Saturday, March 26, 2011

लीबिया पर हमला , सुपरपावर का परमाधिकार -


 लीबिया पर हमला , सुपर पावर का परमाधिकार -

नाटो की अगवाई में ब्रिटेन , फ्रांस और अमेरिका के द्वारा लीबिया पर किये गये हवाई हमले के ऊपर अब अमेरिका सहित पूरी दुनिया में सवाल उठाये जा रहे हैं | कोई नहीं बता सकता कि मध्यपूर्व में पिछले दो दशकों में छेड़ा गया यह तीसरा एकतरफा युद्ध कैसे और कब खत्म होगा ? अमेरिका अब लीबिया में वही कर रहा है जो उसने इराक में किया था , जिसकी वजह से इराक में बड़े पैमाने पर विध्वंस हुआ और एक लाख से ऊपर लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा | अमेरिका के इस रुदन के बावजूद कि वह गद्दाफी से लीबियाई लोगों को सुरक्षा प्रदान कर रहा है , सचाई यही है कि जो कोई भी इस हमले के पीछे किसी सिद्धांत या तर्क को ढूंढेगा , उसे निराशा ही हाथ लगेगी , क्योंकि अरब देशों में लोकतंत्र के लिए आये उभार में अमेरिका का यह हस्तक्षेप केवल उस परमाधिकार को दिखाने के लिए है जो अमेरिका समझता है कि दुनिया की सुपर पावर होने के नाते उसे प्राप्त है |

यह सच है कि किसी के लिए भी गद्दाफी का समर्थन करना संभव नहीं है जिसने बेंघजाई की सडकों को लोकतंत्र की मांग करने वाले लोगों के खून से रंग दिया | पर , इसका मतलब कतई यह तो नहीं हो सकता कि अमेरिका और उसके सहयोगियों को वही करने की छूट दे दी जाए और वह भी तब , जब पूरी दुनिया के सामने यह उजागर हो कि अमेरिका सहित पश्चिमी देशों का स्वार्थ मध्यपूर्व के देशों में लोगों की भलाई करने के बजाय वहाँ के तेल के भंडारों पर अपनी पकड़ बनाए रखना है | वरना जब बहरीन में वहाँ का शासक अल – खलीफा परिवार लोगों के लोकतंत्र की बहाली के लिए किये जा रहे शांतिपूर्ण प्रदर्शनों को निर्ममता के साथ कुचल रहा था , पश्चिमी ताकतें आपराधिक मौन नहीं बनाए रखतीं | क्या यह इसलिए नहीं किया गया कि वहाँ अमेरिका की नौसेना का पांचवा बेड़ा पर्शियन गल्फ के आरपार फैला हुआ है , जहां से दुनिया में पैदा होने वाले समुद्री तेल के चालीस प्रतिशत जहाज जरुर गुजरते हैं और यहाँ से ईरान के ऊपर नजर रखना भी आसान है |

इसी तरह , यमन में , वहाँ के तानाशाह अली अब्दुल्लाह सालेह की सेनाओं ने लोकतांत्रिक सुधारों की मांग करने वाले दर्जनों निहत्थे और शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने वाले लोगों का कत्ले आम किया किन्तु वहाँ अमेरिका ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया क्योंकि अमेरिका सालेह को अलकायदा के खिलाफ एक अच्छा सहयोगी मानता है | अमेरिका को मालूम है कि यमन में अलकायदा का सक्रिय और खतरनाक आधार है , जहां से अमेरिका के खिलाफ हमले प्लान किये जा सकते हैं , इसीलिए , सालेह एक निरंकुश तानाशाह होने के बावजूद , अमेरिका के लिए बहुत उपयोगी है | लीबिया पर आक्रमण इसलिए कि यमन , बहरीन , सउदी अरब , जोर्डन , पर्शियन गल्फ के तानाशाह अमेरिका के हितों का ख्याल रखते हैं , दोस्ताना हैं , सहयोगी हैं , इसलिए उपयोगी हैं , जो गद्दाफी नहीं है | जो अमेरिका के खिलाफ जाएगा , उसे बम मिलेंगे और जो अमेरिका के हितों के अनुरूप रहेगा , उसे शाबाशी मिलेगी | अमेरिका की विदेश नीती का यही लब्बोलुआब है |

मिश्र में भी अमेरिका वहाँ के तानाशाह प्रेसीडेंट को पदच्युत नहीं देखना चाहता था | इसीलिये , अमेरिका की स्टेट सेक्रेटरी श्रीमती हिलेरी क्लींटन ने शुरुवात में कहा था कि होसनी मुबारक का शासन मिश्र में स्टेबल है याने अमेरिका उम्मीद कर रहा था कि मिश्र में सेनाएं लोकतंत्र की माँग करने वालों पर बलप्रयोग करके काबू पा लेंगी | होसनी मुबारक नृशंस और भ्रष्ट है , यह अमेरिका को छोड़कर सब जानते थे | यह तो तब , जब यह बिलकुल स्पष्ट हो गया कि होसनी मुबारक की पकड़ शासन पर से पूरी तरह खत्म हो गयी है और मिश्र की सेना शांतिपूर्ण आंदोलनकारियों पर दमन कर आंदोलन को नहीं कुचलेगी , अमेरिका ने लोकतंत्र समर्थक आंदोलनकारियों की तरफ अपना रुख किया | अभी , जब संयुक्त राष्ट्र संघ से लीबिया को नो फ्लाई जोन घोषित करवाने के बाद , लीबिया पर किये गये आक्रमण के औचित्य पर बराक ओबामा से प्रश्न किये गये तो उन्होंने वही घिसे पिटे तर्क दिए , जो उनसे पूर्व के अमेरिकन  राष्ट्रपति दिया करते थे | ओबामा का कहना था कि यदि लीबियाई जनता के ऊपर गद्दाफी के अत्याचारों को रोका नहीं गया तो मध्यपूर्व का पूरा का पूरा क्षेत्र अस्थिर हो जाएगा और अमेरिका के बहुत से सहयोगी और साथी खतरे में आ जायेंगे | अब , अमेरिका का राष्ट्रपति इतना नासमझ तो हो नहीं सकता कि उसको यह नहीं मालूम हो कि मध्यपूर्व का पूरा क्षेत्र और विशेषकर उसके सहयोगी और साथी देश पहले ही खतरे में आ चुके हैं और यह खतरा गद्दाफी का नहीं है बल्कि उन देशों के लोगों के अंदर लोकतंत्र के लिए पैदा हुई आकांक्षा का है |

इसमें कोई शक नहीं कि गद्दाफी का व्यवहार अपनी ही जनता के खिलाफ सनक से भरा हुआ और बदतरीन है | इसमें कोई शक नहीं कि वो लीबिया में लोकतंत्र की स्थापना के लिए किसी की भी सलाह नहीं सुनने वाला | इसमें भी कोई शक नहीं कि उससे छुटकारा पाकर लीबिया की जनता बहुत राहत पायेगी लेकिन इससे लीबिया के ऊपर किया जा रहा यह आक्रमण न्यायोचित नहीं हो जाता | लीबिया की जनता के ऊपर भरोसा रखना चाहिए , उसे सैनिक नहीं , नैतिक समर्थन की जरुरत है | यह लीबिया का अंदुरुनी संघर्ष है | नाटो की अगुवाई में , पश्चिम का लीबिया के ऊपर यह हमला , लीबिया की सार्वभौमिकता पर हमला है | अमेरिका गद्दाफी को समाप्त कर वहाँ इराक की तरह एक कठपुतली सरकार बिठाने की फिराक में है , जो अमेरिका के इशारे पर चले | अमेरिका को तो इसका कतई अधिकार नहीं कि वह लीबिया की मामले में बोले , जो यमन , साउदी अरब , जोर्डन , बहरीन और पर्शियन गल्फ जैसे देशों के तानाशाहों को समर्थन दिए हुए है | अमेरिका से अब स्वतंत्रता , लोकतांत्रिक अधिकार और मानवाधिकारों के बारे में कोई सुनना पसंद नहीं करता क्योंकि सब जान चुके हैं कि इसकी आड़ में अमेरिका अपना उल्लू सीधा करता है और दुनिया के ऊपर अपना परमाधिकार दिखाता है | लीबिया को जब नो फ्लाई जोन घोषित करने का प्रस्ताव लाया गया था , भारत ने अन्य चार देशों के साथ सुरक्षा परिषद से बहिर्गमन किया था | लीबिया की सार्वभौमिकता की रक्षा के लिए भारत को अब संयुक्त राष्ट्र में पूरे मामले पर पुनर्विचार की मांग के साथ इस हमले का विरोध करना चाहिए |

अरुण कान्त शुक्ला -                

Wednesday, March 16, 2011

नाभकीय ऊर्जा , शैतान के हाथों भलाई का सौदा -


नाभकीय ऊर्जा , शैतान के हाथों भलाई का सौदा –
इतिहास से सबक नहीं लेने वालों के सामने इतिहास खुद को दोहरा देता है | जो लोग रूस के चेर्नोबिल , थ्री-माईल आईसलेंड जैसी दुर्घटनाओं को भुलाकर , ऊर्जा से संबंधित सारी समस्याओं के लिए नाभकीय शक्ति को ही रामबाण हल बता रहे थे , उनके लिए जापान में , फुकुशिमा स्थित रिएक्टरों में हुए विस्फोटों के बाद रेडिएशन का फैलाव एक सबक के रूप में सामने आया है | पिछले साठ वर्षों में केवल रेडिएशन से संबंधित गंभीर किस्म के एक दर्जन से ज्यादा हादसे हो चुके हैं , जिनमें मरने वालों और प्रभावितों की संख्या लाखों में है | भारत और अमेरिका के मध्य हुए नाभकीय समझौते के समय जोरशोर से समझाया जा रहा था कि नाभकीय ऊर्जा से भारत की तेल और कोयले जैसे ऊर्जा के स्रोतों पर निर्भरता ही नहीं खत्म होगी बल्कि विशेषकर बिजली उत्पादन के मामले में भारत आत्मनिर्भर हो जाएगा | पर , पिछली दुर्घटनाओं और जापान में हो रहे वर्त्तमान रिसाव से होने वाले नुकसान की भयंकरता सोचने को मजबूर करती है कि नाभकीय ऊर्जा का इतने बड़े पैमाने पर इस्तेमाल दरअसल शैतान के हाथों भलाई करवाने का सौदा है , जो कभी भी अभिशाप में बदल सकता है |
यह सच है कि हाल फिलहाल विश्व में नाभकीय ऊर्जा के इस्तेमाल के प्रति रुझान में तेजी आई है और अनेक देशों , विशेषकर , विकासशील और अविकसित देशों की सरकारों , वैज्ञानिकों और उद्योगपतियों ने अपने अपने देशों में नाभकीय उर्जा के इस्तेमाल की तरफ ठोस कदम बढ़ाये हैं | विश्व के जाने माने पर्यावरणविद और भौतिकशास्त्री , विशेषकर , ग्लोबल वार्मिंग को ध्यान में रखते हुए , नाभकीय ऊर्जा के इस्तेमाल के पक्ष में तनकर खड़े हुए हैं | भारत में भी तात्कालीन राष्ट्रपति अब्दुल कलाम से लेकर अनेक अन्य नामचीन हस्तियाँ नाभकीय ऊर्जा को प्राप्त करने के लिए अमेरिका के साथ किये गये समझौते के पक्ष में थीं | ऐसे लोग , चाहे वे भारत में हों या दुनिया में कहीं भी , आज भी नाभकीय ऊर्जा के इस्तेमाल के पक्ष में ही हैं और उनके पास मजबूत दलील है कि फुकुशिमा में यह सब कुछ हुआ क्योंकि वहाँ इतना बड़ा भूकंप आया जो इससे पहले कभी नहीं देखा गया और इस भूकंप के कारण ज्ञात इतिहास की सबसे बड़ी सुनामी आयी , जिसने अकल्पनीय विनाश मचाया | यदि यह नहीं होता तो फुकुशिमा का हादसा भी नहीं होता | भविष्य में इतनी बड़ी प्राकृतिक आपदा आने पर भी ऐसा नहीं होगा | इसे आश्वस्त कराने के लिए वे कह रहे हैं कि फुकुशिमा के रिएक्टर बहुत पुरानी तकनीक और डिजाइन के थे और भविष्य में एहतियात बरतते हुए ऐसे न्यूक्लियर प्लांट बनाए जा सकते हैं , जो इतने बड़े भूकंपों और सुनामी को झेल पायेंगे | ऐसे तर्कों पर , जो केवल सम्भावनाओं पर ही टिके हों , कोई विवाद न करते हुए , केवल प्रार्थना ही की जा सकती है कि ऐसा ही हो | किन्तु , इसे कैसे अनदेखा करेंगे कि जापान के टेक्नीशियन्स और प्लांट में काम करने वाले अन्य स्टाफ , इस महाविपत्ति को अधिक फ़ैलने से रोकने के लिये जो जद्दोजहद कर रहे हैं , उसमें , उन्हें नाममात्र की भी सफलता नहीं मिल रही है और विश्व के न्यूक्लियर विशेषज्ञ सांस रोककर कामना कर रहे है कि विनाश कम से कम हो | यही दो बातें , यह जताने के लिए काफी हैं कि नाभकीय विखंडन की तकनीकि बहुत विषैली है और इसकी स्वयं अकेले ही विनाश करने की क्षमता असीमित है , जिस पर काबू पाना अत्यंत दुरूह कार्य है |
पृथ्वी हमेशा से तेज भूगर्भीय हलचलों , ज्वालामुखियों , और प्रचंड मौसमों के साथ अपनी धुरी पर घूमती है | मनुष्य ने विज्ञान और तकनीकि का विकास करके पृथ्वी के अंदर और बाहर होने वाली इन हलचलों का अनुमान लगाने की प्रक्रियाओं को विकसित किया है , पर रोजमर्रा जीवन का अनुभव बताता  है कि पृथ्वी की इन हलचलों का केवल पूर्वानुमान लगाया जा सकता है  और सबसे सटीक गणनाएं भी मात्र संभावनाएं हैं , वे अटल नहीं हैं | ऐसे कम्प्युटर विकसित हुए हैं , जो ठीक होने की अकल्पनीय हद तक जाकर परिणाम देते हैं , किन्तु , इन परिणामों का विश्लेषण भी अंततः मानव मस्तिष्क को ही करना होता है | जब कोई संकट खडा होता है , विशेषज्ञों को न केवल ठीक गणना करनी होती है बल्कि उनके ऊपर शीघ्र निर्णय पर पहुँचने का दबाव भी बेतहाशा होता है | सामान्यतः वे गल्ती नहीं करते , किन्तु जब उनसे गल्ती होती है , तब !
न्यूक्लियर विखंडन के साथ समस्या यह है कि एक बार दुर्घटना होने पर जो कुछ दांव पर लगता है , वह मानव का वर्तमान ही नहीं होता बल्कि आने वाली अनेक पीढ़ीयों का जीवन भी दांव पर लग जाता है | इसमें कोई शक नहीं कि ऐसे न्यूक्लियर पावर प्लांट बनाए जा सकते है , जिनमें चेर्नोबिल या जापान जैसी दुर्घटनाओं की संभावनाएं ना के बराबर हों | किन्तु , क्या ऐसे ना का मतलब पूर्ण सुरक्षा हो सकता है ? अभी तक जितने बड़े बड़े भूकंप और सुनामी आये हैं , जिनमें लाखों लोगों की मृत्यु हुई है और करोड़ों बेघरबार हुए हैं , बताते हैं कि हम इन्हें भी ठीक समय पर नहीं पढ़ पाए थे | और जब सवाल रेडिएशन के संकट का आता है तो विनाश सोचने की शक्ति से बाहर तक अकल्पनीय होता है | यही कारण है कि जर्मनी में रविवार , 13 मार्च को हजारों लोगों ने स्वतःस्फूर्त परमाणु – विरोधी प्रदर्शन किया है और वहाँ के चांसलर एंजेला मेर्केल ने फौरी तौर पर परमाणु कार्यक्रमों पर रोक लगाई है | विश्व के जनांदोलनों , पर्यावरणविदों और विशेषज्ञों ने परमाणु ऊर्जा पर रोक लगाने की मांग की है | जर्मनी के चांसलर ने इस पर विचार करने के लिए एक सेमीनार बुलाया है |
भारत अभी न्यूक्लियर एनर्जी उत्पादित करने के रास्ते पर है | अमेरिका से समझौते के बाद , जिन परमाणु केन्द्रों को विकसित करने की तैय्यारी भारत में चल रही है , उनमें से अधिकतर समुद्र के किनारे ही बनेंगे | बंगाल में हरिपुर , आंध्र में कोवाडा , गुजरात में मीठीविरडी और महाराष्ट्र में जैतपुर | महाराष्ट्र में रत्नागिरी जिले के किसान , मछुआरे और आम नागरिक पिछले चार वर्षों से जैतापुर परियोजना के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं | पर , सरकार दमनकारी रवैय्या अपनाए है | हमारे देश में न्यूक्लियर ऊर्जा के बारे में समझ कम है और प्रतिबद्धता ज्यादा है क्योंकि सरकार ने अमेरिका के साथ समझौता किया है , इसलिए उसका बचाव करना ही होगा , चाहे उसका परिणाम झेलने की ताकत देश के अंदर हो या न हो | इसका उदाहरण है कि जब सोमवार , 14 मार्च को सुबह जापान से दूसरे विस्फोट की खबर आयी थी , उसी दिन , भारतीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के भूतपूर्व अध्यक्ष डा. अनिल काकोडकर महाराष्ट्र की विधानसभा में जैतापुर अणु ऊर्जा योजना को जरूरी ठहरा रहे थे | दूसरी तरफ , जर्मनी में वहाँ के चांसलर कह रहे थे कि हम असंभावनाओं के आधार पर आगे नहीं बढ़ सकते | न्यूक्लियर विखंडन से प्राप्त बिजली सस्ती पड़ेगी या महंगी इस लेख का विषय नहीं है क्योंकि वह सस्ती भी पड़े तो मानवता के विनाश की कीमत पर वो मंहगी ही है |
अंत में , यह हो सकता है कि न्यूक्लियर एनर्जी समर्थक लाबी भारी पड़े और लोगों को यह विश्वास  दिलाए कि न्यूक्लियर प्लांट की नयी जेनरेशन में सभी सुधार कर लिए जायेंगे और वो दावे के साथ  कहें कि उन्होंने फुकुशिमा के सभी सबक सीख लिए हैं किन्तु वे स्वयं को तथा विश्व समुदाय को मूर्ख बना रहे होंगे क्योंकि फुकुशिमा का सबसे बड़ा सबक यह है कि असंभाव्य का मतलब असंभव नहीं होता है | प्रकृति से पैदा होने वाली या मानव जनित किसी भी तरह की कोई भी घटना , गल्ती , न्यूक्लियर विखंडन रिएक्टरों के साथ मिलकर या न्यूक्लियर विखंडन स्वयं अकेले महाविनाश कर सकता है , इसे हमेशा याद रखना होगा | विश्व की ऊर्जा समस्याओं से निपटने के लिए रामबाण बतायी जा रही न्यूक्लियर एनर्जी शैतान के हाथों भलाई का सौदा है |
अरुण कान्त शुक्ला                   

Monday, March 14, 2011

ऐसे विकास का क्या लाभ ?


ऐसे विकास का क्या लाभ ?

पिछले चार दिनों से मैं जापान में आये विनाशकारी भूकंप और प्रलयकारी सुनामी के परिणामस्वरुप उत्पन्न त्रासदी पर अपनी संवेदना व्यक्त कराने के लिए शब्द खोज रहा था | दिन रात टी.व्ही. पर घरों , मोटर-कारों , जहाज़ों और हवाई जहाज़ों को ऐसे बहते और लुढकते देखना , जैसे कोई बच्चा अपने कमरे में खिलौंनों से खेल रहा हो , प्रकृति की शक्ति का अहसास कराने के साथ साथ ह्रदय में भयानक भय पैदा करने वाला है | क्या प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने वाला शासक वर्ग , जिसे मानवता की रत्ती मात्र फ़िक्र नहीं है , चेतेगा कि उसके सारे विकास का क्रोधित प्रकृति मात्र दो घंटे में संहार कर सकती है |

मरने वालों की विशाल संख्या , जो नहीं मिल रहे हैं , उनके जीवित रहने की कोई संभावना नहीं और उसके ऊपर न्यूक्लियर रिएक्टर्स में विस्फोट के बाद वर्त्तमान ही नहीं , आने वाली कई पीढ़ीयों के लिए एक बार पुनः विकलांग पैदा होने का अभिशाप , सोचने के लिए मजबूर करता है कि ऐसे विकास का क्या लाभ जो मानवता का ही नाश कर दे | मानवता भक्षी पूंजीवाद का विनाश ही मानवता को बचाने का एकमात्र शेष उपाय है | आईये , जापान के लोगों के लिए प्रार्थना करें |

अरुण कान्त शुक्ला   

Saturday, March 5, 2011



8 मार्च अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर –

क्योंकि , वह मर्द जात से है -

वर्ष 2011 का 8 मार्च विश्व के अनेक देशों में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की 100वीं वर्षगाँठ के रूप में मनाया जा रहा है | संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस बार के महिला दिवस का फोकस महिलाओं को शिक्षा , प्रशिक्षण , विज्ञान ,और तकनीकी में समान अवसर उपलब्ध कराने पर रखा है ताकि महिलाओं को उचित , शालीन और संतोषजनक ढंग से कार्यों में पुरुषों के साथ भागीदारी करने के उचित अवसर सुलभ हो सकें |
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर दुनिया के कोने कोने में होने वाले सालाना जलसों का स्वरूप आज एक ऐसे उत्सव के रूप में परिवर्तित होते जा रहा है , जिसमें दुनिया की चंद महिलाओं के द्वारा आर्थिक , राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्रों में प्राप्त की गईं उपलब्धियों का गुणगान करके , बाकी सब महिलाओं से कहा जाता है कि वे उनके नक्शेकदम पर चलें | 100 वर्ष पहले लोकतांत्रिक चुनावों में महिलाओं को वोट करने के अधिकारकी मांग को लेकर यह आंदोलन शुरू हुआ था | सात वर्ष बाद 1917 में रूस की महिलाओं ने रोटी और कपड़े की मांग को लेकर महिला दिवस पर हड़ताल रखी और महिला दिवस को समाजवादी संघर्षों के एक अस्त्र के रूप में पहचान दिलाई | पर , आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के उद्देश्यों और उसे मनाने के तौर तरीकों से वह धार हट चुकी है और यह मुख्यतः महिलाओं के द्वारा अतीत और वर्तमान में प्राप्त उपलब्धियों को उत्सवित करने का मंच बनता जा रहा है | अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के उद्देश्यों और मनाने के तौर तरीकों में आये परिवर्तनों के दो प्रमुख कारणों में से पहला तो यह है कि पिछले 100 वर्षों के संघर्षों के फलस्वरूप समाज की  उच्च और  मध्यम वर्ग की महिलाओं के लिए , सीमित ही सही , पर अवसरों के द्वार खुले और अंतरिक्ष से लेकर विश्विद्यालयों में , दफ्तरों और फेक्ट्रियों में तथा राजनीति में राष्ट्रपति ,प्रधानमंत्री जैसे प्रमुख पदों के साथ साथ वैश्विक निगमों के कुंजी पदों पर महिलाओं की सक्रियता बढ़ी | पूंजीवादी व्यवस्था में परिवारों में आय का क्षरण लगातार होता है और लगातार बढ़ते ओद्योगिकीकरण ने इस संभावना को पैदा किया कि शिक्षित वर्ग के अंदर की महिलाएं अर्थ उपार्जन के लिए घर से बाहर निकलें , पर इस प्रगति ने घरों और समाज के साथ उनके सामंती संबधों को समाप्त नहीं किया , इसीलिये सामान्यतः महिलाएं घर और परिवार दोनों संभालती दिखाई पड़ती हैं | इन अवसरों ने शहरी महिलाओं और ग्रामीण महिलाओं के मध्य की पहले से मौजूद खाई को और चौड़ा किया | ग्रामीण स्तर पर इस विकास का कोई फायदा नहीं पहुँचने के चलते , अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस जैसे अनेक कार्यक्रम शहर के पढ़े लिखे तबके तक सीमित होकर रह गए | इसका नतीजा हुआ कि अंतररष्ट्रीय महिला दिवस के सुर ताल में भी परिवर्तन आया और वह व्यवस्था को चुनौती देने वाले अवसर के बजाय , जो कुछ भी सकारात्मक प्राप्त हुआ , उसे उत्सवित करने वाला दिन बनता गया |

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की धार कम होने का दूसरा बड़ा कारण नवउदारवाद की उन नीतियों में छिपा है , जिन्होंने पिछले चार दशकों में समाज में स्वयं केंद्रित विकास की अवधारणा को मजबूत किया है | इसके चलते समाज के शोषित और दबे तबकों में मिलकर संघर्ष करने और एक दूसरे के लिए लड़ने की भावना में गंभीर ह्रास आया | इन चार दशकों के दौरान , पूंजीवाद ने स्वयं केंद्रित विकास , जो अंततः समाज के शोषण के खिलाफ लड़ने वाले तबकों में विभाजन पैदा करता है , को बलवती बनाने और अपनी चमक को बरकरार रखने के लिए जो उपक्रम किये , उनमें , अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का अपहरण भी शामिल है | आज दुनिया के 25 से ज्यादा देशों में इस अवसर पर अवकाश घोषित किया जाता है | दुनिया की विभिन्न देशों की सरकारें , बड़े नैगमिक घराने , सरकारी और अर्धसरकारी प्रतिष्ठान , स्वायत्त संस्थाएं , अपने स्तर पर महिला दिवस पर चमकीले कार्यक्रम आयोजित कराने लगे हैं | सरकारों और कारपोरेट घरानों की इस चमक दमक के बीच महिला अधिकारों के लिए लड़ने वाले संगठन और मजदूर यूनियनें अवश्य सतत प्रयत्न करती रहती है कि अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का जुझारूपन बना रहे , मगर उन प्रयत्नों के बाद भी सचाई यही है कि नौजवान पीढ़ी का बहुत बड़ा हिस्सा सोचता है कि महिलाओं के लिए सभी लड़ाईयां जीती जा चुकी हैं और सामान अवसर के द्वार खुल चुके हैं | पर , दुर्भाग्य से ऐसा है नहीं | भारत सहित दुनिया के तमाम देशों में महिलाओं के साथ घट रही घटनाएं बताती हैं कि पितृ सत्तात्मक समाज की रूढियां , परम्पराएं , और सोच पूरी ताकत के साथ महिलाओं के खिलाफ सक्रिय हैं | आज भी महिलाओं को अपने पुरुष सहकर्मी की तुलना में कम मजदूरी दी जाती है | महिलाएं आज भी राजनीति और व्यवसाय में पुरुषों से संख्या में कम तो हैं ही , उन्हें पुरुषों के समकक्ष भी नहीं समझा जाता | वैश्विक स्तर पर स्वास्थ्य और शिक्षा के मामले में वे न केवल भेदभाव का शिकार हैं बल्कि कार्यस्थल से लेकर प्राथमिक शिक्षा के स्तर तक उनके खिलाफ यौन हिंसा को एक सामान्य सी घटना मानना सरकारों , प्रशासकों और समाज के अगड़ों की सोच में कायम है |

नार्थ अमेरिका , नार्थ अफ्रीका , लेटीन अमेरिका और मध्यपूर्व एशिया के अनेक देशों में कल्चर या धर्म के नाम पर स्त्रियों और छोटी लड़कियों के जननांगों को विकलांग ( Genital Mutilation ) करना , भारत सहित मध्यपूर्व एशिया में सम्मान ह्त्या (Honour Killing) ,  या अन्य और तरह से महिलाओं को शारीरिक यंत्रणा देना , कुछ उदाहरण हैं , जो समाज की महिलाओं के प्रति सोच को दिखाते हैं | हाल ही में संयुक्त राष्ट्र संघ के महिलाओं की दशा पर बनाए गए आयोग की 55वीं बैठक में एक प्रतिनिधी ने कहा कि महिलाओं के ऊपर होने वाले हिंसक व्यवहारों तथा अपराधों के खिलाफ एक ऐसे जागरुकता अभियान की जरुरत है , जो न केवल लड़कियों और महिलाओं को उनके अधिकार के प्रति सचेत करे बल्कि उससे ज्यादा वो कार्यक्रम पुरुषों , लड़कों , समुदायों , राजनीतिक , सांस्कृतिक तथा धार्मिक प्रमुखों को शिक्षित करे कि वे उन सभी रूढ़ियों , परम्पराओं , संस्कृति और धर्म को बदलें , जो महिलाओं को कमतर और दोयम दर्जे की समझने की सोच समाज में पैदा करती हैं और महिलाओं के खिलाफ हिंसा के लिए जिम्मेदार हैं |  भारत में यह विडंबनापूर्ण परिस्थिति है कि  अंतर्राष्ट्रीय  महिला दिवस के आसपास ही देश के सर्वोच्च न्यायालय को पत्रकार पिंकी वीरानी की उस याचिका पर फैसला सुनाना है , जिसमें पिंकी वीरानी ने हिंसक बलात्कार की शिकार अरुणा शानबाग के लिए सुखमृत्यु (Euthanasia) माँगी है , जो पिछले 38 सालों से मुम्बई के केईएम अस्पताल में अचेतावस्था में पड़ी है | अरुणा शानबाग अभी 61 वर्ष की है | सर्वोच्च न्यायालय का फैसला जो कुछ भी हो , पर अरुणा शानबाग के ये ३८ वर्ष मृत जैसे ही गुजरें हैं , वो भी बिना उसके किसी कुसूर के | इसी अस्पताल में लगभग पांच माह पूर्व दीपिका परमार नाम की एक महिला ने अपनी 45 दिन की बच्ची को खिड़की से बाहर फेंक दिया था | बच्ची को गंभीर चोटें आईं थीं और बाद में उसकी मौत हो गयी | अस्पताल के डाक्टरों के अनुसार दीपिका प्रसव उपरांत नैराश्य से पीड़ित थी , एक ऐसी दशा जिससे कुछ महिलाएं गुजरती हैं | जबकि सच्चाई यह है कि दीपिका ने जुड़वां बच्चों को जन्म दिया था , उनमें से दीपिका ने लड़की को फेंका , लड़के को नहीं | क्यों ? कड़वा सच यही हो सकता है कि परिवार और समाज का दबाव , जिसने दीपिका को नैराश्य में डाला और बच्ची को फेंकने पर मजबूर कर दिया | पिछले दो सालों का हिसाब उठाकर देखें तो ये दो साल खाप पंचायतों के असंवैधानिक , अतार्किक और अप्रगतिशील हिंसक फरमानों तथा सम्मान हत्याओं (Honour Honour Killing )  के रहे हैं , जिसे रोकने की सदिच्छा सरकार , प्रशासन , राजनीति और धर्म तथा संस्कृति के प्रमुखों , किसी ने नहीं दिखाई |

भारत में यदि प्रतिवर्ष लगभग एक लाख महिलाओं की प्रसव के दौरान मृत्यु होती है तो लगभग सात लाख लड़कियों की भ्रूणहत्या होती है | हमारा देश , संयुक्त राष्ट्रसंघ की लैंगिक असमानता सूची में 122वें नंबर पर है याने पाकिस्तान-112 , बंगला देश-116 और नेपाल-110 के भी बाद | ये वो देश हैं , जिनको हमारे देश के कतिपय संस्कृति और धर्म के स्वयंभू  ठेकेदार रूढ़िवादी और दकियानूसी बताते हैं | वे हैं , लेकिन हम कम नहीं हैं | हमारे देश में ऐसे अनेक स्कूल और कालेज हैं , जहां केवल रईसों और अतिसम्पन्न घरानों तथा राजा महाराजाओं के बच्चे ही पढ़ते है और वो भी केवल पुरुष बच्चे | ऐसे ही एक दून स्कूल के प्लेटिनम जुबली समारोह में बोलते हुए राष्ट्रपती प्रतिभा पाटील ने करीब छै माह पूर्व , वहाँ के दरवाजे लड़कियों के लिए भी खोलने की सिफारिश की थी | जब समाज के शिखर पर बैठे लोगों की सोच ऐसी हो तो किसी एक महिला के राष्ट्रपति बनने या पेप्सी जैसी कंपनी की दुनिया भर की प्रमुख बनने या चार चार महिलाओं का रिजर्व बैंक का डिप्टी गवर्नर बनना एक इत्तफाक से ज्यादा और क्या मायने रखेगा ! ऐसा नहीं है कि महिलाओं को समानता देने और दिलाने के प्रयासों के परिणाम नहीं निकले हैं | क़ानून भी बने हैं और सुविधाएं भी दी गईं हैं , पर जिन पर अमल कराने की जिम्मेदारी है , उनकी सोच रास्ते की बहुत बड़ी बाधा है | संसद में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने के सवाल पर इस सोच का प्रदर्शन हम लंबे समय से देख रहे हैं |

वर्षों पहले विख्यात उर्दू लेखिका इस्मत चुगताई ने अपना अनुभव लिखा था कि उनका बावर्ची खुद को उनसे श्रेष्ठ इसलिए समझता है , क्योंकि वह मर्द जात से है | एकबार यह सोच बदले तो महिलाओं के पक्ष में बदलाव , और तेजी से , और , और ज्यादा सकारात्मक होंगे | हमारे देश और समाज के शीर्ष पर बैठे लोगों को इसकी शुरुवात अपनी सोच में परिवर्तन लाकर करनी होगी , तभी समाज के सभी तबकों में भी परिवर्तन शुरू होगा |

अरुण कान्त शुक्ला