Saturday, November 16, 2024

हमारी आँखों पर पड़े परदे को हटाने के लिये धन्यवाद -माननीय

 हमारी आँखों पर पड़े परदे को हटाने के लिये धन्यवाद -माननीय

भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ पिछले दो दशकों में जितने मुख्य न्यायाधीश हुए उसमें सबसे अलग न केवल इसलिए रहे कि उनका दो साल का कार्यकाल अन्य सभी की तुलना में सबसे लम्बा था बल्कि उनके उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश और फिर मुख्य न्यायाधीश रहते हुए अनेक ऐसे निर्णय हुए जिन्होंने देश के सामाजिक और राजनीतिक वातावरण को सर्वाधिक प्रभावित किया। स्वाभाविक रूप से उन निर्णयों पर आलोचनात्मक मूल्यांकन करते हुए बड़ी संख्या में लोगों ने अपने विचार भी रखे। यही कारण है कि अपने विदाई समारोह में उन्हें कहना पड़ा कि अब मेरे सेवानिवृत होने के बाद सबसे अधिक दुःख मुझे ट्रोल करने वालों को होगा। शायद यह कहकर वे उन सभी आलोचनाओं और टिप्पणियों के वजन को हल्का करने की कोशिश कर रहे थे, जिनका द्वार स्वयं उन्होंने खोला था। पर उनके इस कथन से उन तथ्यों और बातों का वजन बिलकुल कम नहीं होता, जो उनके कार्यकाल का मूल्यांकन करते हुए कही गईं थीं, जिन्हें वे ट्रोल की संज्ञा दे रहे थे| आज देश की जो राजनीतिक और सामाजिक परिस्थिति है और जिस तरह का विधायिका का दबाव लोकतंत्र के बाकी तीनों खम्बों याने न्यायपालिका, कार्यपालिका तथा मीडिया पर दिखाई दे रहा है, देश की सर्वोच्च न्यायपालिका के सर्वोच्च न्यायाधीश के रूप में उनके द्वारा किये गए खुलासों ने ही उनके कार्यकाल के आकलन का रास्ता खोला था और उनके कार्यकाल में हुए निर्णय उसकी मांग भी करते हैं।       

संविधान और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए नियुक्त न्यायपालिका के प्रमुख के रूप में जिस राजनीतिक सामाजिक पृष्ठभूमि में उन्होंने अपनी न्यायिक और प्रशासनिक जिम्मेदारियों का निर्वहन किया, उसे ध्यान में रखे बिना उनकी भूमिका का सही आकलन नहीं हो सकता। उनके उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश और मुख्य न्यायाधीश रहते हुए कार्यकाल वह समय था जब मोदी सरकार अपने दूसरे कार्यकाल में हिंदुत्व के एजेंडे को पूरा करने के लिए अपने प्रयासों को आक्रामक ढंग से आगे बढ़ा रही थी, जो संविधान और नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन था। संवैधानिक मुद्दों और बहुसंख्यकवादी हमले पर मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ के फैसलों को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। 

हम यहाँ दो फैसलों को उदाहरण के तौर पर लेकर आगे बढ़ेंगे जिनका देश में वृहद् राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव पड़ा- एक फैसला न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में और दूसरा मुख्य न्यायाधीश के रूप में, जो किसी भी न्यायाधीश की उस शपथ के लिये  अग्नि परीक्षा के समान हैं,जो वे अपना पदभार ग्रहण करते समय लेते हैं। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ अयोध्या विवाद पर फैसला सुनाने वाली पांच सदस्यीय पीठ में थे। उन्होंने जो फैसला लिखा, उसमें विवादित क्षेत्र, जहां बाबरी मस्जिद थी, को राम मंदिर निर्माण के लिए हिंदुओं को सौंप दिया गया। यह फैसला जमीनी सबूतों और तथ्यों के बजाय धार्मिक भावनाओं और आस्था पर अधिक आधारित था। इसके अलावा, इसने यह स्वीकार करने के बावजूद ऐसा फैसला दिया कि बाबरी मस्जिद का विध्वंस एक असंवैधानिक और जघन्य कृत्य था। 

यह न्यायिक फैसला ही है जिसने आरएसएस-विश्व हिंदू परिषद के दावे को वैधता प्रदान की और भाजपा के मुख्य एजेंडे में से एक को पूरा किया। यह एक बार की चूक नहीं थी, यह तब स्पष्ट हो गया जब सीजेआई के रूप में जस्टिस चंद्रचूड़ ने वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद मामले को फिर से खोलने का रास्ता खोल दिया। ज्ञातव्य है कि उन्होंने यह फैसला उस धार्मिक स्थल संरक्षण अधिनियम, 1991 को दरकिनार करते हुए, जो ऐसे मामलों को फिर से खोलने पर रोक लगाता है, इस संदिग्ध आधार पर दिया कि हिंदू केवल अपने धार्मिक चरित्र को निर्धारित करने के लिए ज्ञानवापी मस्जिद के चरित्र को बदलने की मांग नहीं कर रहे थे और इस तरह उन्होंने उन मुकदमों को जारी रखने की अनुमति दी। इसने हिंदुत्ववादी ताकतों को वाराणसी और मथुरा में भी विवादों को हवा देने का लाइसेंस दिया। 

सीजेआई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ द्वारा दिया गया दूसरा प्रमुख निर्णय अनुच्छेद 370 को निरस्त करने और जम्मू-कश्मीर राज्य को समाप्त करने पर है। इस निर्णय ने अनुच्छेद 370 में संशोधन करने के लिए एकतरफा कार्यकारी शक्ति का प्रयोग किया, क्योंकि जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा अब अस्तित्व में नहीं थी। संविधान के अनुच्छेद 3 का उल्लंघन करके जम्मू-कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश में बदलने के मामले में, निर्णय ने इस मुद्दे को टाल दिया और केंद्र सरकार के इस आश्वासन को स्वीकार कर लिया कि भविष्य में किसी दिन जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा बहाल कर दिया जाएगा। इस निर्णय का एकमात्र अर्थ यह लगाया जा सकता है कि यह किसी तरह अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने के लिए कार्यपालिका की मनमानी कार्रवाई का समर्थन करना ही है। यह ध्यान रखना उचित होगा कि अनुच्छेद 370 को निरस्त करना भाजपा-आरएसएस के एजेंडे में एक और मुख्य मुद्दा था। 

मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ के कार्यकाल के अन्य पहलू भी हैं, जो 'मास्टर ऑफ रोस्टर' कर्तव्यों और कॉलेजियम प्रणाली के कामकाज से संबंधित हैं। यहां भी, एक स्पष्ट पैटर्न है। मामलों का आवंटन, जो नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संबंधित है, जैसे कि भीमा कोरेगांव मामले और उत्तर-पूर्वी दिल्ली सांप्रदायिक दंगों में लंबे समय तक जेल में रहने वाले लोग, ऐसे मामलों को एक विशिष्ट पीठ को संदर्भित करने की जानबूझकर की गई योजना को दर्शाते हैं, जहां संबंधित न्यायाधीश नागरिक स्वतंत्रता और जमानत देने के मामलों पर रूढ़िवादी दृष्टिकोण रखते हैं। यह हम उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति और न्यायाधीशों के चयन के मामले में भी देखते हैं जहां पर कॉलेजियम के काम के लिए  नियंत्रण अपने हाथों से कार्यपालिका को बिना किसी उज्र के सौंपा गया है। 

लेकिन इन सबके अलावा, जो बात चौंकाने वाली है, वह यह है कि एक विद्वान न्यायाधीश, जिनसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता और संवैधानिक सिद्धांतों के दृढ़ रक्षक होने की उम्मीद की जाती है, ने एक अति साधारण व्यक्ति के रूप में अपनी धार्मिक आस्था को संविधान और उसके मूल्यों के प्रति निष्ठा से ऊपर रखा। अपने कार्यकाल के अंतिम समय में, चंद्रचूड़ ने यह स्वीकार करके कई लोगों को चौंका दिया कि उन्होंने अयोध्या मामले के समाधान के लिए भगवान से प्रार्थना की थी। यहाँ निर्णय के लेखक ने स्वीकार किया है कि यह निर्णय संविधान और कानून पर आधारित नहीं था, बल्कि ईश्वरीय हस्तक्षेप पर आधारित था।

इससे पहले एक अवसर पर न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने गुजरात के द्वारका मंदिर में दर्शन करने के बाद वकीलों की एक सभा में कहा था कि मंदिर पर लगा भगवा ध्वज न्याय के ध्वज का प्रतीक है। यह सब केवल सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के बारे में ही नहीं, बल्कि उच्च न्यायपालिका के भीतर बढ़ते नवाचार के बारे में भी बताता है। 

मोदी के एक दशक के शासन में उच्च न्यायपालिका और कानूनी बिरादरी के बीच हिंदुत्व की भावना का प्रसार देखा गया है। हाल के दिनों में इसकी झलक खुलकर सामने आई है। कलकत्ता उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने अपनी सेवानिवृत्ति के दिन आरएसएस के साथ अपने आजीवन संबंध और संगठन के प्रति अपने ऋण की घोषणा की। उच्च न्यायालय के एक अन्य न्यायाधीश अभिजीत गंगोपाध्याय ने लोकसभा चुनाव से कुछ सप्ताह पहले इस्तीफा दे दिया और कुछ ही दिनों में भाजपा के उम्मीदवार बन गए और लोकसभा के लिए चुने गए। उपरोक्त दोनों उदाहरणों से दिमाग में यह स्वाभाविक रूप से कौंधता है कि जब वे न्याय की कुर्सी पर बैठते होंगे तो क्या निर्णय देते समय स्वयं को अपनी व्यक्तिगत आस्था और निष्ठा से मुक्त रख पाते होंगे? हाल के वर्षों में ऐसे अनेक निर्णय मिल जायेंगे जिनमें माननीय न्यायाधीशों की टिप्पणियाँ विधी और क़ानून से परे स्वयं की धारणाओं और विश्वास पर आधारित थीं और अनेक बार तो स्वयं उच्चतम न्यायालय ने इसका संज्ञान लिया और उन्हें गैरजरूरी बताकर अमान्य किया है। 

कुछ जजों की अंतर्दृष्टि किस तरह हिंदुत्व से प्रभावित है, यह इस साल जुलाई में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की दो सदस्यीय पीठ द्वारा की गई टिप्पणी में देखा जा सकता है। केंद्र द्वारा आरएसएस पर प्रतिबंध हटाए जाने के बाद, एक सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारी की याचिका का निपटारा करते हुए न्यायालय ने अपने आदेश में कहा कि आरएसएस जैसे प्रतिष्ठित संगठनको गलत तरीके से देश में प्रतिबंधित संगठनों की सूची में डाल दिया गया है। केंद्र सरकार की इस गलती के कारण, पांच दशकों में कई केंद्रीय सरकारी कर्मचारियों की देश की सेवा करने की आकांक्षाएं इस प्रतिबंध के कारण कम हो गईं। इसलिए, इन विद्वान न्यायाधीशों के अनुसार, देश की सेवा करने के लिए व्यक्ति को आरएसएस से जुड़ना ही होगा। 

कारवां पत्रिका के अक्टूबर 2024 के अंक में प्रकाशित एक लेख के अनुसार आरएसएस का कानूनी मोर्चा उच्च न्यायपालिका में अपना प्रभाव बढ़ा रहा है। वकीलों का संघ अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद आरएसएस के वकीलों का मोर्चा है और इसी संगठन के लोगों से ही महाधिवक्ता और न्यायाधीश जैसे अधिक से अधिक कानूनी अधिकारियों की नियुक्ति की जा रही है। लेख में बताया गया है कि 33 मौजूदा न्यायाधीशों में से कम से कम नौ ने परिषद के एक या अधिक कार्यक्रमों में मुख्य अतिथि के रूप में भाग लिया है। विचारों और अपनी मान्यताओं के अनुसार वकीलों का किसी संगठन को बनाना या उससे जुड़ना समझने आने वाली बात है पर जब उच्च न्यायालयों के तक के न्यायाधीश जो, “विधी द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति आस्था और निष्ठा की शपथ लेते हुए निष्ठापूर्वक तथा अपनी सर्वोत्तम योग्यता, ज्ञान और विवेक के साथ बिना किसी भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के अपने पद के कर्तव्यों का पालन करने  तथा संविधान और कानूनों की मर्यादा बनाए रखने की शपथ लेते हैं”, संविधान से परे किसी विशेष विचार या निष्ठा से जुड़ते हैं तो उनके निर्णयों पर उसकी छाप स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है, जो ऊपर उल्लेखित मध्यप्रदेश न्यायालय के एक निर्णय की टिप्पणी से स्पष्ट है   

मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ की सेवानिवृति के पूर्व स्वीकोरोक्तियाँ तथा उनके कार्यकाल का आकलन लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिये चेतावनी है कि किस तरह उच्चतम स्तर पर न्यायिक घोषणाओं में संवैधानिक प्रावधानों, विधी और न्याय की स्थापित परंपराओं से हटकर   बहुसंख्यकवादी भावनाएं प्रतिबिम्बित हो रही हैं। लोकतंत्र के वर्त्तमान भारतीय स्वरूप में विश्वास करने वालों को मुख्य न्यायाधीश श्री चंद्रचूड़ जी को इस बात के लिए धन्यवाद देना चाहिए कि उन्होंने न केवल न्याय की देवी की आँखों पर बंधी पट्टी हटाई है, हमारी आँखों पर पड़ा परदा भी हटाया है और कुल मिलाकर जाते जाते यह स्पष्ट कर दिया है कि मोदी सरकार ने उच्च न्यायपालिका में घुसपैठ करने में आरएसएस की कितनी मदद की है। 

अरुण कान्त शुक्ला

17 नवम्बर 2024

 

 

Tuesday, May 7, 2024

इस देश में पढ़े लिखे होने का एक ही मतलब रह गया है, प्रत्येक गलत के आगे सर झुकाओ और पढ़े लिखे होने का सबूत दो

 

इस देश में पढ़े लिखे होने का एक ही मतलब रह गया है, प्रत्येक गलत के आगे सर झुकाओ और पढ़े लिखे होने का सबूत दो

कारण...

मैं व मेरी पत्नी रायपुर नगर उत्तर लोकसभा क्षेत्र के निवासी हैं व अनेक विधानसभा, लोकसभा चुनावों में उपरोक्त मतदान केंद्र में मत देते आये हैं| इस बार भी हम हमेशा की तरह मतदान करने उपरोक्त केंद्र में पहुंचे| वहां पहुंचकर ज्ञात हुआ कि मेरा नाम तो सरल क्रमांक 913 पर है पर मेरी पत्नी, सरल क्रमांक 914, के नाम के उपर Deleted का ठप्पा लगा है| जबकि वह जीवित भी हैं और न ही हमारे पते में कोई परिवर्तन हुआ है| हम आधार कार्ड और मतदाता पहचान पत्र दोनों लेकर गये थे| वहां उपस्थित और बाद में आये कोई भी अधिकारी मेरी पत्नी को मत डालने की स्वीकृति तो दूर की बात है, यह बताने को भी तैयार नहीं थे कि उसका नाम, नलिनी शुक्ला, सरल क्रमांक 914, बूथ क्रमांक 113, किस तरह और किस कारण से डिलीट किया गया है| बाद में मेरी बात श्रीमान कलेक्टर महोदय से फोन पर मेरे ही प्रयासों से हुई, जिसमें उन्होंने वोट डलवाने में तो असमर्थता दिखाई पर हुई असुविधा के लिए खेद प्रगट किया|

एक नागरिक को भी वंचित कर संपादित चुनाव प्रक्रिया अधूरी और अवैध ही मानी जानी चाहिए...

प्रश्न यह है कि विधानसभा और लोकसभा के लिए होने वाले इन चुनावों को लोकतंत्र का पर्व, मत देने को नागरिक का सर्वोच्च अधिकार और न जाने कितनी उपमाओं के साथ आम लोगों के समक्ष रखा जाता है| वहीं एक बेसिरपैर के नियम के जरिये नागरिक को उस अधिकार से वंचित भी किया जाता है| मतदाता पत्र या जिसे वोटर आई डी कहते हैं, नागरिक घर में स्वयम नहीं बनाता| यह निर्वाचन आयोग के द्वारा ही पूरी तसल्ली के बाद दिया जाता है| नागरिक की पहचान के लिए आधार कार्ड व अनेक उपाय हैं, जो वह लेकर ही मतदान केंद्र पहुँचता है| जब उसका नाम वोटर लिस्ट में है, भले ही किसी की भी गलती ( नागरिक की नहीं) की वजह से उस पर डिलीट का ठप्पा लग गया हो, पर यदि नागरिक अपने मौजूद होने के पर्याप्त सबूत दे रहा है तो उसे मताधिकार से वंचित करना न केवल गलत है, उस बूथ के बाकी चुनाव पर भी सवालिया निशान है| एक नागरिक को भी वंचित कर संपादित चुनाव प्रक्रिया अधूरी और अवैध ही मानी जानी चाहिए| इस मामले में मैंने भी विरोध के तौर पर अपने मत का प्रयोग नहीं किया|

आश्चर्यजनक बात....

मैंने करीब 3 घंटे मतदान केंद्र पर बिताये और राजनीतिक दलों के मान्य कार्यकर्ताओं/नेताओं, बीएलओ से लेकर बूथ क्रमांक 113 की पीठासीन अधिकारी व उसके द्वारा सम्पर्क कराये गए निर्वाचन प्रक्रिया से जुड़े सभी अधिकारियों, जो वहां पहुंचे, से बात की पर उनकी लकीर की फ़कीर चाल देखकर अचंभित ही रहा| सभी के समझाने का एक ही आशय निकल कर सामने आता था कि एक बार डिलीट का ठप्पा लगने के बाद कोई भी ( उन्होंने भगवान का नाम नहीं लिया पर आशय वही था) कुछ नहीं कर पायेगा| पर, मुझे आश्चर्यजनक बात बाद में पता चली| कलेक्टर महोदय से भी नकारात्मक उत्तर पाकर, मस्तिष्क में बोझ और सर तथा दिल में दर्द लिये, हम पति- पत्नी उदास, खीझे हुए लगभग 4 बजे के बाद घर वापस लौटकर आ गये| कुछ समय पश्चात, शायद लगभग साढ़े पांच बजे एक फोन मेरे मोबाईल पर कलेक्ट्रेट से आया और किसी अधिकारी ने ( उन्होंने अपना नाम बताया था पर मुझे तनाव के कारण स्मरण नहीं है, मुझसे पूरा मामला जानना चाहा| मैंने उन्हें पूरी विस्तृत जानकारी दी| उन्होंने बताया कि मेरी पत्नी की नाम रिपीट( दो जगह) होने की वजह से डिलीट हुआ है| मैंने उनसे कहा कि फिर कृपया बताएं कि दूसरी वह कौन सी जगह है, जहां उनका नाम दर्ज है| उन्होंने कुछ देर जांच करने के बाद बताया कि किसी अन्य जगह तो दिखाई नहीं दे रहा है| आप एक काम करें कि 4 जून के बाद तहसील कार्यालय जाकर उनका नाम पुन: जुडवा लें| यदि कोई दिक्कत हो तो उनसे कलेक्ट्रेट में सम्पर्क कर लें| हाँ, यदि मैं चाहूँ तो शिकायत कर सकता हूँ और उसके बाद जिसकी भी गलती होगी, उसे सजा मिलेगी| मैंने उनसे कहा कि उससे मुझे क्या फायदा होगा? मेरी पत्नी जो अधिकार छीन लिया गया, क्या वह पुन: वापस होगा? या सरकार (चुनाव आयोग) के पास इस बात की राजनेताओं के समान कोई गारंटी है कि वह हमें अगले लोकसभा चुनाव तक किसी भी हालत में जीवित ( हम दोनों क्रमश: 73 तथा 74+ हैं) रखेगी और फिर हम अपने अधिकार का प्रयोग कर पायेंगे?

हाँ, लगभग तीन घंटे के दौरान पीठासीन अधिकारी से लेकर जितने अन्य अधिकारी मतदान केंद्र पहुंचे, सभी ने एक बात सामान रूप से कही ..आप तो सर पढ़े लिखे हैं..हमारी मजबूरी समझिये| इस देश में पढ़े लिखे होने का एक ही मतलब रह गया है, प्रत्येक गलत के आगे सर झुकाओ और पढ़े लिखे होने का सबूत दो|

अरुण कान्त शुक्ला

7 मई 2024                     

 

 

Friday, February 10, 2023

बजट के बारे में : बजट से इतर

बजट के बारे में बजट से इतर बात यह है कि देश के आम लोगों की प्राथमिकताएं नीति आयोग में बैठे अर्थशास्त्रियों और वित्त मंत्रालय में बैठे उन उच्च अधिकारियों की प्राथमिकताओं से एकदम भिन्न हैं जो साल दर साल यह तय करते हैं कि सरकार के पास रुपया आयेगा कहाँ से और रुपया बटेगा किसे? याद करें कि बजट के ठीक पहले जब खबरिया चैनल्स के एंकर हाथ में माईक लेकर बाजार हाट में लोगों से पूछ रहे थे कि वे बजट में क्या चाहते हैं तो गृहणियां मंहगाई कम होनी चाहिए बोल रही थीं तो युवा रोजगार के अवसर बढ़ने चाहिये कह रहे थे वृद्धजनों को दवाईयों की कीमतों और स्वास्थ्य सेवाओं के सस्ते होने की फ़िक्र थी पर, क्या यह बजट जिसे अपने भाषण के दौरान वित्तमंत्री निर्मला सीथारमण ने अनेक बार अमृतकाल का पहला सप्तऋषी बजट कहकर पेश किया गया है, आम लोगों की उन प्राथमिकताओं को पूरा करता है?

वित्तमंत्री ने जिन वस्तुओं के सस्ते होने की संभावना व्यक्त की है उनमें से किसी का भी आम आदमी के रोजमर्रा जीवन से कोई सीधा संबंध नहीं है मसलन, मोबाईल पार्ट्स और टेलीविजन के ओपन सेल के कलपुर्जों पर कस्टम ड्यूटी घटाई गयी है टीव्ही पर आयात शुल्क कम होगा, उसके सस्ते होने की संभावना है रबर पर ड्यूटी कम होने से खिलौने, साईकिल, आटोमोबाईल सस्ते हो सकते हैं वैसे यदि अभी तक के बजटों में जब कभी भी इस तरह कस्टम ड्यूटी या आयात शुल्क या अन्य कोई भी टेक्स कम करके चीजों के सस्ते होने का सब्जबाग दिखाया गया है तो अनुभव तो यही कहता है कि वह सब्जबाग ही होता है और उसका कोई भी लाभ उपभोक्ता तक नहीं पहुँच पाता है स्वयं नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश की 25% आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करती है याने हर चौथा भारतीय गरीब हैपर, समय समय पर आने वाली वैश्विक रिपोर्ट और नीति आयोग की रिपोर्ट की बात को छोड़ भी दें तो स्वयं हमारे प्रधानमंत्री गर्व से बार बार बताते हैं कि वे देश के 81 करोड़ गरीब लोगों को मुफ्त 5 किलो राशन पिछले 2 साल से दे रहे हैं और यह विश्व की सबसे बड़ी खाद्यान सहायता योजना है अब जिस महंगाई के कम होने की राह यह देख रहे होंगे, उसे तो इस बजट में छुआ भी नहीं गया है

भारत में मध्यम वर्ग कितना विशाल है, जिसका उदाहरण अनेक बार प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री सहित सरकार से लगभग सभी जनता से दो चार होने वाले नुमाइंदे करते रहते हैं और उसके बारे में कितनी चिंतित यह सरकार है, वह भी जान लेते हैं पिछले वर्ष लगभग मई माह के अंत में ‘प्रधानमंत्री को सलाह देने वाली आर्थिक सलाहकार परिषद’ के अध्यक्ष बिबेक देबरॉय ‘भारत में असमानता की दशा’ पर एक रिपोर्ट प्रधानमंत्री कार्यालय को सौंपी थीरिपोर्ट के अनुसार यदि कोई भारतीय 25000/- रुपया प्रति माह या वर्ष भर में 3 लाख रुपया कमा रहा है तो वह उन 10% भारतीयों में से एक है जो उच्चतम वेतन अर्जित करते हैं इसका सीधा मतलब था कि देश के 90% लोग 25000/- रूपये प्रतिमाह भी नहीं कमाते हैं यह रिपोर्ट लोगों के आय विवरण, बाजार में श्रम की उपयोगिता, लोगों के स्वास्थ्य, शिक्षा और घरेलू सुविधाओं और स्थिति के आधार पर समाज में कितनी आर्थिक असमानता मौजूद है उस पर न केवल प्रकाश डालती है, अंत में यह भी बताती है कि वर्ष 2017-2018 से 2019-2020 के मध्य किस तरह समाज के उच्चतम 1% की आय 15% बड़ी, जबकि उसी दौरान नीचे के 10% की आय 1% कम हुई रिपोर्ट में अंत में सुझाव दिया गया था कि इस असमानता को कम करने के लिये एक शहरी रोजगार योजना और सार्वभौम आधार आय योजना का लाना बहुत जरुरी है

रोजगार सृजन वह क्षेत्र है जिस पर वित्तमंत्री को सबसे अधिक फोकस इसलिए करना चाहिए था कि बीता वर्ष बेरोजगार युवाओं के आंदोलनों से भरा हुआ वर्ष थारेलवे में भर्तियों को लेकर हुआ आन्दोलन और अग्निवीर योजना के नाम पर युवाओं के साथ रोजगार के नाम पर किया गया आन्दोलन भुला देने योग्य घटनाएं नहीं हैं यद्यपि जनवरी 2023 में बेरोजगारी की दर कम हुई है पर 7% से अधिक की यह दर उस देश के लिये बहुत अधिक है जहां के लिये देश के प्रधानमंत्री कहते नहीं थकते हैं कि यह दुनिया की सबसे बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है और विश्वगुरु बनने की राह पर है पर, अफ़सोस की बात है की निर्मला जी ने रोजगार सृजन के मुद्दे सरकारी और निजी दोनों क्षेत्र द्वारा किये जा रहे अवेहलनापूर्ण रवैय्ये पर कोई चिंता जाहिर करने का उपक्रम भी नहीं किया ये जो रोजगार मेला भरवाकर टीव्ही में प्रधानमंत्री से रोजगार पत्र देने का इवेंट आयोजित किया जा रहा है, उससे रोजगार के संकट को नहीं निपटा जा सकता है बजट में पूंजीगत व्यय 7.5 लाख से बढ़ाकर 10 लाख किया गया है इसे वित्तमंत्री ने वर्तमान बेरोजगारी संकट के लिये ब्रम्हास्त्र बताया है सरकार इससे कौशल प्रशिक्षण केंद्र खोलकर युवाओं को विश्वस्तरीय प्रशिक्षण देने का इरादा रखती हैमुझे याद है जब अटल जी प्रधानमंत्री थे तो उन्होंने एक बार कहा था कि हम युवाओं को प्रशिक्षित करेंगे और उन्हें देश में रोजगार नहीं मिलता है तो वे विदेश में रोजगार प्राप्त करने योग्य होंगे यदि इन कौशल केन्द्रों की स्थापना का उद्देश्य युवाओं की अंतर्राष्ट्रीय पहुँच बढ़ाने के लिये है तो हम पहले से प्रतिभा पलायन से पीड़ित मुल्क में प्रतिभाओं को पलायन का एक और मौक़ा देने की कगार पर बैठ रहे हैं

यह भी एक संयोग ही था कि वित्तमंत्री के बजट के हलुआ वितरण के लगभग 13 दिनों पूर्व ही ऑक्सफैम की वह बहुचर्चित रिपोर्ट सरवाईवल ऑफ़ रिचेस्ट आई जिसमें पुरे विश्व के साथ भारत के अमीरों और भारत में व्याप्त असमानता पर भी बात की गई थी मैं उसके विस्तार में न जाकर केवल वही बात यहाँ उद्धृत करूंगा, जिसमें ऑक्सफैम के सीईओ अमिताभ बेहर ने बताया था कि भारत में हाशिये पर रहने वाले दलित, आदिवासी, मुस्लिम, और महिलाएं भारत के अमीरों के अस्तित्व को सुनिश्चित करते हैं बेहर ने भारत के वित्तमंत्री से अनुरोध करते हुए कहा था कि “ गरीब अमीरों की तुलना में अनुपातहीन रूप से उच्च करों का भुगतान कर रहे हैं, आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं पर अधिक खर्च कर रहे हैं समय आ गया है कि अमीरों पर कर लगाया जाये और यह सुनिश्चित किया जाये कि वे अपने उचित हिस्से का भुगतान करेंइसके लिये बेहर ने केंद्रीय वित्तमंत्री से धन कर और उत्तराधिकार कर जैसे प्रगतिशील कर उपायों को लागू करने की आग्रह किया जो असमानता को कम करने में ऐतिहासिक रूप से प्रभावी साबित हो चुके हैं

यह तय है की निर्मला जी किसी भी विदेशी रिपोर्ट और सलाह को तवज्जो नहीं देतीं| यह दीगर बात है की उसी सम्मेलन में पहले दिन प्रधानमंत्री अपना उद्बोधन देकर भारत युवाओं को कौशल प्रदान करने के लिये और उद्यमी बनाने के लिये क्या कर रहा है, विस्तार से बताते हैंबहरहाल, जिस पूंजीगत व्यय को बढ़ाकर रोजगार सृजन के लिये निर्मला जी ब्रम्हास्त्र बता रही हैं, उसका एक बड़ा हिस्सा महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी एक्ट में 29400 करोड़, ग्रामीण विकास आबंटन से 5113 करोड़, खाद्यान सबसीडी में 89,844 करोड़, बच्चों के मध्यान्ह भोजन और प्रधानमंत्री पोषण योजना में 1200 करोड़, प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना में 8000 करोड़ रुपये कम करके जुटाया गया है अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक बताते हैं कि वित्तमंत्री ने चार बुनियादी बातों को नजरअंदाज कर दिया पहली, यदि बिलकुल उतनी ही राशी, यदि सामाजिक क्षेत्र पर खर्च की जाये, तो उतनी ही मात्रा में रोजगार सृजन होगादूसरी, यह राशी यदि सामाजिक क्षेत्र पर खर्च की जाती तो सीधे तौर पर कामकाजी लोगों के लिये फायदेमंद होती, जिनके मामले में, जैसा कि संसद में बजट से एक दिन पूर्व पेश किये गये आर्थिक सर्वेक्षण में स्वीकार किया गया है कि वास्तविक मजदूरी में गिरावट आई है तीसरा, सरकार जो राशी सामाजिक क्षेत्र में खर्च करती है उसका गुणात्मक प्रभाव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मेहनतकश की क्रयशक्ति को बढाता है, यह सार्वजनिक पूंजीगत व्यय के प्रभावों से बहुत अधिक है बेरोजगारी पर प्रभाव डालने के लिये पूंजीगत व्यय अधिक करना होता है जबकि उतनी ही राशी सामाजिक क्षेत्र में खर्च करने से अधिक प्रभाव हासिल होता है और चौथा, पूंजीगत व्यय का अधिकाँश हिस्सा पूंजीगत वस्तुओं के आयात के रूप में “बाहर” निकल जाता है, जिससे कामकाजी लोगों की खपत सामर्थ्य में कोइ बढ़ोत्तरी नहीं होती

जैसा की वित्तमंत्री बजट पेश करने के काफी पहले से कहती रहीं कि वे मध्यमवर्ग से आती हैं और उसका ख्याल रखना उनकी प्राथमिकता में है, आयकर के नये रिजाईम में टेक्स से छूट की सीमा 7 लाख रूपये कर दी गई है ऐसी ही मेहरबानी पुरानी योजना वालों के लिये क्यों नहीं की, यह शोध का विषय है एक बात जो वित्तमंत्री ने नहीं बताई और उनसे पूछने का मन करता है कि 7 लाख से मात्र कुछ हजार, मान लीजिये 10,000 रूपये आय अधिक होने पर वह व्यक्ति मध्यम वर्ग से इतना बाहर हो जाता है कि उसकी आय पर कर लगना 3 लाख रूपये से शुरू हो जाएगा बहरहाल, 3 लाख से ऊपर कमाने वाले 10% में अडानी साहब भी हैं तो अम्बानी साहब भी, वे तो खुश हैं, बाकी 90% के लिये राष्ट्रवाद से लेकर हिज़ाब तक अनेक झुनझुने हैं, जिनसे वे बहल जाते हैं

 अरुण कान्त शुक्ला             
10 फरवरी 2023
 
     
 
 
 
 
 
 
 
 
  
 

 

 

Monday, January 30, 2023

भारत जोड़ो यात्रा और बीबीसी के वृतचित्र

आज राहुल गांधी की 7 सितम्बर को कन्याकुमारी से प्रारंभ हुई भारत जोड़ो यात्रा श्रीनगर में कांग्रेस कार्यालय के समक्ष राष्ट्रीय ध्वज फहराने के साथ समाप्त हो गयी है। यात्रा राहुल गांधी ने अपने दिवंगत पिता राजीव गांधी, स्वामी विवेकानंद और तमिल कवी त्रिवल्लुवर को श्रद्धांजलि देने के बाद शुरू की थी। यात्रा के शुरू होने के साथ ही प्रथम आक्रमण उनकी अमेठी की प्रतिद्वंदी स्मृति ईरानी के आक्रमण के साथ हुआ था। जो बाद में हमेशा की तरह स्मृति ईरानी का बड़बोलापन ही निकला। उसके बाद तो वे सारे आक्रमण हुए, जिनका उल्लेख करना यहाँ मेरा मकसद कतई नहीं है।आज जब यह यात्रा समाप्त हो रही है इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि राहुल गांधी की जो छवि, जैसे भी, निर्मित की गयी थी अथवा बन गयी थी, उसमें एक जबरदस्त सकारात्मक परिवर्तन दिखाई पड़ रहा है।सफ़ेद टीशर्ट में सादे और दाढ़ी वाली यात्रा कर रहे राहुल गांधी, उस राहुल गांधी से नितांत अलग दिख रहे हैं, जिनके बारे में सूना जाता था की वे कांग्रेस अध्यक्ष होते हुए भी या लोकसभा का सत्र चलने के दौरान भी अचानक छुट्टियां मनाने बीच बीच में जाने कहाँ विदेश चले जाते हैं।

 

 भारत जोड़ो यात्रा का समापन एक ऐसे समय हो रहा है जो प्रधानमंत्री मोदी के लिये सहज नहीं है बीबीसी के उस वृत्त चित्र का दूसरा भाग भी यूनाईटेड किंगडम में रिलीज हो चुका है जो भारत सरकार ने देश में बेन कर रखी है और जिसका प्रदर्शन अनेक जगह करने के जुर्म में पुलिस विश्विद्यालयों सहित अनेक जगह छात्रों तथा नागरिकों की धरपकड़ में जुटी है हालांकि, जैसा की मीडिया या जानकारों से पता चल रहा है कि दोनों वृतचित्रों में ऐसा कुछ भी नहीं है जो पहले से ही सार्वजनिक डोमेन में नहीं था जब भी 2002 के गुजरात के दंगों की बात होती है तो बीजेपी 1984 के दिल्ली दंगों की याद दिलाती है इससे 2002 के दंगे न्यायपूर्ण नहीं हो जाते यह एक अलग बात है, पर, क्या बीजेपी स्वयं उन दंगों को कभी भुलाने के लिये तत्पर हुई है, इस पर हमेशा प्रश्नवाचक चिन्ह लगा रहा है वस्तुत: जब भी मौक़ा लगा, बीजेपी के बड़े नेताओं ने अप्रत्यक्ष रूप से ही सही उन दंगों की याद लोगों को दिलाई है, फिर चाहे वह समाज के एक वर्ग को धमकाने और बहुसंख्यक से वोट बटोरने के लिये ही क्यों न हो 


वास्तव में 2002 की यादों को दोहराना बीजेपी को कभी भी राजनीतिक रूप से हानिकारक लगा ही नहीं फिर बीजीपी को बीबीसी के उन दो वृतचित्रों से डर क्यों लगा? दोनों वृतचित्रों के खिलाफ बीजेपी सरकार की भारी-भरकम प्रतिक्रिया से, जेएनयू में की गयी बिजली कट से, जामिया में दंगा पुलिस भेजने के कार्य से और अजमेर में राजस्थान के केन्द्रीय विश्वविद्यालय में 10 छात्रों को निलंबित करने की प्रतिक्रिया से स्पष्ट प्रतीत होता है कि उस वृतचित्र के प्रदर्शन से केंद्र सरकार ने न केवल तिलामलाई हुई है बल्कि स्वयं को घिरा भी महसूस कर रही है


समझा जा सकता है कि जब प्रधानमंत्री सहित बीजेपी का हर छोटा-बड़ा नेता भारत के जी-20  के अध्यक्ष बन जाने के गुणगान करने में लगा हो तथा इस हर वर्ष किसी अन्य देश के बारी बारी से मिल जाने वाली अध्यक्षता को देश के लोगों को भारत के विश्वगुरु बन जाने के रास्ते पर पड़ने वाले कदम के रूप में देखने के लिये प्रेरित कर रहे हों तब आवश्यकता ऐसी बातों को होती है जो इन सब की चापलूसी में कही जाये, उस समय बीबीसी के वृत्त चित्र, राहुल की यात्रा का पूर्ण होना, लाल चौक पर राष्ट्रीय ध्वज लहराना कतई दिल खुश करने वाली या बीजेपी के मनोबल को बढ़ाने वाली बातें तो नहीं हैं संपूर्ण यात्रा के दौरान और अब उसके समापन पर राहुल गांधी के व्यक्तित्व में आये परिवर्तन उन सबने महसूस तो किये ही हैं जो यात्रा पर थोड़ी भी नजर रख रहे थेउनके अंदर की विनम्रता बाहर आई है, उन्हें अपने वक्तव्यों पर और अधिक नियंत्रण हासिल हुआ है और वे एक मोहब्बत से भरे ऐसे इंसान के रूप में खुद को पेश क्र सके हैं जो हंसता है, गले मिलता है और जन से जुड़ने की इच्छा रखता है यह उस छवि के ठीक विपरीत है जो राहुल से ज्यादा समय देकर और मेहनत करके प्रधानमंत्री ने बनाई है वे एक अधिनायकवादी व्यक्ति के रूप में दिखते हैं जिनका सिर केवल अपने आदेश के पालन के लिये इशारा करते ही दिखता है 


यहाँ मेरा उद्देश्य भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस को कितना लाभ होगा या बीजेपी को कितना नुकसान होगा, उस पर चर्चा करना नहीं हैमैं केवल यह बताना चाहता हूँ कि राहुल गांधी के लिये चुनौती तो अभी शुरू हुई हैये चुनौतियां दो हैं प्रथम, आज मोदी जी की जो कसी हुई पकड़ देश की संस्थाओं तथा देश के एक वर्ग में है, उसमें किसी भी मोदी विरोधी संदेश अथवा लहर को गढ़ने का मतलब उन संस्थाओं और उनके समर्थकों की नाराजगी को आमंत्रित करना है दूसरी चुनौती यह है कि बीबीसी के दोनों वृतचित्र केवल यह नहीं बताते कि वर्ष 2002 में क्या हुआ थावे यह भी बताते हैं कि मोदी जी ने अपने राजनीतिक जीवन की गुजरात में कहाँ से शुरुवात की थी और उसे किस तरह उसका पुनर्निर्माण किया और उसे किस तरह पुन: ढाला हैकहने का तात्पर्य है कि 2024 के चुनावी समर में एक बदले हुए राहुल गांधी का मुकाबला उस विरोधी से होगा जिसे 2002 से अपने व्यक्तित्व को परिस्थिति अनुसार बदलते रहने में महारत हासिल है

 
अरुण कान्त शुक्ला 
30 जनवरी 2023    

Tuesday, November 1, 2022

‘भारतमाता’ जवाहरलाल नेहरू की नजर में

 

‘भारतमाता’ जवाहरलाल नेहरू की नजर में

देश एक ज़मीन का टुकड़ा ही नहीं है। कोई भी इलाका, कितना भी, खूबसूरत और हराभरा  हो अगर वह वीराना है तो देश कैसा? देश बनता है उसके नागरिकों से। पर नागरिकों की भीड़ से नहीं। एक सुगठित, सुव्यवस्थित, स्वस्थ, सानन्द और सुखी समाज से। एक उन्नत, प्रगतिशील और सुखी समाज, एक उदात्त चिंतन परम्परा और समरस की भावना से ही गढ़ा जा सकता है । देश को अगर मातृ रूप में हम स्वीकार करते  है, तो निःसंदेह, हम सब उस माँ की संताने हैं। स्वाधीनता संग्राम के ज्ञात अज्ञात नायकों ने न केवल एक ब्रिटिश मुक्त आज़ाद भारत की कल्पना की थी, बल्कि उन्होंने एक ऐसे भारत का सपना भी देखा थाजिसमे हम ज्ञान विज्ञान के सभी अंगों में प्रगति करते हुये, एक स्वस्थ और सुखी समाज के रूप में विकसित हों। इन नायकों की कल्पना और आज की जमीनी हकीकत का आत्मावलोकन कर खुद ही हम देखें कि हम कहां पहुंच गए हैं और किस ओर जा रहे हैं। भारत माता की जय बोलने के पहले यह याद रखा जाना जरूरी है कि, दुनिया मे कोई माँ, अपने दीन हीन, विपन्न, और झगड़ते हुए संतानों को देखकर सुखी नही रह सकती है। इस मायने में नेहरु की दृष्टि में भारतमाता की छवि एकदम साफ़ थी। भारत की विविधता को, उसमें कितने वर्ग, धर्म, वंश, जातियां, कौमें हैं और कितनी सांस्कृतिक विकास की धारायें और चरण हैं, नेहरु ने इसे बहुत गहराई से समझा था। प्रस्तुत है उनके आलेखों की माला ‘भारत एक खोज’ से एक अंश कि ‘भारत माता’ से नेहरु क्या आशय रखते थे।    


"अक्सर, जब मैं एक बैठक से दूसरी बैठक , एक जगह से दूसरी जगह , लोगों से मिलने के लिये जाता था, तो अपने श्रोताओं को हमारे इस इंडिया, इस हिंदुस्तान, जिसका नाम भारत भी है के बारे में बताता था भारत, यह नाम हमारे समाज के पौराणिक पूर्वज के नाम पर रखा गया है मैं शहरों में ऐसा कदाचित ही करता होउंगा, कारण साधारण है क्योंकि शहरों के लोग कुछ ज़्यादा सयाने होते हैं और दुसरे ही किस्म की  बातें सुनना पसंद करते हैं पर हमारी ग्रामीण जनता का देखने का दायरा थोड़ा सीमित होता है उन्हें मैं अपने इस महान देश के बारे में, जिसकी स्वतंत्रता के लिये हम लड़ रहे हैं, बताता हूँ उन्हें बताता हूँ कि कैसे इसका हर हिस्सा अलग है , फिर भी यह सारा भारत है पूर्व से पश्चिम तक, उत्तर से दक्षिण तक, यहाँ के किसानों की समस्याएं एक जैसी हैं उन्हें स्वराज की बात बताता हूँ, जो सबके लिये होगा, हर हिस्से के लिये होगा| मैं उन्हें बताता हूँ कि खैबर दर्रे से लेकर कन्याकुमारी तक की यात्राओं में हमारे किसान मुझसे एक जैसे सवाल पूछते हैं उनकी परेशानियां एक जैसी हैं गरीबी, कर्जे, निहित स्वार्थ, सूदखोर, भारी लगान और करों की दरें, पुलिस की ज्यादती, यह सब उस ढाँचे में समाया हुआ है जो विदेशी सत्ता द्वारा हमारे ऊपर थोपा हुआ है और जिससे सबको छुटकारा मिलना ही चाहिये| मेरी कोशिश रहती है की वे भारत को संपूर्णता में समझें कुछ अंशों में वे सारी दुनिया को भी समझें, जिसका हम हिस्सा हैं

मैं चीनस्पेनअबीसीनियामध्य यूरोपमिस्र और पश्चिम एशिया के मुल्कों में चल रहे संघर्षों की बात करता हूंमैं उन्हें रूस और अमेरिका में हुए परिवर्तनों की बात बताता हूंयह काम आसान नहीं हैपर इतना मुश्किल भी नहीं हैं जितना मुश्किल मैं समझ रहा थाहमारे प्राचीन महाकाव्योंहमारी पौराणिक कथाओं और किंवदंतियों से वे भली भांति परिचित हैं और इसके माध्यम से वे अपने देश को जानते समझते हैं| हर जगह मुझे ऐसे लोग भी मिले जो तीर्थयात्रा के लिये देश के चारो कोनों तक जा चुके थे या उनमें पुराने सैनिक भी थे जिन्होंने प्रथम विश्व युद्ध या अन्य अभियानों में विदेशी भागों में सेवा की थी। यहां तक ​​कि विदेशों के बारे में मेरे संदर्भों से भी उन्हें 'तीस के दशक' के महान मंदी के परिणामों की याद आई जिसने उन्हें घर वापस लाई थी।

कभी ऐसा भी होता कि जब मैं किसी जलसे में पहुंचता, तो मेरा स्वागत भारत माता की जयनारे के साथ किया जाता। मैं लोगों से पूछ बैठता कि इस नारे से उनका क्या मतलब है? यह भारत माता कौन है जिसकी वे जय चाहते हैं। मेरे सवाल से उन्हें कुतूहल और ताज्जुब होता और कुछ जवाब न सूझने पर वे एक दूसरे की तरफ या मेरी तरफ देखने लग जाते। आखिर एक हट्टे कट्टे जाट किसान ने जवाब दिया कि भारत माता से मतलब धरती से है। कौन सी धरती? उनके गांव की, जिले की या सूबे की या सारे हिंदुस्तान की?

इस तरह सवाल जवाब पर वे उकताकर कहते कि मैं ही बताऊँ। मैं इसकी कोशिश करता कि हिंदुस्तान वह सब कुछ है, जिसे उन्होंने समझ रखा है। लेकिन वह इससे भी बहुत ज्यादा है। हिंदुस्तान के नदी और पहाड़, जंगल और खेत, जो हमें अन्न देते हैं, ये सभी हमें अजीज हैं। लेकिन आखिरकार जिनकी गिनती है, वे हैं हिंदुस्तान के लोग, उनके और मेरे जैसे लोग, जो इस सारे देश में फैले हुए हैं। भारत माता दरअसल यही करोड़ों लोग हैं और भारत माता की जय से मतलब हुआ इन लोगों की जय। मैं उनसे कहता कि तुम इस भारत माता के अंश हो, एक तरह से तुम ही भारत माता हो और जैसे जैसे ये विचार उनके मन में बैठते, उनकी आंखों में चमक आ जाती, इस तरह मानो उन्होंने कोई बड़ी खोज कर ली हो।"

 

अरुण कान्त शुक्ला

1/11/2022