Saturday, May 9, 2020

कोरोना काल सुधारों के लिये उपयुक्त ‘अवसर’? (1)


कोरोना काल सुधारों के लिये उपयुक्त ‘अवसर’? (1)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने किसी राजनीतिक विरोधी की कभी प्रशंसा भी करें और वह भी कांग्रेसी तो किसी को भी आश्चर्य होगा किन्तु 27 अप्रैल 2020 को ऐसा हुआ। प्रधानमंत्री की प्रशंसा के पात्र थे राजस्थान के कांग्रेस के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत। अवसर था राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ हुई वीडियो कान्फ्रेंसिंग। समाचार पत्रों में आई खबर के अनुसार उन्होंने कहा कि प्रत्येक राज्य में कोई न कोई पार्टी शासन में है जो महसूस करती है कि उसके पास देश को आगे ले जाने का अवसर है। हमें सुधार भी करना है | यदि सुधार करने कि दिशा में राज्य पहल करता है, आप देखिये इस संकट को हम बहुत बड़े अवसर में पलट सकते हैं| मैं अशोक गहलोत जी को बधाई दूँगा। उन्होंने कई पहल कीं। उन्होंने श्रमिकों के लिये समय सीमा की भी बढ़ौत्तरी की है| ठीक है आलोचना थोड़ी हुई होगी, लेकिन राजस्थान ने दिशा दिखाई है|”
स्पष्टत: प्रधानमंत्री राजस्थान सरकार के उस निर्णय का हवाला दे रहे थे जिसके अनुसार फेक्ट्रियों में काम का समय 8 घंटे से बढाकर 12 घंटे किया गया है| उनका आग्रह था कि अन्य राज्यों को भी  इसका अनुसरण करना चाहिये| वास्तविकता यह है कि दूसरे राज्य कार्य के समय बढ़ाने की इस दौड़ में पहले ही शामिल हो चुके थे| गुजरात, मध्यप्रदेश, हरयाणा, हिमाचल प्रदेश और पंजाब, इन पाँचों राज्यों ने तो काम के घंटो को 8 से बढाकर 12 घंटे करने के लिये फेक्ट्रीस एक्ट 1948 में ही परिवर्तन कर डाला और वह भी प्रशासकीय आदेशों से| इन बढ़े हुए अतिरिक्त कार्य के घंटों के लिये बढ़ी हुई दर पर कोई भुगतान भी नहीं किया जाएगा|
2020 का यह मई दिवस भारत के मेहनतकश वर्ग के लिये इतिहास का सबसे अंधकारमय अथवा बुरा मई दिवस रहा है| भारत के मेहनतकश की आवाज कभी भी इतनी नहीं दबाई गई होगी| देश में लाखों लोग हैं जो अपने परिवारों से दूर जीवित बच पाने के लिये संघर्ष कर रहे हैं| रोजगार से निकाले गए, गाँठ में पैसा नहीं, खाने को कुछ नहीं, कल तक जैसी भी हो इज्जत से कमाकर खाने वाले हाथ फैलाकर कुछ मिल जाये तो पेट भरे की स्थिति में नंगे पाँव बाल-बच्चों के साथ पैदल ही सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा पर अपने गाँव-घर जाने के लिये भटक रहे हैं| दुनिया का यह अब तक का सबसे बड़ा “नंगे-पाँव” विस्थापन होगा| स्वयं सरकार के आंकलन के अनुसार जैसा कि क्विंट ने 6 मई को रिपोर्ट किया है 5 से 6 लाख श्रमिक आज सड़कों पर हैं| वे जो इस आशा में कि सरकारें आश्वासन दे रही हैं तो उनके खाने और रहने की उचित व्यवस्था अवश्य करायेंगी, बदतर हालातों से लाचार होकर, जैसे बने वैसे, पैदल, साईकिल से पुलिस की लाठियाँ खाते या पुलिस वालों के इंतजाम से ही थोड़ा बहुत जो खाने मिले खाते अपने घरों को वापस लौट रहे हैं| सूरत, हैदराबाद, मुम्बई, दिल्ली में इन फंसे हुए लोगों ने ‘खाने दो या घर जाने दो’ की मांग करते हुए प्रदर्शन जरुर किये लेकिन प्रदर्शन करने वाले हजारों श्रमिकों को उतनी ही तत्परता से पुलिस ने खदेड़ भी दिया| इनके लिये बहुत बातें हुईं, टीव्ही पर बहस हुईं, सरकारों के आश्वासन आये, पर ठोस परिणाम यही है कि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक भी वे फंसे हुए ही हैं और एक नई परिस्थिति अब इनके सामने पेश आने जा रही है वह है अपने मन (निर्णय) से अपने शर्म को बेचने का उनका अधिकार भी अब छिनने जा रहा है| आज कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने बेंगलोर से प्रवासी श्रमिकों के लिये चलने वाली सभी ट्रेन राज्य के प्रापर्टी डेवलपर्स के साथ बात करने के बाद केंसिल करवा दीं क्योंकि उन्हें राज्य की अर्थवयवस्था में सुधार के लिये श्रमिकों की जरूरत है| मत कहिये कि भारत के संविधान में लिखा है कि ‘बंधुआ मजदूर’ रखना अपराध हैं| आप किसी इंसान को एक अजनबी प्रदेश में जहाँ का वह रहने वाला नहीं है और मुसीबत के वक्त जिसे आपने एक रोटी नहीं दी, केवल इसलिए रोक सकते हैं या मजदूरी करने बाध्य कर सकते हैं क्योंकि वह अपने साधन से वापस नहीं जा सकता| गिनते रहिये आप लोकतंत्र की गिनती और पढ़ते रहिये संविधान का पहाड़ा, यह कोरोना काल का लोकतंत्र है और कोराना काल का संविधान। उच्चतम न्यायालय ने भी कहा है कि सरकार लॉक-डाउन और लॉक-डाउन से जुड़े जो भी कदम उठा रही है, देशवासियों के स्वास्थ्य और कल्याण के लिये ही तो उठा रही है। विश्वास करना कठिन हो सकता है पर केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय में हलफनामा देकर बताया है कि 14 लाख विस्थापित श्रमिक राहत केम्प में रखे गए हैं और लगभग 1 करोड़ 34 लाख श्रमिक भोजन केन्द्रों से खाना खा रहे हैं। अब यह खाना तो उन्हें दोनों टाईम ही मिल रहा होगा? इसीलिये, जब मजदूरों को नगद राशी सहायता के रूप में देने की मांग की गई तो न्यायालय ने कहा कि उसकी समझ में जब खाना मिल रहा है तो नगद राशी का वो क्या करेंगे?
दुनिया के मजदूरों को 8 घंटे का कार्यदिवस मालिकों या सरकारों की मेहरबानी से नहीं बल्कि उनके द्वारा किये गए संघर्षों और दी गई शहादतों के परिणाम स्वरूप मिला है। मई दिवस मनाया ही जाता है शिकागो के उन शहीदों की स्मृति में जिन्होंने आज से 134 साल पहले पहली बार 8 घंटे के कार्य दिवस की मांग लेकर मशीनों के पहिये जाम किये थे और बदले में मालिकों के गुंडों और पुलिस न केवल उनके उपर गोलियाँ बरसाई थी, बल्कि उनके नेताओं को फांसी के तख्ते पर भी लटका दिया था| यह वह भयावह दौर था जब मजदूर के काम पर जाने का समय सूर्य के प्रकाश के साथ शुरू होता था और सूर्य के अस्त होने पर खत्म होता था। कालान्तर में बिजली के आविष्कार ने इन 12 घंटों की कार्यावधि को 16 और 18 घंटे तक बढ़ा दिया था। आज जिस 8 घंटे के कार्यदिवस का उपभोग दुनिया का मेहनतकश कर रहा है वह फेक्ट्री मालिकों की या सरकारों की मेहरबानी नहीं बल्कि मेहनतकशों के संघर्ष का नतीजा है। जैसा कि मार्क्स ने कहा भी है कि वे सभी कानून जिनसे मजदूरों के काम करने की अवधि सीमित (कम) की गई है “किसी संसदीय चाह या विचार का फल नहीं हैं। इसका नियमन, आधिकारिक मान्यता, और राज्य के द्वारा इसकी घोषणा, सब कुछ मेहनतकश वर्ग के लंबे संघर्ष का परिणाम हैं। एक सामान्य कार्यदिवस, इसलिए, पूंजीपति वर्ग और मेहनतकश वर्ग के बीच चले एक लंबे गृह युद्ध का परिणाम है...|”
भारत के मेहनतकश के लिये तो यह संघर्ष और भी कठिन था क्योंकि देश में ब्रिटिशर्स का राज था| देश में पहला कानून 1922 में बना जिसमें कार्य के घंटों को कम करके सप्ताह में 60 किया गया| फेक्ट्री एक्ट 1934 में इसे घटाकर 54 किया गया जिसे द्वतीय विश्व युद्ध के समय बढ़ाकर फिर से 60 कर दिया गया था| यह अद्भुत नहीं है कि हमारे देश की 6 राज्य सरकारों ने ब्रिटिशर्स के 1934 के फेक्ट्री एक्ट से भी 12 घंटे ज्यादा की कार्यावधि मजदूरों के लिये तय की है| बेशक, बताने की कोशिश यही की जा रही है कि यह एक अस्थायी कदम है जो 3-4 महिने या जब तक कोविद-19 रहेगा, तभी तक के लिये है| पर, जब प्रधानमंत्री इसे एक अहं सुधार बता रहे हों तो नीयत का अंदाजा लगाना कोई मुश्किल काम नहीं है।
9 मई 2020

No comments: