Wednesday, December 21, 2011

बिना दुर्योधन का महाभारत –


बिना दुर्योधन का महाभारत –

केन्द्रीय मंत्रीमंडल ने लोकपाल बिल का जो स्वरूप लोकसभा में पेश करने का फैसला किया है , जाहिर है उसके एक दो बिंदुओं पर कुछ संशोधनों के साथ संसद की स्वीकृति भी उसे मिल ही जानी है , क्योंकि राजनीतिक दलों का कोई भी हिस्सा अन्ना के जनलोकपाल की अवधारणा से पूरी तरह सहमत नहीं है | यदि ऐसा नहीं भी होता है , तो भी , संसद में यह उस अवधारणा और रूप के साथ कभी पास नहीं होगा , जैसा टीम अन्ना चाहती है | टीम अन्ना और स्वयं अन्ना इसे सरकार या कांग्रेस का देश के साथ सबसे बड़ा धोखा बता रहे हैं और टीम अन्ना की यही समझ आंदोलन की सीमितता और भटकाव का सबसे बड़ा प्रमाण है | प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था स्वयं एवं अपने प्रतीकों को बचाये रखने के लिये अपनी पूरी शक्ति लगाती है | इसीलिये , अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का समर्थन करते हुए भी प्रत्येक राजनीतिक दल ने संसद की प्राथमिकता और सर्वोच्चता का प्रश्न सबसे पहले रखा और आज भी वे यही कह रहे हैं | फ़ौरन सियासी लाभ प्राप्त करने के लिये , वे कितना भी अन्ना के मंच पर न आ जाएँ , किन्तु , राजनीतिक व्यवस्था को बचाए रखने के खातिर , वे सभी एक हैं , यही सत्य नहीं समझना , टीम अन्ना सबसे बड़ा भटकाव है |

यह तय है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का एक और दौर देशवासियों को देखने मिलने वाला है | यदि अप्रैल’2011 से लेकर अभी तक अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में आये उतार – चढ़ावों  को गौर से देखा जाये तो बेशक कहा जा सकता है कि इस पूरे दौर में केन्द्र सरकार अथवा कांग्रेस को यह सफलता मिली है कि वे भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन जैसे बड़े लक्ष्य को लेकर शुरू हुए आंदोलन को केवल कांग्रेस के खिलाफ आंदोलन के स्वरूप में मोड़ने में कामयाब हुए हैं और टीम अन्ना और स्वयं अन्ना उस भटकाव का शिकार हुए हैं | यही कारण है कि अन्ना के साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष में जुटे समर्थकों का बहुत बड़ा मुखर और अमुखर हिस्सा आंदोलन से इसलिए अलग होता गया कि उसे टीम अन्ना के सदस्यों और स्वयं अन्ना के व्यवहार और नीतियों से यह आंदोलन मात्र कांग्रेस विरोधी लगने लगा |

अन्ना और उनकी टीम को इस बात का श्रेय हमेशा मिलेगा कि भ्रष्टाचार से त्रस्त देश की आम आवाज की आवाज को उन्होंने स्वर प्रदान किया | पर , इस पूरे आंदोलन को अगर एक पंक्ति में व्यक्त करना हो तो इसे बिना दुर्योधन का महाभारत की संज्ञा देनी होगी | अन्ना के भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन का पूरा जोर सरकार में शामिल राजनीतिज्ञों और नौकरशाही के खिलाफ ही है | देश के कारपोरेट सेक्टर और शासक वर्ग में शामिल अन्य तबकों के भ्रष्टाचार पर प्रारंभ से लेकर  अभी तक अन्ना और अन्ना टीम ने मौन ही बनाए रखा है | इसीलिये मैंने इसे बिना दुर्योधन का महाभारत कहा है , क्योंकि किसी भी देश में वहाँ का कारपोरेट सेक्टर और शासक वर्ग में शामिल लोग ही , वे मुख्य लाभार्थी होते हैं , जिन्हें व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार और प्रबंधकीय कुशलता याने इमानदारी और पारदर्शिता , दोनों से ही लाभ पहुंचता है |

सम्पूर्ण राजकीय प्रबंधन में भ्रष्टाचार , आम आदमी को कितना भी बैचेन क्यों न करे , वह एक छोटा हिस्सा ही है | दूसरा बड़ा हिस्सा , सैकड़ों वैधानिक तरीकों से ऐसी वैधानिक नीतियों का निर्माण होता है , जिससे कारपोरेट सेक्टर और शासक वर्ग के लोगों को अधिक से अधिक फ़ायदा और छूटें प्राप्त हों | इस नजरिये से देखें तो सम्पूर्ण राजकीय प्रबंधन में विधिक और अविधिक दोनों पहलू एक दूसरे का पूरक ही हैं | उदाहरण के लिये यदि आज देश की घोषित 70% संपदा वैधानिक रूप से मात्र 8200 लोगों के कब्जे में हो और शेष एक अरब और बीस करोड़ लोग बाकी 30% में गुजारा कर रहे हों , तो , यह देश की उन राजकीय आर्थिक नीतियों की बदौलत ही है , जो देश में पैदा हुई संपदा को निजी संपदा के रूप में कुछ लोगों के हाथ में सौंप देती है | उसके बाद तो उस निजी संपदा से और अधिक अतिरिक्त संपदा पैदा करना और इसके लिये कालेधन को एकत्रित करने से लेकर रिश्वत देने तक के सारे कार्य बच्चों के खेल के समान ही हो जाते हैं | एक बार आप कारपोरेट तबके को इतनी आर्थिक ताकत दे देते हो कि वह अपना काम करवाने के लिये भरपूर रिश्वत दे सके तो उसके बाद यह कल्पना कि वह तबका रिश्वत नहीं देगा और और सरकार में शामिल लोग रिश्वत नहीं लेंगे , पाखंड के अलावा कुछ नहीं है | यह टीम अन्ना और उनकी टीम की सोच में कहीं नहीं है कि निजीकरण की वैधानिक नीति ही कारपोरेट सेक्टर को वह आधार और ताकत प्रदान करती है कि वो उस निजीकरण की नीति लागू करने वाले मंत्रियों और नौकरशाहों को रिश्वत देकर खरीद सके और निजीकरण का फायदा उठा सके |

ठीक उसी तरह , जिस तरह भ्रष्टाचार शासक वर्ग के लिये राजकीय प्रबंधन का एक अनिवार्य हिस्सा है , भ्रष्टाचार विरोधी राजनीति भी शासक वर्ग की नीतियों का एक अनिवार्य हिस्सा है | 1970 के दशक का जयप्रकाश आंदोलन और 1980 के दशक का व्ही.पी. सिंह का बोफोर्स के खिलाफ खड़े होना , दोनों ने देश के मध्यम वर्गीय असंतोष को स्वर तो दिया लेकिन दोनों ही आन्दोलनों ने उसी व्यवस्था को पुख्ता  भी किया , जिसके खिलाफ लोग एकत्रित हुए थे | अन्ना व्यवस्था में परिवर्तन की बात करते हैं , उपरोक्त दोनों आंदोलन भी ऐसा ही कह रहे थे , लेकिन व्यवस्था पुख्ता हुई या परिवर्तित , नतीजा हमारे सामने है | वर्गीय दृष्टिकोण से विलग , कोई भी राजनीति आम आवाम के अंदर भ्रांति पैदा करती है कि व्यवस्था में बिना किसी आमूलचूल परिवर्तन के सुधार हो सकता है | पर , यह अंततः , उस आंदोलन के पीछे लामबंद हुए लोगों के लिये धोखा ही साबित होता है | अन्ना का भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन , उपरोक्त दोनों आन्दोलनों से ज्यादा उग्र है , इसमें कोई संदेह नहीं | लेकिन यक्ष प्रश्न यह है कि क्या कुछ ठीक ठाक लोगों का समूह विधिक और अविधिक . दोनों तरह के भ्रष्टाचार से देशवासियों को मुक्ति दिला सकता है ?

अरुण कान्त शुक्ला

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