Friday, September 23, 2011

गरीबी नहीं , कंगाली की रेखा --


       गरीबी नहीं , कंगाली की रेखा –

ऐसा प्रतीत होता है कि यूपीए सरकार के पास अपनी दूसरी पारी में देशवासियों को देने के लिये कुछ भी अच्छा नहीं है | यूपीए-2 के कार्यकाल के पिछले लगभग ढाई वर्षों में देश की जनता के उस हिस्से को , जिसे सरकार से राहतों की उम्मीद रहती है , महँगाई और भ्रष्टाचार के कड़वे घूंटों के अलावा कुछ नहीं मिला है | सर्वोच्च न्यायालय में  पेश , प्रधानमंत्री से अनुमोदित शपथ-पत्र , जिसमें गरीबी रेखा को शहरी क्षेत्रों के लिये 20 रुपये से बढ़ाकर 32 रुपये और गाँवों के लिये 15 रुपये से बढ़ाकर 26 रुपये किया गया है , एक और कड़वा घूंट है , जिसे यूपीए सरकार देशवासियों को पिला रही है |

गरीबी रेखा आय की वह सीमा है , जिसका निर्धारण सरकारें करती हैं और किसी परिवार की आय उस सीमा से नीचे जाने पर उस परिवार को आधिकारिक रूप से गरीब या गरीबी रेखा से नीचे माना जाता है , जिससे वह परिवार सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का हकदार बनता है | पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में समाज के वंचित तबकों के अथवा समाज के विभिन्न कमजोर वर्गों के जीवन स्तर को उन्नत करने वाले कदमों को उठाने से सरकार के ऊपर पड़ने वाले आर्थिक भार को फिजूल खर्ची समझा जाता है | विकसित देशों से लेकर विकासशील देशों तक , सभी देशों में कारपोरेट जगत और संपन्न तबका हमेशा सरकार के द्वारा कमजोर  तबकों के लिये किये जा रहे कल्याणकारी कार्यों के ऊपर होने वाले खर्चों की खिलाफत में रहता है | सरकारें भी सामान्यतः कारपोरेट जगत और संपन्न तबके के दबाव में काम करते हुए हमेशा कल्याणकारी कामों से पीछा छुड़ाने की चेष्ठा करते ही नजर आती हैं | यही कारण है कि गरीबी रेखा के लिये न्यूनतम आय सीमा तय करते समय सरकार का भरसक प्रयत्न यही होता है कि यह  मानक नीचे से नीचा हो ताकि गरीबों की संख्या कम से कम दिखाई दे | जब योजना आयोग के यह कहता है कि शहर में 32 रुपये प्रतिदिन और गाँवों में 26 रुपये प्रतिदिन खर्च कर सकने वाले को गरीब नहीं कहा जा सकता है , तो , उसके पीछे सरकारी कल्याणकारी योजनाओं के लाभ से अधिक से अधिक लोगों को बाहर रखने की मंशा ही है |

सरकार ने गरीबों की संख्या को लेकर देश में हमेशा ही भ्रम की स्थिति बने रहने दी | सरकारी आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2004 में गरीबी रेखा के नीचे जी रहे लोगों की संख्या जनसंख्या के 27.5% के बराबर थी , जो 2010 में बढ़कर 37.2% के करीब हो गयी | इसके ठीक विपरीत सरकार के द्वारा ही बनाई गयी अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में उजागर किया था कि भारत में 70% लोग 20 रुपये प्रतिदिन से भी कम पर गुजारा करते हैं | उसके अनुसार देश में लगभग 70 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे जी रहे थे | जाहिर है सरकार ने उस रिपोर्ट को कभी मंजूर नहीं किया | मंजूर तो सरकार को संयुक्त राष्ट्र संघ का भी गरीबी का मानक कभी नहीं हुआ , जिसके अनुसार प्रतिदिन 1.25 डालर (आज के हिसाब से लगभग 60 रुपये) से कम पर गुजारा करने वालों को गरीबी रेखा से नीचे माना जाता है |

सर्वोच्च न्यायालय की फटकार पड़ने के बाद योजना आयोग के द्वारा गरीबी रेखा के मानक में किया गया  वर्त्तमान सुधार भी पिछले मानकों के समान ही बेतुका और गरीबों का मखौल उड़ाने वाला है | कुछ समय पहले ही विश्वबैंक ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि गरीबी से लड़ने के भारत सरकार के प्रयास ही अपर्याप्त नहीं हैं बल्कि गरीबी रेखा के लिये निर्धारित मानक भी कुछ ज्यादा ही कम हैं | विश्वबैंक ने उम्मीद जताई थी कि भारत सरकार देश की वास्तविक स्थिति को देखकर उन मानकों को कम से कम 1.17 डालर याने लगभग 56 रुपये प्रतिदिन तक खर्च करने वाली आबादी तक अवश्य बढ़ाएगी | इसमे किसी को कोई संशय नहीं हो सकता कि बीसवीं सदी के अंतिम तीन दशकों में विश्वबैंक , आईएमएफ , और विश्व व्यापार संगठन विश्व में विकसित देशों की बहुउद्देशीय कंपनियों और संपन्न तबके के हितों को साधने वाले शक्तिशाली अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों के रूप में उभरे और इनके दबाव में प्रायः दुनिया के सभी देशों ने भूमंडलीकरण के नाम पर उन नवउदारवादी नीतियों और कार्यक्रमों को अपनाया , जिनकी वजह से पूरी दुनिया में गरीबों की संख्या में न केवल बढ़ोत्तरी हुई बल्कि उनके जीवनस्तर में भी तेज गिरावट आई | नवउदारवाद की नीतियों के लागू होने के दो दशकों के बाद ही प्रायः सभी देशों के गरीब तबकों और कमैय्या वर्ग के जीवनस्तर पर इस नीतियों के गंभीर दुष्परिणाम दिखने लगे थे और अंतिम दशक में संयुक्त राष्ट्र संघ सहित विश्वबैंक , आईएमएफ सभी को अंतर्राष्ट्रीय विकास लक्ष्यों में गरीबी उन्मूलन और भुखमरी से सबसे निचले तबके को बचाने के लक्ष्य को शामिल करना पड़ा |  वर्ष 2000 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने जब सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य स्वीकार किये तो उसमें गरीबी और भुखमरी को 2015 तक 50% कम करने का लक्ष्य रखा गया | संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित गरीबी की रेखा का मानक पहले एक डालर प्रतिदिन था , जिसे 2005 में बढ़ाकर 1.25 प्रतिदिन किया गया |

यहाँ महत्वपूर्ण यह है कि विकसित देशों और विशेषकर अमेरिका तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों को फायदा पहुंचाने के लिये अपनी शर्तों को दुनिया के देशों के ऊपर थोपने वाले विश्वबैंक , आईएमएफ ने गरीबी रेखा के मानक खुद तय करने की छूट सभी देशों को देकर रखी है और इसके लिये कभी भी कोई दबाव वे नहीं बनाते हैं | दरअसल , गरीबी और यदि उसे खत्म नहीं किया जा सकता है तो उसे कम करने की जरुरत पर प्रवचन करना , आज का फैशन बन गया है | यह बहुत कुछ उन्नीसवीं सदी में दान देने के लिये प्रोत्साहित करने को दिये जाने वाले प्रवचन के समान ही है | विश्वबैंक , आईएमएफ या संयुक्त राष्ट्र संघ ही क्यों आज वारेन बफेट और बिल गेटस भी यही कर रहे हैं | इनमें से कोई भी नहीं चाहता कि उस सामाजिक और आर्थिक रचनातंत्र पर कोई भी बातचीत हो , जो गरीबी का जनक है | जबकि आज के समाज में वो सामाजिक और तकनीकि क्षमता मौजूद है , जिससे गरीबी को समाप्त किया जा सकता है |

सच तो यह है कि भारत में 1991 से उदारीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद से देश के कामगारों , स्वरोजगारियों और नौकरी पेशा लोगों की वास्तविक आय में भारी कमी हुई है और श्रम नियमों की तरफ से आँखें मूँद लेने के चलते कम से कम वेतन पर रखने और कम से कम मजदूरी देने की छूट छोटे से लेकर बड़े तक सभी तरह के नियोक्ताओं को मिली है , जिसका सीधा असर लोगों और परिवारों की आय पर पड़ा है | इसके परिणामस्वरुप बहुत से ऐसे परिवार जो ठीक ठाक गुजर बसर करते थे , एकदम से गरीबी की जद में आये हैं | 2008 से जारी आर्थिक मंदी और पिछले पांच वर्षों से लगातार बढ़ती हुई मंहगाई ने देश में करोड़ों लोगों को गरीबी की उस जद में ला पटका है , जहां कोई भी सरकारी सहायता मिलती नहीं और स्वयं की आय पर केवल एक बदहाल और अवसाद भरी जिंदगी ही जी जा सकती है | इस तरह , गरीबी की इस जद में देश की जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा है , जिसकी आय एक लाख रुपये सालाना से ऊपर तक है | इसमें प्राईवेट स्कूलों में काम करने वाले शिक्षक , सरकार के द्वारा नियुक्त शिक्षाकर्मी , मनरेगा के मजदूर , घरों में काम करने वाली बाईयां , दिहाड़ी मजदूर , दैनिक वेतनभोगी कर्मचारी , आटोचालक , फेरी से सब्जी बेचने वाले जैसे स्वरोजगार में लगे लोग , निजी अस्पतालों और दुकानों में काम करने वाले लोग , जैसे करोड़ों हैं , जिन्हें अमीरों की श्रेणी में रखना , उनके साथ एक भद्दा मजाक है | योजना आयोग की गरीबी की रेखा , गरीबी की नहीं कंगाली की रेखा है | गरीबी की जद में तो भारत के अस्सी प्रतिशत परिवार आयेंगे , जिसको स्वीकार करना , एक ऐसी सरकार के लिये कभी भी संभव नहीं है , जैसी कि हमारे देश में है |

अरुण कान्त शुक्ला  

Tuesday, September 13, 2011


नवउदारवादी साजिश और आक्रमण के घेरे में हिंदी --

जाने माने व्यंगकार और कवि गिरीश पंकज ने फेसबुक पर हिंदी के वर्त्तमान स्वरूप के ऊपर अपने परिचित अंदाज में एक टिप्पणी लिखी | मैंने उसी अंदाज में उस पर कमेन्ट भी कर दिया | टिप्पणी थी ,

हिंदी के ब्राईट फ्यूचर को लेकर मैं होपफुल हूँ . इस लेंगुएज में कुछ बात तो है . कल 14 सेप्टेम्बर को हिंदी डे सेलीब्रेट किया जायेगा . गवर्नमेंट के लोग खूब एंज्वाय करेंगे . आखिर आफिसियल लेंगुएज , बोले तो राजभाषा है हिंदी . आप क्या सोचते हैं , हिंदी सरवाईव करेगी न ..?

मेरा कमेन्ट था , यस , यस व्हायी नाटॅ , जरुर सरवाईव करेगी |    

बात शायद आई गयी हो गई होती , यदि शाम को मेरी तीन वर्षीय पोती ने अपने खिलौना कम्प्यूटर पर खेलते हुए मुझसे यह न कहा होता कि दद्दू इस बटन को कन्टिनुयस दबाने से गेम फिनिश हो जाता है | मैंने उससे कहा , हाँ बेटा बटन लगातार दबाने से गेम बंद हों जाता है | उसने तुरंत जबाब दिया , लगातार नहीं , कन्टिनुयस | जाहिर है , अंग्रेजी स्कूल के माध्यम से ही सही , नर्सरी में जाने वाली बच्ची को कन्टिनुयस और फिनिश जैसे शब्द घर से ही मिले होंगे | यह घटना हमारी बोलचाल में अंग्रेजी शब्दों के बढ़ते चलन को ही नहीं बताती है , इससे आगे यह है कि लोग उन अंग्रेजी शब्दों की जगह इस्तेमाल होने वाले शब्दों को ही पूरी तरह भूलते जा रहे हैं | ऐसा नहीं है कि बोलचाल में अंग्रेजी शब्दों का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग करने की प्रवृति शहरी लोगों या अंग्रेजी स्कूल से शिक्षा प्राप्त या शिक्षा प्राप्त कर रहे लोगों में ही है | सुदूर ग्रामीण अंचलों तक में स्थानीय बोलियों और भाषाओं में अंग्रेजी शब्दों की घुसपैठ मजबूती से घर कर चुकी है | देश के किसी भी हिस्से में खेती से संबंधित खादों , दवाईयों , कीटनाशकों , बीजों और अनाज की किस्मों , ट्रेक्टर के उपकरणों के नाम ग्रामीण अंग्रेजी में सही उच्चारण के साथ लेते हुए दिखेंगे , जबकि उनका वास्ता अंग्रेजी स्कोऊल से कभी नहीं पड़ा हो | यह बोलचाल में भी दिखाई पड़ता है | छत्तीसगढ़ी में ही यह संवाद अक्सर सुनाई दे देगा , मैं मोर मदर ला हास्पिटल में एडमिट कराय हों | ओखरबर एपल लायेबर जावत हों | ते ह पेपर बनवा के एडवांस बिल जमा करवा दे |

देश के बुद्धु बक्से पर दिखाए जाने वाले सीरियलों और रियलिटी शोज तथा हिंदी फिल्मों ने भी हिंदी में अंग्रेजी मिश्रण को बेशुमार बढ़ाया है | एक सीरियल में सुहाना नाम की स्त्री किरदार को हिंदी के शब्द ही समझ नहीं आते | गिरफ्तार शब्द सुनकर वह बोलती है , गिरफ्तार , यू मीन अरेस्ट | ऐसा एक बार नहीं , प्रत्येक भाग में अनेक बार होता है | देश की आजादी के बाद अनेक हिंदी फिल्मों में हिंदी के साथ अंग्रेजी का प्रयोग अंग्रेजी की खिल्ली उड़ाने के लिये हुआ | पर , गाईड आते आते फिल्मकारों के लिये भी अंग्रेजी महत्वपूर्ण हो गयी | गाईड में दो पंडितों के शास्त्रार्थ में देवानंद अंग्रेजी का प्रयोग उन्हें हराने  के लिये करते हैं | जब पंडित देवानंद से कहते हैं कि तुम्हें संस्कृत नहीं आती , तो देवानंद का जबाब होता है कि तुम्हें अंग्रेजी नहीं आती | यह सुनकर गाँव के पूरे लोग देवानंद के साथ हो जाते हैं | यह सिलसिला बढ़कर अब आय एम तू सेक्सी फॉर यू , तेरे हाथ नहीं आनी और आई नो यू वांट इट , बट यू आर नेवर गोना गेट इट तक पहुँच चुका है , जिसमें हिंदी के बीच अंग्रेजी में पूरी अश्लीलता परोसी जा रही है | देश में यह गाना न केवल युवाओं के बीच लोकप्रिय होता है बल्कि छोटे छोटे बच्चे भी अंग्रेजी की पंक्तियों को सही उच्चारण के साथ घरों में गाते हैं और परिवार के लोग बैठकर मुस्कराते हैं | हमारे सामने जो चित्र है , वह हिंदी में अंग्रेजी की घुसपैठ को दिखाने के साथ साथ यह भी बता रहा है कि यह घुसपैठ हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हो रही है |

सचाई तो यह है कि हिंदी का खाने वाले टेलीविजन और फिल्मों में आज कहानी , पटकथा अंग्रेजी में ही लिखी जाती है | यहाँ तक कि कलाकारों के संवाद भी लेटिन अंग्रेजी में लिखे जाते हैं | देश के टेलीविजन और फिल्मों के कलाकारों को भी , अन्य अंग्रेजी दां भारतीयों की तरह , हिंदी को अंग्रेजी में ही पढ़ना आसान लगता है | फेसबुक और ट्वीटर जैसे माध्यम तो रोमन अंग्रेजी से भरे पड़े रहते हैं , क्योंकि उनका की बोर्ड अंग्रेजी में होता है और हिंदी टाईपिंग सीखना पड़ता है | जबकि यदि लोग चाहें तो एक साफ्टवेयर डलवाकर उसी अंग्रेजी से हिंदी में टाईप कर सकते हैं |

अमूमन सभी विज्ञापन पटलों पर विज्ञापन अंग्रेजी में होते हैं | देश में कोई भी अच्छा वेतन देने वाली नौकरी या रोजगार बिना अंग्रेजी ज्ञान के नहीं मिलता | उच्च शिक्षा पूरी तरह से अंग्रेजी के कब्जे में है | देश में अंग्रेजी का प्रभाव इतना गहरा है कि ग्रामीण इलाकों में भी कंपनियां बेचने के लिये सामान का ब्रांड नाम अंग्रेजी में रखती हैं , क्योंकि उनके अनुसार ग्रामीण उपभोक्ता उससे प्रभावित होता है |

पूछने पर प्रत्येक भारतवासी यही बतायेगा कि देश की राष्ट्रभाषा हिंदी है | पर , सचाई यही है कि हिंदी राजकाज चलाये जाने की दो भाषाओं में से एक है और दूसरी भाषा , जिसमें वास्तव में राजकाज चलता है , अंग्रेजी है | आजादी के बाद राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की प्रस्तावना और अन्य स्थानीय भाषाओं के बीच हुए टकरावों का नतीजा यह निकला कि शासक वर्ग और देश के संपन्न तबके ने अंग्रेजी को अघोषित रूप से राष्ट्रीय भाषा जैसा ही दर्जा दे दिया है |इसका नतीजा यह निकल रहा है कि देश के 80 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या का भारत की प्रशासनिक व्यवस्था , नीतियों के निर्माण और देश के लिये कुछ सोचने की प्रक्रिया में कोई भी योगदान नहीं है क्योंकि इस 80 प्रतिशत जनता के बहुत बड़े हिस्से की पहुँच ही शिक्षा तक नहीं है और जो शिक्षित होते भी हैं , चूंकि वे प्राथमिक स्तर से अंग्रेजी से परिचित नहीं होते , प्रतियोगिता और चयन में उस स्तर तक नहीं पहुँच पाते , जहां निर्णय लिये जाते हैं | देश के सामाजिक वातावरण में व्याप्त इस कमी का गंभीर दुष्प्रभाव अब स्पष्ट रूप से सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र के साथ साथ देश की लोकतांत्रिक प्रणाली पर भी दिखाई पड़ रहा है |

भारत के शासक वर्ग में ऐसे लोगों की कमी नहीं है , जो दबे स्वर में ही सही , पर यह मांग करने लगें कि यदि भारत के दलितों और पिछड़ों को मुख्यधारा में जोड़ना है तो अंग्रेजी को ही राष्ट्रभाषा बना दिया जाये ताकि इस तबके के उस हिस्से को जो सरकारी स्कूलों से शिक्षा प्राप्त करता है , प्राथमिक स्तर से ही अंग्रेजी की शिक्षा मिलने लगे | हो सकता है , आज ये बात कपोल कल्पित लगे , पर , नवउदारवाद के रास्ते पर चल रही सरकारों और संपन्न वर्ग के तौर तरीकों को इस संभावना को नकारा नहीं जा सकता है | विदेशी तकनीक , विदेशी धन कभी , अकेले नहीं आता उसके साथ विदेशी संस्कृति , विदेशी भाषा और सबसे ऊपर विदेशी सोच भी आती है जो देश के बारे में सोचने से रोकती है | हमारा देश उस दौर से गुजर रहा है , जिसमें प्रत्येक चीज को अमेरिका , विश्वबैंक और विश्व व्यापार संगठन के नजरिये से देखा जा रहा है | आज केवल यह प्रश्न नहीं है कि हिंदी अपने स्वरूप को बनाए रख पायेगी या नहीं | हिंदी नवउदारवादी संस्कृति के एक बड़े हमले और साजिश की जद में है | इसे बचाने के लिये भावनात्मक लगावों के साथ साथ राजनैतिक संघर्ष भी जरूरी है |