Friday, July 8, 2011

मनमोहनसिंह –एक आत्मनिष्ठ , आत्ममुग्ध , अमेरिका परस्त प्रधानमंत्री—


मनमोहनसिंह –एक आत्मनिष्ठ , आत्ममुग्ध , अमेरिका परस्त प्रधानमंत्री—

मनमोहनसिंह , राष्ट्र तथा कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी में से किसके प्रति निष्ठ हैं ? या , मनमोहनसिंह , अभी तक के सबसे ज्यादा लाचार , असमर्थ और रिमोट कंट्रोल से याने सोनिया गांधी के निर्देशों पर चलने वाले प्रधानमंत्री हैं या उनमें त्वरित और विवेकपूर्ण निर्णय लेने की क्षमता नहीं है | ये वे आरोप हैं , जो उनके विरोधी तबसे लगा रहे हैं , जबसे मनमोहनसिंह प्रधानमंत्री बने हैं | विशेषकर भाजपा , आरएसएस और आरएसएस के विहिप जैसे अनेक संगठन तथा स्वयं लालकृष्ण आडवानी ने इन आरोपों को इतनी बार दोहराया है कि मनमोहनसिंह के बारे में वो ज्यादा संगीन सच्चाई , जो देश के लोगों के सामने आना चाहिये थी , दब कर रह गयी है |

इतिहास मात्र घटनाओं का अभिलेख नहीं होता बल्कि घटनाओं के परिणामों की विवेचना और समालोचना का रिकार्ड भी होता है | जब कभी मनमोहनसिंह के ऊपर लगने वाले इन आरोपों की विवेचना होगी , तब इतिहास में यह भी दर्ज होगा कि भारत में मनमोहनसिंह ने वर्ष 1991 में नवउदारवाद की जिन नीतियों के रास्ते पर देश को डाला , उसके बाद आने वाली सभी सरकारें , उन्हीं नीतियों पर चलीं , जो अमेरिका परस्त थीं और जिन पर चलकर देश की जनसंख्या का एक छोटा हिस्सा तो संपन्न हुआ लेकिन बहुसंख्यक हिस्सा बदहाली और भुखमरी को प्राप्त हुआ | इतिहास में यह भी दर्ज होगा कि 1991 के बाद के दो दशकों में भारत में शायद ही कोई ऐसा राजनीतिक दल रहा हो , जो सत्ता में न आया हो या जिसने सत्ता में मौजूद दलों को समर्थन न दिया हो | इसलिए जब भी मनमोहनसिंह के ऊपर सोनियानिष्ठ होने के आरोप लगाए जाते हैं तो राजनीतिक दलों का असली उद्देश्य मनमोहनसिंह के अमेरिका परस्त या वर्ल्ड बेंक परस्त चहरे को छिपाना ही होता है क्योंकि पिछले दो दशकों में सत्ता का सुख प्राप्त कर चुके सभी दल अमेरिका परस्त रह चुके हैं और इस मामले में कोई भी दूध का धुला नहीं है | यहाँ तक कि देश का मीडिया भी , विशेषकर टीव्ही मीडिया और बड़े अंग्रेजी दां अखबार भी इसमें शामिल हैं |

मनमोहनसिंह सत्ता प्रतिष्ठान से नजदीकी बनाए रखने वाले एक चतुर आत्मनिष्ठ नौकरशाह –

आजादी के बाद से लेकर अभी तक देश के किसी भी प्रधानमंत्री के बारे में इतनी बार और इतनी दावे के साथ यह कभी नहीं कहा गया कि वो व्यक्तिगत रूप से बहुत ईमानदार और सत्यनिष्ठ हैं , जितनी बार मनमोहनसिंह के बारे में कहा गया है | यहाँ तक कि उन्होंने स्वयं अपने को यह सर्टिफिकेट अनेक बार दिया है | यह बात अलग है कि बेईमानों को खुली छूट देकर , ईमानदार बने रहने के उनके इस गुण के कायलों की संख्या धीरे धीरे कम होती जा रही है | पर , जिस बात के लिये उनकी तारीफ़ करनी होगी , वह है सत्ता प्रतिष्ठान के साथ हमेशा नजदीकी बनाए रखने की उनकी बेशुमार योग्यता |

मनमोहनसिंह राजनीतिक पटल पर अचानक उभरे , जब 1991 में उन्हें भारत का वित्तमंत्री , तब बनाया गया , जब देश एक आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा था | उसके पूर्व , मनमोहनसिंह भारत सरकार में वित्त सचिव , रिजर्व बेंक के गवर्नर और भारत सरकार के आर्थिक सलाहकार के रूप में विभिन्न पदों पर काम कर चुके थे , पर , कभी भी उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था को खोलने और लायसेंस – परमिट राज को समाप्त करने की बात नहीं की या उसकी मुखालफत नहीं की | यह समय , याने 1991 के पूर्व का समय , वह दौर था जब भारतीय राजनीति में सभी आर्थिक और सामाजिक मामलों को भारत के अंदर ही सुलझा लेना सम्मानजनक समझा जाता था और किसी भी तरह की विदेशी दखलंदाजी को हेय नज़रों से देखा जाता था | आज की दुनिया में एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के रूप में प्रतिष्ठित मनमोहनसिंह को भी उस समय नेहरूवियन नीतियों से कोई गुरेज नहीं था क्योंकि सत्ता प्रतिष्ठान उन्हें मानता था | भारत के सत्ता प्रतिष्ठान के साथ इस नजदीकी का लाभ उन्हें यह मिला कि वे साऊथ एशिया के विभिन्न पदों पर से होते हुए वर्ल्ड बेंक से भी जुड़े | 1991 में , जब यह स्पष्ट हो गया कि अंतर्राष्ट्रीय देनदारियों से निपटने के लिये अब भारत के सम्मुख वर्ल्ड बेंक से लोन लेने के अतिरिक्त कोई और चारा नहीं है और वर्ल्ड बेंक की शर्तें ही देश की आगे की राजनीती को निर्देश देंगी , उन्हें अपनी निष्ठा तुरंत नेहरूवियन नीतियों से बदलकर , अमरीकीपरस्त करने में कोई देर नहीं लगी | और वह व्यक्ति , जिसने कभी उन नीतियों के खिलाफ मुँह नहीं खोला था , वित्तमंत्री बनाते ही अपने पहले बजट भाषण में बोला कि लम्हों ने खता की थी , सदियों ने सजा पाई | इसीलिये पूर्व रक्षामंत्री नटवरसिंह ने कुछ समय पूर्व दावा किया था कि मनमोहनसिंह को वित्तमंत्री वर्ल्ड बेंक के दबाव में बनाया गया था | इससे पता चलता है कि मनमोहनसिंह के लिये सत्ता में बने रहना हमेशा एकमात्र उद्देश्य रहा है और उनका कोई स्वयं की कोई निष्ठा नहीं है | वे आत्मनिष्ठ हैं |

एक आत्ममुग्ध प्रधानमंत्री –

मनमोहनसिंह एक आत्ममुग्ध प्रधानमंत्री हैं | यह उनके स्वभाव की विशेषता है | जब वे वित्तमंत्री थे , देश में किसान आत्महत्या कर रहे थे ,पर , मनमोहनसिंह शेयर बाजार की उछालों को अपनी कामयाबी बता रहे थे , जिसका भांडा जल्दी ही फूट गया | अभी हाल ही में प्रमुख अखबारों के संपादकों के प्रश्न पूछने पर कि सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी सरकार के खिलाफ कड़ी टिप्पणियाँ की हैं , उन्होंने कहा कि मैंने जजों से बात की है – और उन्होंने कहा है कि उन्हें (जजों को ) मामले अपना मंतव्य स्पष्ट करने के लिये ऐसे सवाल जबाब करने पड़ते हैं | उन्होंने (जजों ने ) कहा कि मीडिया जिस तरीके से रिपोर्ट करता है , समस्या उससे पैदा होती है | मैं ( मनमोहनसिंह स्वयं ) सोचता हूँ कि प्रत्येक को संयम दिखाना चाहिये | जब मैं ( मनमोहनसिंह ) जजों से बात करता हूँ , वे खाते हैं कि वह सब हमारा उद्देश्य नहीं है , आदेश या निर्देश भी नहीं है | प्रेस की रिपोर्टों से सनसनी फैलती है | यह आत्ममुग्धता की पराकाष्टा है | क्या गोदामों में सड़ने  वाला चावल को गरीबों में बांटने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को देश के सर्वोच्च न्यायालय का प्रलाप कहा जा सकता है , जिसका कोई उद्देश्य न हो |

इसे विडम्बना ही कहेंगे कि मनमोहनसिंह के इस बयान के दो दिन बाद ही सर्वोच्च न्यायालय ने न केवल यूपीए सरकार को फटकार लगाई , बल्कि , निगरानी के लिये एक विशेष टीम भी गठित कर दी | यह बताता है कि वे वर्ल्ड बैंक और ओबामा के आदेशों के अलावा सभी को कुछ नहीं समझते हैं और उसी आधार पर अपनी और दुर्भाग्य से देश की भी सफलता को आंकते हैं |    

प्रतिबद्धता के अनुसार निर्णय लेने में लचर नहीं -

वे सभी जो यह सोचते हैं कि प्रधानमंत्री निर्णय लेने में अक्षम हैं या उनकी प्रशासनिक योग्यता लचर है , पूरी तरह गलत हैं | उनकी निर्णय लेने की क्षमता को उनकी नवउदारवाद के प्रति प्रतिबद्धता से आंकिये , सब स्फटिक की भांती साफ़ हो जायेगा |

मनमोहनसिंह ने अनेकों बार दावा किया कि वे गाँव के रहने वाले हैं , लेकिन उनका ह्रदय धनी और कारपोरेट भारत के लिये व्याकुल होता है , देश के गरीबों के लिये नहीं | इसके अनेक उदाहरण हैं | रोजगार गारंटी योजना बनाने में यूपीए को पूरे दो साल लग गये , जबकि सेज का क़ानून तुरंत पेश कर दिया गया | राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य योजना बनाने में दो वर्ष से अधिक का समय लगा , लेकिन विश्वव्यापी मंदी ( जिसका असर भारत के उद्योगपतियों पर नहीं के बराबर हुआ , उलटे उसकी आड़ में उद्योगपतियों ने लोगों के रोजगार छीने गये ) के समय उद्योगपतियों को अनाप शनाप पैकेज देने में उन्हें कोई वक्त नहीं लगा | इस तरह के अनेकों उदाहरण दिए जा सकते हैं , जो यह बताएँगे कि वे उनकी प्रतिबद्धता के हिसाब से निर्णय लेने में कभी नहीं हिचकिचाते | हाल में जिस खाद्य सुरक्षा क़ानून को सरकार अनेक कारण बताते हुए लाने में हिचक रही है , उसके पीछे भी प्रधानमंत्री और उनका थिंक टेंक ही है | वस्तुस्थिति यह है कि मनमोहनसिंह यह अच्छी तरह जानते हैं कि जब तक विश्व बेंक , आईएमएफ , डब्लूटीओ और अमेरिका का वरदहस्त उनके साथ है , तब तक कांग्रेस में उनको कोई कुछ कर नहीं सकता |

अंतिम बात , भ्रष्टाचार , अक्षमता और अन्य तरह के अनेकों आरोप उन पर लगने के बावजूद वे यही कहते हैं कि अभी उनको दिया गया काम अधूरा है और उसे किये बगैर वे पद से नहीं हटेंगे | उन्होंने केवल एक बार प्रधानमंत्री के पद को छोडने की धमकी दी और पूरी कांग्रेस को न केवल उनके सामने झुकना पड़ा बल्कि सरकार के गिरने के खतरे को भी झेलना पड़ा | जानते हैं , कब , जब भारत –अमेरिका परमाणु समझौते के समय उन्हें ऐसा लगा कि कांग्रेस में सब लोग उनके साथ नहीं हैं , तब | क्या इससे पता नहीं चलता कि उनकी प्रतिबद्धता किसके साथ है ?

अरुण कान्त शुक्ला         


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