Thursday, September 12, 2013

कम्यूनल वायलेंस बिल को बिना देर लागू किया जाए..




केन्द्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे का बयान किसके लिए चेतावनी है और किसके लिए सावधानी बरतने की समझाईश, यह समझ से परे है| वो यह तो कहते हैं कि 2014 के आम चुनावों के आते आते तक देश में साम्प्रदायिक सदभाव और भी बुरी स्थिति में पहुंचेगा, पर इसे कैसे रोका जा सकता है, इस पर वो चुप्पी लगा जाते हैं| अपनी बात कहने के दौरान उन्हें यह भी याद नहीं आता कि उन्हीं के विभाग में वो कम्युनल वायलेंस बिल लंबित पड़ा  है, जिसे खुद यूपीए-2 ने साम्प्रदायिक हिंसा से अल्पसंख्यकों के बचाव के लिए तैयार किया था| इस बिल का मूल स्वरूप सोनिया गांधी की अगुवाई वाले राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने 2011 में तैयार किया था|

यूपीए-2 सरकार की अपनी असफलताएं हैं और इन असफलताओं ने देश को राजनीतिक अराजकता के दलदल की तरफ धकेल दिया है| वो ताकतें, जिन्हें देश की जनता ने उनके साम्प्रदायिक मंसूबों और चरित्र के कारण दिल्ली की गद्दी से दूर कर दिया था, आज पूरी शिद्दत और ताकत के साथ फिर से दिल्ली पर काबिज होने के ख़्वाब केवल इसलिए देख  रही हैं कि आर्थिक अव्यवस्था और भ्रष्टाचार के बोझ से यूपीए का ढांचा चरमराया दिख रहा है| एक ऐसे दौर में जब अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर अर्थव्यवस्थाएं मंदी के संकट का सामना कर रही हैं और समाज का निचला हिस्सा बैचेनी और तंगी से गुजर रहा है, उसे बड़ी आसानी से साम्प्रदायिक माहोल को बिगाड़ने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है और वही होता हम देख रहे हैं| पिछले चार वर्षों के दौरान पूरे देश में हुए साम्प्रदायिक और जातीय तनावों और दंगों/झगड़ों की संख्या हजारों में होगी| कोई भी राज्य, किसी भी  राजनीतिक दल से शासित रहा हो, इससे छूटा नहीं है| उत्तरप्रदेश में मायावती और अब समाजवादी पार्टी, महाराष्ट्र में एनसीपी और कांग्रेस, गुजरात/कर्नाटक/मध्यप्रदेश/में भाजपा, बिहार में जेडी(यू), राजस्थान में कांग्रेस के रहते हुए साम्प्रदायिक और जातीय दंगे हुए|

आज देश के प्रबुद्ध लोगों के सामने यह सवाल शिद्दत के साथ मुंह बाए खड़ा है कि जिस धर्म आश्रित और जातीय राजनीति पर देश चल रहा है और उस पर चलते हुए भारत एक अराजक और हिंसक समाज के रूप में विश्व में अपनी पहचान बनाते जा रहा है, क्या उस राजनीति को देश में चलने देना चाहिए? मुजफ्फरपुर, तमिलनाडु, बिहार, और अन्य लगभग सभी जगह हुए तनाव/दंगे बताते हैं कि दो व्यक्तियों या कुछ व्यक्तियों के मध्य के मतान्तर, व्यक्तिगत मन-मुटाव और झगड़े, अब संबंधित व्यक्तियों तक सीमित नहीं रहते और उन्हें जाती, संप्रदाय, धर्म के झगड़ों का रूप देकर साम्प्रदायिक दंगों में बदल दिया जाता है| राजनीति और राजनीतिज्ञों के इस घृणित रूप को हमने मुजफ्फरनगर में देखा है| भाजपा/सपा/बसपा/कांग्रेस सभी दलों के नेताओं ने शुद्ध गुंडागर्दी के मामले को साम्प्रदायिक रूप दे दिया और राज्य सरकारों और राज्यों के प्रशासन ने इसे होने दिया| गुजरात के 2002 की साम्प्रदायिक हिंसा और उसके बाद अभी तक हो चुकी हजारों साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं ने यह बार बार सिद्ध कर दिया गया है कि राज्य सरकार न केवल स्थिति पर नियंत्रण करने में नाकाम रहती हैं, देश के विकास में साम्प्रदायिक सद्भाव कितना अहं है, इसकी समझ भी उनमें कम रहती है| यह परिस्थिति साम्प्रदायिक हिंसा के खिलाफ लंबित बिल को जल्द से जल्द लागू करने की मांग करती है|

इस तथ्य के बावजूद की केंद्र सरकार और राज्यों के बीच दो बिन्दुओं पर मतभेद हैं, बिल लागू होना चाहिए क्योंकि मतभेद का पहला कारण, कि केंद्र सरकार को राज्यों के अन्दर की बिगड़ी हुई साम्प्रदायिक स्थिति को ऐसे डील करना चाहिए कि कानों और व्यवस्था बनाए रखने के राज्यों के अधिकारों का अतिक्रमण न हो, इसलिए महत्त्व हीं है, क्योंकि राज्य साम्प्रदायिक सौहाद्र बनाए रखने के मामले में राज्य की क़ानून और व्यवस्था का उचित इस्तेमाल करने में असफल ही नहीं हुए हैं बल्कि राज्यों के नेताओं और प्रशासन ने उसे बिगाड़ा और सम्प्रदाय विशेष के खिलाफ इस्तेमाल किया है| जहां तक राज्यों की आपत्ति के  दूसरे कारण का सवाल है कि राज्यों की मांग पर ही केंद्र हस्तक्षेप करे, यह भी बेमानी है, क्योंकि जब तक राज्य केंद्र से मांग करेंगे, बहुत देर हो चुकी होगी और जान-माल का बेहिसाब नुकसान हो चुका होगा| यह हमने मुजफ्फरनगर में भी देखा है| प्रश्न यह है की क्या राज्यों की स्वायत्ता और क़ानून व्यवस्था की स्थिति पर राज्यों के अधिकार के भारी भरकम दावों के पीछे केंद्र देश की जनता के प्रत्येक हिस्से को शान्ति और सुरक्षा के साथ रहने देने के अपने दायित्व को भुला सकता है? समय आ गया है कि केंद्र सरकार कम्युनल वायलेंस बिल पर पड़ी धूल हटाये और उसे तुरंत लागू करे|

अरुण कान्त शुक्ला,
13सितम्बर, 2013           

इन ठगों से बचने की जरुरत है..




विश्वास का अस्तित्व होता है..

‘आज मुझे लगता है कि मैंने आसाराम पर विश्वास नहीं, अंधविश्वास किया’| पीड़ित बच्ची के पिता का यह कथन अनेक प्रश्नों को अपने अन्दर समेटे हुए है| यह कथन, उस पिता का है, जो अपने (अंध)विश्वास के चलते स्वयं अपनी बच्ची को झाड़-फूंक के इलाज के लिए, उसके पास छोड़ आया, जिस पर वो विश्वास करता था| प्रश्न यह है की वो किस पर विश्वास करता था? क्या वो व्यक्ति के रूप में आसाराम पर विश्वास करता था? या, फिर वो उस झाड़-फूंक पर विश्वास करता था, जो आसाराम किया करते थे? क्या वही व्यक्ति, अपनी बच्ची को किसी ऐसे व्यक्ति के पास अकेले रहने देता, जो जादू-टोना और झाड़-फूंक नहीं जानता होता?

निश्चित रूप से कोई भी पिता अपनी बच्ची को किसी ऐसे व्यक्ति के पास नहीं छोड़ता, जिस पर उसका कोई विश्वास न होता| इस मामले में इसे अंध-श्रद्धा भी कह सकते हैं| वह ईश्वर(धर्म) के नाम पर होने वाले व्यापार में फंस गया| फंसा ही नहीं, उस व्यापार का हिस्सा भी बन गया| उस व्यापार का हिस्सा नहीं होता तो क्या वो अपने शहर में आसाराम के आश्रम को खड़ा करने जुटता?
गौरतलब है कि उसके विश्वास को तब कोई चोट नहीं पहुँची, जब आसाराम के आश्रम के बाहर, आश्रम में ही पलने वाले बच्चों के शव मिले| उसे तब भी कोई चोट नहीं पहुँची, जब सैकड़ों एकड़ जमीन आश्रमों के निर्माण के दौरान दबाये जाने की खबरें आती रहीं| उसे चोट तब पहुँची, पीड़ा तब हुई, जब उसके विश्वास की आंच में वह स्वयं झुलसा| इसका क्या मतलब निकाला जाए?

तब धर्म ने, जिस पर भरोसे के जरिये वो संत तक पहुंचा, उसे क्या सिखाया? दूसरे की पीड़ा की तरफ मत देखो| अपनी आँखें बंद कर लो| नेत्रहीन हो जाओ| दूसरे की संपत्ति हड़पी जाए तो अपना मुंह बंद कर लो| मूक हो जाओ| आसाराम के भक्तों ने, जिनके साथ वो कल तक था, पूरे देश में क्या किया? वही किया, जो वह स्वयं आसाराम के लिए करता था, उसकी पीड़ा नहीं देखी| वो आज भी उसकी बात को सच नहीं मानते| उन्होंने हिंसक प्रदेशन किये| राहगीरों को मारा| पोलिस का रास्ता रोका| वो आसाराम के खिलाफ एक शब्द नहीं सुनना चाहते| उन्हें धर्म ने सिखाया, सच मत सुनो| बहरा बनाया|

पर, वे सब तो देख सकते हैं| सुन सकते हैं| बोल सकते हैं| तब, धर्म ने किसे अंधा, गूंगा और बहरा बनाया? धर्म ने उनकी बुद्धि को, उनके विवेक को, उनकी चेतना को, अंधा, गूंगा, बहरा बना दिया| तीनों इन्द्रियों के होते हुए भी वो अपाहिज हो गए|

ये हाई-प्रोफाईल अंधविश्वास का मामला है| गाँवों में यही काम, जो आसाराम अपनी आलीशान कुटिया में करते हैं, एक बैगा, एक झाड़-फूंक करने वाला तांत्रिक, कोई फ़कीर अपनी झौपड़ी में या पीड़ितों के घर में करता है| कभी पीड़ित शिकायत करते हैं, कभी मन मसोसकर चुप लगा जाते हैं| यह बहुत बड़ा जाल है| मेट्रो शहरों से लेकर सुदूर ग्रामीण अंचलों तक फैला हुआ| ठगों की मिलिभगत और रसूखदारों के पोषण के बिना यह जीवित नहीं रह सकता|

हम सबने वो कहानी अनेक बार सुन रखी है कि चार ठगों ने मिलकर किस तरह एक व्यक्ति से, उसकी बकरी को बार बार कुत्ता कहकर, उसकी बकरी छीन ली थी| इस कहानी में बकरी वास्तविकता है| विश्वास है| कुत्ते का अस्तित्व ही नहीं है| वह ठगों की बातों पर अंधविश्वास है| चारों ठग मिलकर, जो नहीं है, उसे है प्रमाणित करते हैं| वे, जो नहीं है, वो है, को इतनी बार दोहराते हैं कि व्यक्ति का विवेक, ज्ञान, बुद्धि, चेतना, अनुभव सब शून्य हो जाता है| वह बकरी को कुत्ता समझने लगता है| विवेक पर अविवेक, ज्ञान पर अज्ञान, तर्क पर कुतर्क हावी हो जाते हैं|
आज समाज में हमारे चारों ओर ये चारों ठग आजाद घूम रहे हैं| वे आज पहले से ज्यादा उद्दंड हैं| हमारे जीवन के हर पहलू को वो प्रभावित कर रहे हैं| वो धर्म, आस्था के नाम पर कुरीतियों, अंध-श्रद्धा और अंधविश्वास को बढ़ाने में लगे हैं| वे राजनीति में हैं| वे प्रशासन में हैं| वे न्याय व्यवस्था में हैं| हर जगह वे धर्म और आस्था का बाना ओढ़े हुए हैं| मीडिया उनकी मुठ्ठी में है| इसीलिये जब कोई अंधविश्वास, कुरीतियों, टोना-टोटकों के खिलाफ खड़ा होता है तो उसे मिटाने में वे लग जाते हैं|

वे अनेक रूपों में हमारे सामने आते हैं| कभी राष्ट्रवाद का नकाब ओढ़कर, कभी मजहब का परचम लेकर, उनके अपने प्रयोजन हैं| उन्हें सत्ता चाहिए| उन्हें शक्ति चाहिए| उन्हें संपत्ति चाहिए| एक विवेकवान समाज का शोषण असंभव सा है| इसलिए उन्हें विवेकहीन समाज चाहिए| अंधा, बहरा और गूंगा समाज| ये बाबा/संत सभी निर्विवाद रूप से प्रायोजित हैं| इन्हें अंधे/बहरे/गूंगे समाज के निर्माण के लिए मेहनताने के रूप में संपत्ति और वैभव एकत्रित करने और अय्याश जीवन जीने की सुविधा दी  जाती है| राजनीति, प्रशासन और न्याय व्यवस्था में बैठे ठग इन्हें अवसर उपलब्ध कराते हैं| इनकी दुकानें चलें, लोग इनके पीछे लामबंद हों, इसलिए राजनीति, प्रशासन और न्याय व्यवस्था में बैठे ठग इनके चरण छूते हैं और मुफ्त में इन बाबाओं और संतों को सरकारी/गैरसरकारी जमीनें और सरकारी सुविधाएं उपलब्ध कराते हैं| ये विश्वास को झूठा और अंधविश्वास को सच्चा बताने में लगे रहते हैं| बकरी थी, वह विश्वास था| ठगों ने बकरी को कुत्ता बना दिया, कुत्ता नहीं था| अंधविश्वास का कोई अस्तित्व नहीं होता| विश्वास का अस्तित्व होता है| इन ठगों से बचने की जरुरत है|

अरुण कान्त शुक्ला,
12 सितम्बर, 2013                                      

Wednesday, July 31, 2013

बेटा करेगा स्टंट डैडी जाएंगे जेल




 यदि दिल्ली पुलिस बाईक पर चलने वाले इन आवारा शोहदों और उनके लापरवाह तथा पोलिस और प्रशासन को अपना गुलाम समझने वाले माँ-बापों के खिलाफ सच में सख्त होती है तो ये एक बहुत ही राहत भरा कदम होगा, जिसका पालन पूरे देश में किया जाना चाहिए| उस लड़के की मौत की वजह से अभी दिल्ली पोलिस को तथाकथित अच्छे लोगों से गाली खानी पड़ रही है, जिन्हें उन जैसे  बाईकर्स का आतंक अभी तक झेलना नहीं पड़ा है|  लेकिन सच यही है कि इन बाईकर्स ने आम लोगों विशेषकर महिलाओं, बच्चों  और बूढ़ों का सड़क पर चलना मुश्किल कर दिया है| | ये बीमारी , नव धनाड्यों की औलादों की बेजा हरकतों की,  मेट्रों से होते हुए छोटे शहरों और गांवों तक फ़ैल रही है| हाल ही में रायपुर में जितने भी नौजवानों के एक्सीडेंट हुए हैं, उन सब के पीछे  नव धनाड्य, संभ्रांत, संपन्न कहे जाने वाले घरानों के इन लड़कों का स्पीड और किसी को भी कुछ नहीं समझने वाला क्रेज ही है| रायपुर शंकर नगर रोड पर भी, जोकि काफी व्यस्त सड़क है,  इन बिगड़े  नवजवानों को मोटरसाईकिलों पर ऐसे करतब करते देखा जा सकता है| ये खुद तो मरते हैं, दूसरों की जिन्दगी को भी खतरे में डालते हैं| कोढ़ में खाज ये कि इनमें से कोई भी कमाई धमाई नहीं करता है| देश के लिए इनका एक पैसे का भी योगदान नहीं है, न तो टेक्स के रूप में और न किसी ओर तरह| जिस लड़के की मृत्यु हुई है, उसकी माँ अब रो रही है, लेकिन इतनी रात को उसका 19 साल का बेटा घर से गायब था, ये उसे नहीं मालूम था? क्या इस पर कोई विश्वास कर सकता है? एक और लड़के ने जिसे अपनी ड्यूटी के बाद घर जाना था घर पर फोन करके कह दिया की वो दोस्तों के साथ रात में आऊटिंग पर जा रहा है और सुबह वापस आयेगा| आप बताईये की ये कौन सा कल्चर है| उसके माँ ,बाप ने भी नहीं कहा  कि नौकरी के बाद घर वापस आओ| आऊटिंग पर जाना है तो उसका कोई  समय होना चाहिए| शहर की सड़कों पर लोगों को परेशान करते हुए सर्कस करना और बहादुरी दिखाना कौन सा भला और देशोपयोगी कार्य हैदिल्ली में ये रोज की घटनाएं हैं, आखिर पोलिस इनको कैसे नियंत्रण में लाये?  ये भाग जायेंगे , इनके तथाकथित संपन्न और रसूखदार बाप  इन्हें बचाने आ जायेंगे| ये दूसरे दिन फिर वही करेंगे और, और ज्यादा, दबंगई के साथ करेंगे| कुछ दिन पहले ही रायपुर में पंडरी बाजार में आधी रात को कुछ संपन्न घराने के लड़के पकड़ाए थे, जो शौकिया लोगों की कारों को तोड़ते थे और जब एक नागरिक ने इसे देखा और विरोध किया तो उन्होंने उस नागरिक के साथ मार पीट भी की| | इन संपन्न घरानों की औलादें  महिलाओं के गले से चेन खींचकर भागती हैं| ये कौन सा कल्चर है, जिसे हम बढ़ावा दे रहे हैं, कहीं तो रोक लगानी ही होगी| अपने बच्चों को अच्छा नागरिक और क़ानून का पालन करने वाला नागरिक बनाना माता-पिता के सामाजिक दायित्वों में है| यदि वे ऐसा नहीं कर रहे हैं तो उन्हें  सजा मिलनी चाहिए|
अरुण कान्त शुक्ला, 31जुलाई, 2013   


Thursday, July 18, 2013

हम गरीब या वंचित को इंसान समझते ही कब हैं?



हम गरीब या वंचित को इंसान समझते ही कब हैं?


बिहार के एक स्कूल में मिड डे मील की वजह से हुई बच्चों की मृत्यु ने बहुत दुखी कर दिया है| यदि ये कोई साजिश है तो बहुत ही घृणित और अक्षम्य है| यदि ये लापरवाही है , जैसी कि अन्य कई जगहों पर अनेकों बार हुई है तब भी जानबूझकर की गयी ह्त्या से ज्यादा सजा के लायक है| पूंजीवादी समाज में सरकारों को देश के सभी लोगों के लिए शिक्षा, नौकरी, रोजगार, काम, देने के बजाय मुफ्त में खाना, चप्पलें, साईकिलें, बीमार गायें, मरियल बकरी बांटना पुसाता है| लेपटाप से लेकर पोर्टेबल कलर टीव्ही तक क्या राज्यों की सरकारों ने नहीं बांटा है| इस तरह की योजनाओं से इन राजनीतिक दलों के पास एक ऐसा तबका हमेशा के लिए तैयार हो जाता है, जो उनके रहमों करम और इशारों पर नाचने के लिए तैयार रहता है| यही उनका वोट बैंक है और यही उनका समर्थक वर्ग| यह एक राजनीतिक दल से दूसरे के पास शिफ्ट हो सकता है, मगर रहता हमेशा उनके रहमोकरम पर ही है| दान पे जीने वाला|

दान का अपना मनोविज्ञान होता है| विशेषकर जब दान को प्राप्त करने वाला गरीब और वंचित हो या पंडित पुजारी हो तो , दोनों को दिए गए दान की गुणवत्ता और ग्राहता में यह मनोविज्ञान और भी साफ़ होकर दिखाई देता है| गरीबों को जब दान देने की बारी आती है तो करोडपति के घर से भी फटे और फटे न भी हों तो पुराने कपड़े ही बाहर निकालेंगे| घर के नौकरों तक को, जोकि घर के अभिन्न अंग होते हैं , हमेशा सुबह का खाना शाम को, और रात का खाना सुबह ही दिया जाता है| यहाँ तक की कई घरों में मैंने देखा है कि कम से कम तीन चार दिनों तक फ्रिज में पड़े रहने के बाद खाने को माँगने आने वाले भिखारियों या घरेलु नौकरों को देते हैं| यह मानकर चला जाता है की ऐसे लोग सब कुछ पचा लेते हैं और जो वस्तुएं सामान्यतया दानकर्ता के लिए अखाद्य होती हैं , वे गरीब तबके के लोग खा भी लेते हैं और उन्हें नुकसान भी नहीं होता|

दान का यह मनोविज्ञान कुछ व्यक्तियों,   परिवारों तक सीमित नहीं रहता| ये समाज से होते हुए सरकारों की मनोदशाओं और सरकार की योजनाओं को अमल का जामा पहनाने वाली पूरी मशीनरी पर भी गहरा और व्यापक असर डालता है| योजना आयोग जब यह कहता है कि एक आदमी 26 रुपये प्रतिदिन में अपना भरण पोषण कर सकता है तो मनोविज्ञान गरीब को उसी लायक समझने का है की इसे भर पेट और अच्छे भोजन की आवश्यकता ही कहाँ है? एक मंत्री, एक सरकारी अधिकारी या कोई नेता जब मात्र 5 रुपये में अन्नपूर्णा योजना के तहत दिए जाने वाले दाल-चावल योजना को लेकर अपनी पीठ थपथपाता है तो उसके पीछे भावना यही रहती है कि यह तो सरकार की मेहरबानी है, जितनी मिले उतनी ही बहुत है| यही बात सरकार की मिड डे मील योजना में भी साफ़ झलकती है|

चाहे वह केंद्र की सरकार हो या राज्य की सरकारें, उनके प्रशासन का काला चेहरा यदि देखना है तो सस्ते में उपलब्ध कराये जा रहे खाद्यानों में, मिड डे मील जैसी योजनाओं में, गर्भवती महिलाओं के लिए चलाये जा रहे कार्यक्रमों में, गरीबों के लिए लगाए गए नेत्र चिकित्सा शिविरों में, मनरेगा जैसी योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार में, उस काले चेहरे को देखा जा सकता है| अधिकतर मामलों में सस्ते में दिए जाने वाला अन्न सडा गला और न खाने लायक होगा, मुफ्त में दिया जाने वाला भोजन पूरी तरह घटिया सामानों से बना होगा और ठेकेदार से लेकर किसी भी अधिकारी और मंत्री या नेता के जेहन में ये बात नहीं होगी की इसे खाने वाले इंसान होंगे| बस किसी हादसे के बाद ही हायतौबा मचेगी और फिर कुछ दिनों बाद सब जैसा का तैसा हो जाएगा| लालच पर आधारित व्यवस्था में दान पर जीने वालों को इंसान नहीं समझा जाता, यही सबसे बड़ा सच है| इस व्यवस्था ने हमें भी यही सिखाया है| हम भी गरीब या वंचित को इंसान समझते ही कब हैं? 

अरुण कान्त शुक्ला
१८जुलाई, २०१३