ विदेशी संस्कृति , विदेशी भाषा और सबसे ऊपर विदेशी सोच भी आती है जो देश के बारे में सोचने से रोकती है | हमारा देश उस दौर से गुजर रहा है , जिसमें प्रत्येक चीज को अमेरिका , विश्वबैंक और विश्व व्यापार संगठन के नजरिये से देखा जा रहा है | आज केवल यह प्रश्न नहीं है कि हिंदी अपने स्वरूप को बनाए रख पायेगी या नहीं | हिंदी नवउदारवादी संस्कृति के एक बड़े हमले और साजिश की जद में है | इसे बचाने के लिये भावनात्मक लगावों के साथ साथ राजनैतिक संघर्ष भी जरूरी है |             
        

Thursday, August 25, 2011


 केवल अन्ना को दोष देने से काम नहीं चलेगा ?

देश की संसद  ने आज एक अभूतपूर्व कदम उठाया है | प्रधानमंत्री , विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज और लोकसभा अध्यक्ष , तीनों ने मिलकर न केवल अन्ना से अपना अनशन खत्म करने की अपील की है बल्कि इस बात का आश्वासन भी दिया है कि भारत की संसद  देश में भ्रष्टाचार को रोकने के लिये  प्रभावकारी लोकपाल अवश्य लायेगी तथा उसके लिये संसद में जनलोकपाल के साथ साथ जेपी और अरुणा राय के लोकपाल प्रस्तावों  पर भी चर्चा की जायेगी | अब गेंद अन्ना के पाले में है | मुझे लगता है कि अन्ना की टीम अब इस मामले में देखो और आगे बढ़ो का रास्ता अपनाना पसंद करेगी , जोकि एकमात्र सही रास्ता है |

राजनीति में संभव  को  संभव बनाना एक कला है और सही मौके पर विनाशकारी और अग्राहय निर्णयों से बचना एक कौशल है | अन्ना का पिछला इतिहास बताता है कि वो न केवल कुशल और सफल आन्दोलनकर्ता हैं बल्कि सही समय पर सही निर्णय लेने में भी उन्हें  महारत है | वो अच्छे से समझते होंगे कि एक संसदीय व्यवस्था में किसी सरकार को इससे अधिक झुकाना संभव नहीं है |  वे यह भी जानते हैं कि उन्होंने सरकार को नहीं भारत की संसदीय व्यवस्था में घर कर चुके शैतान को चुनौती दी थी और उसे हिलाने में ही नहीं , उसे यह अहसास दिलाने में भी वो कामयाब हो गये हैं  कि ये और इतनी सारी बुराईयों के साथ संसदीय लोकतंत्र चल नहीं सकता है |

नेता विपक्ष की  हैसियत से सुषमा स्वराज ने प्रधानमंत्री के बाद खड़े होकर यह कहा कि संसद से यह सन्देश जरुर जाना चाहिये कि हम एक मजबूत और प्रभावी लोकपाल लाने के लिये कृतसंकल्प हैं तो उनकी भाव भंगिमा दृड़ता का परिचायक थीं प्रधानमंत्री  ने अन्ना को सेल्यूट करते हुए प्रभावकारी लोकपाल लाने का वायदा किया |  अन्ना ने यह कई बार कहा है कि वे संसद का सम्मान करते हैं ,  अतः अब उन्हें अपना अनशन बंद कर देना चाहिये |

जिन्होंने संविधान  सभा में दिया गया डा. राजेन्द्र प्रसाद का भाषण पढ़ा है , उन्हें वे आज अवश्य याद आये होंगे |  उन्होंने कहा था कि  संविधान को लोगों को ही लागू करना है |  देश के लोगों की भलाई इस पर निर्भर करेगी कि इलेक्टेड लोग किस प्रकार प्रशासन करते हैं | यदि वे भले हैं तो एक डिफेक्टिव संविधान से भी वे देश का कल्याण कर सकते हैं | यदि ऐसा नहीं होता है तो कोई न कोई "मेन आफ़ केरेक्टर" आगे आएगा और जनता उसे सबसे ऊपर लाकर खड़ा कर देगी |  अन्ना ने वह  काम किया और जनता ने उन्हें सर पर बैठा लिया |

अब जब संसद  ने अन्ना को भरोसा देते हुए प्रभावकारी लोकपाल लाने की मंशा दिखाई है , जिसका सीधा अर्थ है कि आजादी के बाद और विशेषकर पिछले दो दशकों में हुए काले  कारनामों और भ्रष्टाचार में अपने दोष को स्वीकारना और उनके निवारण का आश्वासन देना , तो संसद को यह भी समझना होगा कि दो दशकों से जिन आर्थिक नीतियों  और योजनाओं को संसद से लागू किया जा रहा है , जनता के रोष के पीछे वे भी  बड़ा कारण रहीं हैं | अचानक से बढ़े भ्रष्टाचार के पीछे नवउदारवाद की नीतियों का बहुत बड़ा हाथ है , और उनके उपर पुनर्विचार बहुत जरूरी है |  प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह के लिये यह स्वीकार करना बहुत मुश्किल है , क्योंकि वे आज भी अन्ना से अपील करते समय अपनी पीठ खुद थपथपा रहे थे कि 1991 में वे नवउदारवाद के जरिये देश को आर्थिक दलदल से बाहर खींच कर लाये | अब समय आ गया है कि हमारे देश के राजनीतिज्ञ अमेरिका और विश्व बैंक , आईएमएफ , विश्व व्यापार संगठन जैसी संस्थाओं के चश्मे से देश को देखना बंद कर दें | आज केवल मध्य-पूर्व नहीं बल्कि यूरोप का बहुत बड़ा हिस्सा जन आक्रोश के दौर से गुजर रहा है | फ्रांस जैसे देशों में तो भूमंडलीकरण की नीतियों से तौबा करने तक की बातें की जा रही हैं | उस दौर में प्रधानमंत्री का विकास का रोना कम से कम आम लोगों के गले तो नहीं उतरता है , जो अपने सामने स्वास्थ्य , शिक्षा , रोजगार सभी की सम्भावनाओं को सिकुड़ते देख रहे हैं और संपन्न तबके , नौकरशाही तथा पेशा बना चुके  राजनीति करने वालों को सारे भ्रष्ट तरीकों से बेपनाह दौलत जोड़ते देख रहे हैं |

किसी को भी  यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिये  कि भारत के राजनीतिक परिदृश्य में 1975 से  जिस दिशाहीन आमजन  विरोधी रुख की शुरुवात हुई , उसमें 1991 के बाद एकदम से बढ़ोत्तरी हुई | ऊपर से जनवादी दिखने वाला ढांचा खुलकर सम्पनों के पक्ष में कार्य करते दिखने लगा | दो दशकों के बाद जनता ने अपना यह रोष जाहिर किया है | अन्ना के जंतर मंतर पर किये गये अनशन और फिलवक्त रामलीला मैदान पर चल रहे अनशन के लोकतांत्रिक होने और न होने पर अनेकों सवाल उठे हैं | पर , दूसरी तरफ हाथों और चेहरे दोनों पर कालिख से पुती सरकार का रवैय्या भी कभी मर्यादित और लोकतांत्रिक नहीं रहा | प्रधानमंत्री से लेकर कांग्रेस के किसी भी नेता ने देश की अनेकों जनतांत्रिक संस्थाओं , विपक्ष के दलों , के लगातार कहने और उजागर करने के बावजूद कभी भी भ्रष्टाचार के किसी भी मामले को सीधे सीधे स्वीकार तो किया ही नहीं , उलटे प्रधानमंत्री सहित पूरी सरकार ने उन जनसंस्थाओं और लोगों को ही भ्रष्ट सिद्ध करने की मुहीम छेड़ी और वह भी पूरी हेकड़ी के साथ | हाल के दोनों मामलों कामनवेल्थ और 2-जी में प्रधानमंत्री , वित्तमंत्री , दूरसंचार मंत्री , गृह मंत्री के हेकड़ी भरे बयानों को राजनीति में शामिल लोग भले ही प्रहसन के रूप में लें , पर आम जनता का बहुसंख्यक हिस्सा ऐसे व्यवहार को , वो भी सत्ता पक्ष से , अलोकतांत्रिक , अमर्यादित और ओछा ही मानता है और उसके मन में इसके खिलाफ रोष पैदा हुआ है |
बहुत से लोग शायद इस बात को इतने सीधे तरीके से कहने पर आपत्ति करें , पर सरकार ने स्वयं पहले अप्रैल में अन्ना को और उसके बाद जून में रामदेव को जिस तरह पटाने का नाटक किया , वह एक लोकतंत्र में विश्वास करने वाली सरकार का नहीं , एक डरी हुई गुनहगार सरकार का काम था | ऐसा नहीं है कि केवल कांग्रेस ही डरी हुई है प्रमुख विपक्षी दलों सहित यूपीए के घटकों की भी स्थिति भी वही है | सिर्फ वामपंथी दलों को छोड़ , बाकी सभी राजनीतिक दलों के अपने अपने कच्चे चिठ्ठे हैं | यह सच है कि संसदीय लोकतंत्र में विधायिका , कार्यपालिका और न्यायपालिका के अलावा आम नागरिकों या सिविल सोसाईटी जैसी संस्थाओं के लिये कोई भूमिका नहीं है , पर , यह भी उतना ही बड़ा सच है कि तब लोकतांत्रिक संस्थाओं को अपना कार्य ईमानदारी और वृहतर समाज के हित में करना चाहिये | यदि ऐसा होता तो लोकपाल 42 वर्षों से लंबित नहीं पड़ा रहता , संसद साधारण तौर पर ही काम करती रहतीं और एक सत्र में ही कई कई दिनों और कभी कभी पूरे सत्र के लिये संसद को बंद नहीं करना पड़ता , 60% लोग भोजन , शिक्षा , दवा के लिये तरसते नहीं | ऐसा नहीं कि फेसबुक और ट्वीटर वाले ऐसा सोचते हैं , आम जनता की भी सोच ऐसी ही है | आज जो स्थिति पैदा हुई है और राजनीति और राजनीतिज्ञों को हेय नज़रों से जो देखा जा रहा है , उसके लिये इस देश के राजनीतिज्ञ ही जिम्मेदार हैं , जिन्होंने पिछले दो दशकों में नैगम घरानों , विदेशी कंपनियों , नौकरशाही के साथ एक नापाक गठजोड़ बना लिया है , जो हमारे देश के लोकतंत्र को निष्ठाहीन बना रहा है |  केवल अन्ना को दोष देने से क्या होगा ?
अरुण कान्त शुक्ला                   
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