Sunday, February 26, 2012

28 फरवरी की देश व्यापी हड़ताल क्यों ?

संगठित और असंगठित क्षेत्र के लगभग पांच करोड़ से ज्यादा कामगार 28 फरवरी को नवउदारवादी नीतियों का विरोध करते हुए अपनी दस सूत्रीय मांगों को लेकर एक दिवसीय हड़ताल पर रहेंगे | यह देश के ट्रेड युनियन इतिहास में पहली बार हो रहा है कि वामपंथी ट्रेड यूनियनों के साथ कांग्रेस समर्थित इंटक और भाजपा (संघ) समर्थित बीएमएस ने भी 28 फरवरी की हड़ताल में शामिल होने की घोषणा की है | इंटक और बीएमएस दोनों की सदस्य संख्या को देखते हुए संभावना यही है कि हड़ताल व्यापक होने के साथ साथ ठेका मजदूरों और दैनिक कर्मचारियों के बड़े हिस्से को हड़ताल में शामिल करने में सफलता मिलेगी |


 देश में नवउदारवादी नीतियों की शुरुवात वर्ष 1991 में होने के साथ ही देश के कामगार वर्ग और विशेषकर संगठित क्षेत्र के कर्मचारियों और कामगारों इन नीतियों का विरोध शुरू कर दिया था | पिछले 21 वर्षों में नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ 13 संगठित हड़तालें देश का मेहनतकश कर चुका है | यदि भारत पर 2007-2008 में आयी विश्व व्यापी मंदी के साथ साथ वर्ष 1998-99 और वर्ष 2004 के आर्थिक संकटों का दुष्प्रभाव उतनी गहराई के साथ नहीं पड़ा तो उसका बहुत बड़ा श्रेय देश के मेहनतकशों को जाता है कि वे न केवल संगठित होकर देशव्यापी स्तर पर नवउदारवादी और भूमंडलीकरण की नीतियों का विरोध करते रहे बल्कि उन्होंने अपने अपने उद्योगों में भी सरकार की विश्वबैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के समक्ष समर्पण करने वाली नीतियों के खिलाफ जमकर आंदोलन किया और उनके क्रियान्वयन को रोका , जो देश , आम आदमी और मेहनतकश के खिलाफ थीं | यही कारण है कि हमारे देश का बैंकिंग और बीमा क्षेत्र उस तरीके से नहीं खोला जा सका , जैसे विश्वबैंक , विश्वव्यापार संगठन और मुद्राकोष चाहते थे और भारतीय नियंत्रण के चलते भारत 2007 की भयानक मंदी के बाद भी 8% की विकास दर बनाए रख पाया |


 इसमें कोई शक नहीं है कि पिछले दो दशकों से जारी नवउदारवादी नीतियों ने न केवल देश के मेहनतकश बल्कि देश के आम आवाम के जीवन स्तर को भी नीचे धकेला है | अमीरों और गरीबों के बीच की खाई बढ़ी है | सरकार एक और यह कहती है कि देश में एक आदमी 32 रुपये में गुजारा कर सकता है तो वास्तविकता यह है कि अर्जुन सेनगुप्ता की रिपोर्ट के अनुसार देश के 70 करोड़ से अधिक लोग बीस रुपये से कम पर गुजारा करने मजबूर हैं | जबकि , कुछ लोग 4 लाख रुपये प्रतिदिन से अधिक कमा रहे हैं | आज से दो दशक पहले देश के प्रथम 10% वेतन भोगियों और अंतिम 10% वेतन भोगियों के बीच के वेतन का अंतर 6 गुना था , जो अब बढ़कर 12 गुना हो गया है | आय की इस असमानता ने समाज में बैचैनी और अस्थिरता को बढ़ा दिया है , जिसका परिणाम हमें निचले स्तर पर बढते लूट , डकैती और हत्याओं जैसे अपराध के रूप में दिखाई पड़ रहा है तो समाज के उच्च स्तर पर राजनीतिज्ञों , नौकरशाहों , उद्यमियों और व्यापारियों के मध्य पनपे नापाक गठजोड़ के रूप में दिखाई पड़ रहा है , जो देश की संपत्ति को लूटने , भ्रष्ट तरीकों से धन कमाने , रसूख और पैसे के बल पर अय्याशी करने में लगा हुआ है | पिछले दो दशकों में एक के बाद एक आयी सरकारों ने टेक्स में राहत और सहायता के नाम पर अनाप शनाप तरीकों से पैसे देकर देश के पूंजीपतियों की परिसंपत्तियों में बेशुमार ईजाफा कराया है और उसकी पूरी वसूली देश के मेहनतकशों और आम आदमी से की है | मनरेगा , राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य योजना जैसी योजनाएं वामपंथ के दबाव में और सत्ता की राजनीति की मजबूरी में लाई भी गयीं है तो भ्रष्ट तंत्र उनका फायदा वांछित लोगों तक पहुँचने नहीं दे रहा है |


 28 फरवरी को यह हड़ताल ऐसे समय में हो रही है , जब दुनिया के कोने कोने में नवउदारवादी नीतियों और भूमंडलीकरण के द्वारा हो रही लूट के खिलाफ देशों के जनगण आम मेहनतकशों के साथ सड़क पर उतरकर विरोध कर रहे हैं | भारत का मेहनतकश , जो पहले से ही भूमंडलीकरण की नीतियों के खिलाफ लड़ता आ रहा है . उसे , अमेरिका , ब्रिटेन , फ्रांस जैसे विकसित देशों सहित लेटिन अमेरिकी देशों में हो रहे इन संघर्षों से मजबूती हासिल होगी | लेटिन अमेरिका के देशों में वहाँ की जनता को उदारवाद परस्त और अमेरिका परस्त सरकारों को उखाड़कर ऐसी ताकतों को चुनने में सफलता मिली है , जो जन परस्त नीतियों को लागू करने के साथ साथ , रोजगार सृजन , स्वास्थ्य , शिक्षा और खाद्य सुरक्षा पर अपने खर्च बढ़ा रही हैं , जिसका फायदा वहाँ की आम आवाम को मिल रहा है | जहां बोलिविया और वेनेजुएला की सरकारों ने उनके देश में तेल और गैस कंपनियों का राष्ट्रीयकरण किया है , वही अर्जेंटीना ने उसके देश के पेंशन फंडों का राष्ट्रीयकरण किया है | ग्रीस , ब्रिटेन , फ्रांस , स्पेन , इटली आदि में वहाँ की मेहनतकश जमात पेंशन , रिटायरमेंट , काम के घंटों , वेतनों में सुधार जैसी मांगों को लेकर लगातार संघर्षरत है | अमेरिका में वालस्ट्रीट से शुरू हुआ आक्युपाई आंदोलन बड़े शहरों तक पहुंचकर सीधे नवउदारवादी नीतियों को ही चुनौती दे रहा है |


 आज यूपीए सरकार अपने सबसे ज्यादा कमजोर दौर में है और उसकी सबसे बड़ी विडंबना यही है कि जिस व्यक्ति ने 1991 में वित्तमंत्री बनकर देश को नवउदारवाद के रास्ते पर डाला था , वही व्यक्ति आज प्रधानमंत्री रहते हुए भी उस नवउदारवाद के परिणामों पर अंकुश नहीं रख पा रहा है और देश लगभग दिशाविहीन नजर आ रहा है | ये देश के मेहनतकश ही हैं , जो देश में संपदा पैदा करते हैं और मालिकों के लिए मुनाफ़ा पैदा करते हैं | मेहनतकशों की इस जमात का 98% हिस्सा असंगठित क्षेत्र में काम करता है और उसे स्वास्थ , शिक्षा जैसी सुविधाओं की बात छोड़ भी दें तो न्यूनतम वेतन भी नहीं मिलता है | इससे ज्यादा शर्म की बात क्या होगी कि आज शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों क्षेत्रों में निजीकरण का बोलबाला है और इन्हें पूरी तरह खोलते समय सरकार ने यह कहा था कि इससे शिक्षा और स्वास्थ्य सर्वसुलभ होगा और सस्ता मिलेगा बल्कि रोजगार के अवसर भी पैदा होंगे | उन्हीं दोनों क्षेत्रों में आज पांच सौ रुपये से लेकर पन्द्रह सौ रुपये मासिक पर शिक्षक और लगभग इसी वेतन पर नर्सें नौकरी में रखे जा रहे हैं | सच तो यह है कि संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों के कामगारों का वास्तविक वेतन 1990 की तुलना में कम ही हुआ है | इस हड़ताल में इंटक और बीएमएस शामिल हो रहे हैं , यह एक अच्छा संकेत है | इस संकेत को यूपीए या इस उद्देश्य के लिए नवउदारवाद के सभी पैरोकारों को भी समझना चाहिए कि देश में आम आवाम के बीच सरकार की नीतियों के खिलाफ असंतोष बढ़ता जा रहा है और राजनीतिक प्रतिबद्धता के नाम पर मेहनतकशों के किसी हिस्से को संघर्ष से दूर रखना अब और संभव नहीं हो पायेगा |


 अरुण कान्त शुक्ला

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